आधुनिकता भरे माहौल में आज भी परंपरागत गहनों को सजीव रखे … किन्नौरी महिलाओं का श्रृंगार
सिर से पांव तक गहनों से लदी किन्नौरी महिलाओं का श्रृंगार इनकी संस्कृति की सजीवता का प्रतीक
हिमाचल के किन्नौर, चम्बा, कुल्लू व लाहौल-स्पीति जिले प्रदेश की सभ्यता, संस्कृति व रीति-रिवाज की सजीवता की निशानी हैं। यहां के लोगों के परंपरागत परिधानों और गहनों की अपनी ही अलग पहचान है। जिससे यह पता लगाया जा सकता है की ये कौन से जिले के लोग हैं। बात करते हैं किन्नौर जिले की। चाहे कोई भी उत्सव हो, त्यौहार हो, जन्म की खुशी हो या फिर शादी का जश्न, किन्नौर की महिलाओं का अजीबो-गरीब श्रृंगार देखते ही बनता है। इन अवसरों पर यहां की महिलाएं गहनों से इस तरह लद जाती हैं कि उनका चेहरा देख पाना मुश्किल हो जाता है। इस अजीबो-गरीब श्रृंगार की खूबसूरती देखते ही बनती है। यह श्रृंगार और परिधान इनकी परंपरा का एक हिस्सा है और वर्तमान में इनकी संस्कृति की सजीवता का प्रतीक भी।
विवाह, त्यौहार, उत्सव या अन्य शुभ अवसरों में भी खास तरह का होता है इनका परिधान
शादी आदि मौकों पर इनका परिधान भी खास तरह का होता है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सही मायनों में पूर्ण

विवाह, त्यौहार, उत्सव या अन्य शुभ अवसरों में भी खास तरह का होता है इनका परिधान
किन्नौरी परिधान आपको विवाह, त्यौहार, उत्सव या अन्य शुभ अवसरों में ही देखने को मिल सकता है। इस पारंपरिक परिधान में किन्नौरी टोपी, शॉल, दोहड़ू (एक लंबा गर्म ऊन का शॉल जिसे साड़ी की तरह फोल्ड करके गाची के साथ बांधा जाता है), गाची, मखमल की हरी जैकेट शामिल रहती है।
चोटी पर पहने जाते हैं दस-बीस चाक
आर्थिक सामर्थ्य के अनुसार कई औरतें चांदी की गाची भी पहनती हैं। दोहड़ू को कंधे के बांए हिस्से में एक खास पिन से कसा जाता है जो सोने और चांदी के मिश्रण से बनी होती है। इसे ‘पलपे’ कहा जाता है। इसी तरह शॉल को कसने के लिए सोने और चांदी से बनी (चतुर्भुज आकार की) पिन का इस्तेमाल किया जाता है जिसे स्थानीय बोली में ‘दीगरे’ कहा जाता है। चोटी पर चाक से किए गए श्रृंगार के तो क्या कहने। आर्थिक क्षमता के अनुसार चोटी पर एक से लेकर दस-बीस तक चाक पहने जाते हैं।
कई किलो भार के गहनों से श्रृंगरित महिलाओं का श्रृंगार किसी को भी बांध देता है मोहपाश में
वैसे तो किन्नौर को दो भागों में विभाजित किया गया है लोअर और अप्पर किन्नौर। दोनों ही जगहों के गहनों और उनके नामों में यूं तो समानता पाई जाती है लेकिन कुछ गहनों और उनके नामों में विविधता देखी जा सकती है। चाहे कुछ भी हो कई किलो भार के गहनों से श्रृंगरित इन महिलाओं द्वारा किया गया श्रृंगार सचमुच ही किसी को भी अपने मोहपाश में बांध देता है। यह इनकी समृद्ध संस्कृति का द्योतक है जो आज के इस आधुनिकता भरे माहौल में भी इस संस्कृति को सजीवता प्रदान किए हुए हैं।
जी हां, हम बात कर रहे हैं हिमाचल प्रदेश के जनजातीय जिला किन्नौर की महिलाओं की, जिनका परंपरागत परिधान और ढेरों गहनों से किया गया श्रृंगार किसी को भी आकर्षित करने में पूर्णतय: सक्षम है। सिर से पांव तक गहनों से लदी इन महिलाओं का श्रृंगार देखते ही बनता है। सिर पर प्रठेपण (टोपी) जो तीन-चार फूलों के रंग से सजी होती है, की बनावट गोलाकार चपटी होती है।
किन्नौरी बोली में सोने को ‘जड़’ और चांदी को कहते है ‘मुल’

