इतिहास: कुल्लू दशहरे का आरम्भ देवी हिडिम्बा के आगमन के बिना सम्भव नहीं

हिमाचल इतिहास: कुल्लू दशहरे का आगाज देवी हिडिम्बा के आगमन बिना सम्भव नहीं

विजयदशमी के मुख्य उत्सव का आरम्भ देवी हिडिम्बा के आगमन के बिना सम्भव नहीं होता। ढूंगरी (मनाली) से हिडिम्बा के पहुंचे बिना कोई कार्यवाही आरम्भ नहीं हो सकती। रघुनाथजी रथ-यात्रा के लिए नहीं निकल सकते। वर्तमान पालवंशीय राजपरिवार देवी को अपनी दादी कहता है। एक लोककथा के अनुसार मायापुर के निर्वासित राजकुमार विहंगमणीपाल को देवी ने ही कुल्लू का राज वख्शा। इसके पूर्व यहां स्पीति के राजाओं का दमनकारी शासन था। छोटे-छोटे राणा भी आपस में लड़ते रहते थे। हिडिम्बा की इच्छा से कुल्लू की प्रजा ने विहंगमणीपाल को राजा के लक्षणों से सम्पन्न जान जयधार जगतसुख में राजा घोषित किया।

देवी को बुलाने के लिए राजा की ओर से छड़ी भेजी जाती है जो कुल्लू के पास रामशिला तक जाती है। रामशिला में ही मनाली से आकर हिडिम्बा ठहरी होती है। यहां से देवी राजा का आमन्त्रण पाकर सुल्तानपुर पहुंचती है। उसके पधारने पर ही आगामी कार्यवाही आरम्भ होती है। देवी का धड़छ (धूपित करने का बड़ा कड़छ) राजा स्वयं उठाता है। फिर राजा देवी के सामने ठारा करडू रा धड़छ उठाता है। ठारा करडू का धड़छ राजमहल में रखा रहता है।

सबसे पहले रघुनाथ जी के मंदिर में माथा नवाते हैं राजमहल जाने वाले देवता

देवी हिडिम्बा

रथ-यात्रा को देखना व रथ खींचना पवित्र कार्य

धीरे-धीरे सब देवता रघुनाथजी के पास एकत्रित होते जाते हैं। राजमहल जाने वाले देवता सबसे पहले रघुनाथ जी के मंदिर में माथा नवाते हैं फिर राजमहल में ठारा करडू के धड़छ के पास। कुछ देवता सुल्तानपुर न जाकर सीधे ढालपुर में ही रथ यात्रा में शामिल होते हैं। सुल्तानपुर में रघुनाथ जी को एक छोटी पालकी में सुसज्जित किया जाता है और देव समुदाय से सुशोभित देव-शिरोमणि रघुनाथ जी को पालकी में ढालपुर मैदान में लाया जाता है। सुल्तानपुर पहुंचे सभी देवता बाजे-गाजे सहित साथ आ जाते हैं। ढालपुर मैदान में रथ पहले से ही सजाया होता है। दशहरे से पहले इसके पहिए आदि की मरम्मत कर दी जाती है। रथ में रघुनाथ जी को बिठा दिया जाता है। पुजारी बैठकर पूजा-अर्चना करता है, चंवर झुलाया जाता है। राजा छड़ी लेकर उपस्थित रहता है। राजपरिवार के अन्य लोग भी अपनी पारम्परिक वेशभूषा में सुसज्जित उपस्थित रहते हैं। पूजा-आराधना की जाती है। परिक्रमा की जाती है। रथ के चारों ओर देवता एकत्रित हो जाते हैं।

रथ-यात्रा को देखना व रथ को खींचना श्रद्धालु पवित्र कार्य समझते हैं। लोगों का अपार जनसमूह रथ के चारों ओर उमड़ पड़ता है। चारों और उमड़े आह्लादित देवता चारों ओर उछल कूद मचाते हैं।

रथ यात्रा आरम्भ होती है। भीड़ में हड़बड़ाहट फैल जाती है। कोई-कोई देवता भीड़ को रौंदते हुए तेजी से आगे भागते हैं। कोई उछल-उछलकर नाचते हैं। रथ के रस्से खींचने वालों की जय-जयकार करती भीड़ आगे बढ़ती है। लोग रथ के निकलने के रास्ते से हटकर इधर-उधर भागते हैं।

एक शोर! हर्षनाद! बाजों की घाटियों को चौंका देने वाली ध्वनि। जयघोष! धमाचौकड़ी! ऊंचे-ऊंचे झंडे! रघुनाथजी के देवताओं के आकर्षक निशान हवा में लहराते हैं। आकर्षक छत्र, ढोल, शहनाई, रणसिंगे? उत्साहित हो सरकता रंग-बिरंगे लोगों का अपार समूह? पारम्परिक वेशभूषा में सजे ग्रामीणों की श्रद्धामयी आंखे? देश-विदेश से आए अचम्भित लोगों की भीड़? एक रोमांचकारी दृश्य उपस्थित हो जाता है सामने।

रथ आकर रघुनाथजी के कैम्प तथा राजा रूपी के कैम्प के बीच खड़ा हो जाता है। अपने-अपने नियत स्थानों पर राजा रूपी तथा रघुनाथजी के कैंप लगे हैं। राजा रूपी का कैम्प जिलाधीश कार्यालय की ओर है तथा रघुनाथजी का कैम्प सडक़ की ओर। रघुनाथ जी को अपने कैम्प में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। सात दिनों तक रघुनाथजी को यहीं रहना होता है। अन्य देवता अपने-अपने निश्चित स्थानों को चले जाते हैं। हर देवता का मैदान में अपना निश्चित स्थान है। इस स्थान में देवता के बैठने के लिए कुल्लू दशहरा कमेटी की ओर से टैंट लगे होते हैं। टैंट में देवता को बिठा दिया जाता है। कमेटी द्वारा यहां प्रकाश का प्रबन्ध भी किया जाता है। देवताओं को कमेटी की ओर से नजराना दिया जाता है। देवता के साथ आए आदमी भी इसी टैंट में रहते हैं।

मलाणा का जमलू नहीं आता

दशहरे में कुछ देवता नहीं आते। परन्तु मलाणा का जमलू अपनी विचित्र प्रथा के कारण दशहरे में आकर भी नहीं आता। ऋषि जमदगिन के दो निशान-धड़छ और घण्टी व्यास के उस पास डोभी में आते हैं। निशानों के साथ आए आदमी भी वहीं रहते हैं। यहां देवता का अपना स्थान है। व्यास के पार ठहरते हुए भी देवता दशहरे में शामिल नहीं होता।

कमांद का पराशर ऋषि भी दशहरे में नहीं आता। देवी भेखली कटोरी में टीका भेजती है।

दशहरे में आने के लिए कुछ देवता अपनी प्रजा का बाध्य करते हैं। बदलते हुए सामाजिक मूल्यों के कारण, आर्थिक कठिनाइयों के कारण कुछ ग्रामीण अपने देवताओं को दशहरे में नहीं लाना चाहते परन्तु देवता उन्हें दशहरा में सम्मिलित होने पर मजबूर करता है। देवता के आने का अर्थ होता है, देवता के पुजारी, पुरोहित, कारदार, गूर व बाजेवालों के साथ गांव के लगभग सौ से अधिक आदमी। देवताओं के दशहरे में आने को चाकरी कहा जाता है।

Pages: 1 2

सम्बंधित समाचार

अपने सुझाव दें

Your email address will not be published. Required fields are marked *