किन्नौरी बोली में सोने को ‘जड़’ और चांदी को कहते है ‘मुल’
माथे पर ही बंधा होता है सुंदर डिजाइन का चांदी सोने का पट्टा जिसे ‘तोनोल’ कहा जाता है। इस पट्टे से पूरा चेहरा ही ढक जाता है। यह पट्टा पूरे सोने या पूरे चांदी या फिर दोनों धातुओं के संयोग से मिलकर भी बना हो सकता है। नाक पर लौंग, बलाक, बालु (नथ) पहने होते हैं जो सोने के बने होते हैं। सोने को किन्नौरी बोली में ‘जड़’ और चांदी को ‘मुल’ कहा जाता है। गले में लाल व हरे पत्थर के मिश्रण से बनी माला पहनी जाती है जिसे ‘तिंग शुलिक’ कहा जाता है। ‘तिंग’ शब्द का प्रयोग लाल पत्थर के लिए किया जाता है।
मंगलसूत्र की तरह पहना जाता है ‘शोकपोटक’
‘पटका चंग’ भी गले में पहना जाता है जो चांदी के छोटे-छोटे गोल दानों से निर्मित होता है। गले पर ही सोने के तीन गोल बड़े दाने पहने जाते हैं जिन्हे ‘शोक पोटक’ कहा जाता है। ‘शोकपोटक’ की एक माला से लेकर तीन मालाएं तक हो सकती हैं। यह महिला के परिवार ही आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। शोकपोटक की खास बात यह है कि यह विवाहित महिला के गले में हमेशा लटका रहता है। इसे मंगलसूत्र की तरह पहना जाता है। गले पर ही ‘टुंग्मा’ (चांदी का चौरस या षट्कोण के आकार का) पहना जाता है जो दुल्हन को बुरी नजर से बचाता है। गले में ही पहना जाता है ‘चंद्रहार’ या ‘चंद्रमंगल’जो सारे गहनों में सबसे भारी और लंबा होता है। यह गले से लेकर पेट या घुटनों तक लंबा हो सकता है। यह पूरी तरह से चांदी या चांदी और सोने का रहता है। इसके अलग-अलग डिजाइन होते हैं।
कान में पहने जाने वाले ‘कोनतई’ में कांटों की संख्या 12 से 15
अब कान की बात करें तो कान में ‘कोनतई’ (चांदी और सोना), ‘झूमकू’, ‘खुल-कनतई’ (चांदी) या फिर ‘कांटे’ (सोना) पहने जाते हैं। ‘कोनतई’ में कांटों की संख्या 12-15 से

कान में पहने जाने वाले ‘कोनतई’ में कांटों की संख्या 12 से 15
शुरु हो जाती है। इसके साथ झालर की तरह (चांदी के) अलग-अलग डिजाइन के गहने भी पहने जाते हैं जिन्हे ‘मुलु’ कहा जाता है। इनका भार इतना ज्यादा होता है कि यह कान को चीर दे। इसलिए कान में पहने जाने वाले इन गहनों को डोरी के साथ सिर पर बांधकर सहारा दिया जाता है। पहले कान में ‘मुरकी’ (पत्ते के आकार की) भी पहनी जाती थी लेकिन समय बदलने के साथ-साथ इसका प्रचलन भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया है। इसकी जगह अब ‘कांटे’ पहने जाते हैं।
सोने के कड़े को कहा जाता है ‘सुनंगो’ और चांदी के कड़े को ‘धागलो’
हाथ में चूड़ियों के साथ सोने और चांदी के कड़े पहने जाते हैं। सोने के कड़े को ‘सुनंगो’ और चांदी के कड़े को ‘धागलो’ कहा जाता है। इसमें दोनों हाथों के कड़ों का भार कम से कम 40 तोला तो रहता ही है। पैरों की अंगुलियों में चांदी का गहना पहना जाता है जिसे ‘बांगपोल’ कहा जाता है।