हिमाचल के गूजर या गुज्जर चरवाहे हैं और पूरी तरह घुमक्कड़ जीवन जीते हैं
हिमाचल प्रदेश में लाहौल-स्पीति, किन्नौर, पांगी और भरमौर (चम्बा) के मूल वासियों को जन-जाति (schedules Tribes) की संज्ञा दी गई है। दूरस्थ, कटा हुआ, सुख-सुविधाओं में कमी और बहुत अधिक ऊंचाई के पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण उपज की कमी के होने से जनजातियों को विशेष सुविधाएं, विकास के लिए अधिक अवसर प्रदान करने के लिए इन क्षेत्रों को संविधान में विशेष प्रावधान है।
हूणों के आने से पूर्व नहीं मिलता गूजरों का ऐतिहासिक उल्लेख
उत्तरी भारत की जातीय संरचना को प्रभावित करने में हूणों और गूजरों की महत्वपूर्ण भूमिका
हिमाचल के गूजर या गुज्जर चरवाहे हैं और पूरी तरह घुमक्कड़ जीवन जीते हैं। प्राय: यह माना जाता है कि छठी शताब्दी में इनके पूर्वज हिन्दकुश पर्वत की ओर से आने वाले हूण आक्रान्ताओं के साथ आए। हूणों के आने से पूर्व गूजरों का ऐतिहासिक उल्लेख नहीं मिलता। उत्तरी भारत की जातीय संरचना को प्रभावित करने में हूणों और गूजरों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सत्ता खो देने के पश्चात इनमें से अधिकांश पहाड़ों में शरण लेने और बसने के लिए विवश हो गए। घुमक्कड़ गूजरों ने हिन्दू स्त्रियों से शादियां की और हिन्दू समाज का अंग बन गए। कुछ गुज्जर अभी भी मुसलमान हैं।
गुज्जर- यह एक घुमन्तु जन समुदाय
भैंसे पालकर उनका दूध, घी बेचकर करते हैं अपना जीवन निर्वाह
यह एक घुमन्तु जन समुदाय है जो भैंसे पालकर उनका दूध, घी बेचकर अपना जीवन निर्वाह करता है। गुज्जर चम्बा जिला और कुछ संख्या में कांगड़ा, मण्डी में निवास करते हैं। चम्बा के गुज्जर मुसलमान हैं, इनका सम्बन्ध जम्मू-कश्मीर के गुज्जरों से है। मण्डी के गुज्जर हिन्दू हैं और स्थायी निवासी हैं। ये कृषक भी हैं और पशु-धन पालते हैं। चम्बा और कांगड़ा के गुज्जर गर्मियों में भैंसों को लेकर ऊंचे पहाड़ों को चराहागों पर चले जाते हैं और सर्दी आरम्भ होने से पूर्व पंजाब कांगड़ा के मैदानी क्षेत्र में आ जाते हैं। इनकी बोली, रस्मो रिवाज, पहरावा में अन्य समाज से भिन्नता है। बहुत से गुज्जरों ने अब स्थायी निवास और कृषि धन्धा अपना लिया है।
प्रदेश के चम्बा, कांगड़ा, कुल्लू में गुज्जर के नाम से पुकारी जाने वाली जन-जाति अपनी अलग पहचान
लंबे कद, गठीले शरीर, दाढ़ी-मूंछ वाले इन लोगों का पहरावा, बोली, धन्धा शेष समाज से अलग
घुमन्तु जाति गुज्जर- हिमाचल प्रदेश के चम्बा, कांगड़ा, कुल्लू में गुज्जर के नाम से पुकारी जाने वाली जन-जाति अपनी अलग पहचान रखती है। लंबे कद, गठीले शरीर, दाढ़ी-मूंछ वाले इन लोगों का पहरावा, बोली, धन्धा इनको शेष समाज से अलग कर देता है। ये हिमाचल के मूल निवासी नहीं, अधिकांश जम्मू-कश्मीर से आकर चरागाहों की तलाश में यहां आ गए थे। इन्हें यहां आए लम्बा समय हुआ, फिर इनकी जनसंख्या बढ़ते-बढ़ते बहुत फैल गई है। हिमाचल की पहाडिय़ों में इनकी गर्मियां बीतती हैं जहां वे भैंसों को ले जाते हैं। जंगलों में अपनी झोपडिय़ां, कोठे बना लेते हैं। सर्दियां प्रारम्भ होते ही ये लोग मैदानी क्षेत्रों, पंजाब और हिमाचल के तराई के इलाकों में आ जाते हैं।
पास के नगरों में बेचते हैं दूध, खोया और घी बनाकर
कुछ जमीन खरीद कर करते हैं कृषि
गुज्जर पास के नगरों में दूध, खोया और घी बनाकर बेचते हैं। अधिकांश गुज्जरों का निर्वाह इस प्रकार चलता है। बहुत से परिवार नियमित रूप से स्थायी बस गए हैं और जमीन खरीद कर कृषि उद्योग अपना लिया है। प्रारम्भ में इनकी संख्या कम थी, शासन ने भी नियंत्रण किया ताकि वनों का ह्रास रूके, चरागाहें नंगी होकर भूस्खलन की भारी समस्या बन गई। गुज्जर जनसंख्या कई गुना बढ़ी, उसके साथ भैंसों की संख्या भी अत्याधिक बढ़ गई। भूस्खलन और पर्यावरण हिमाचल प्रदेश की सबसे भयानक समस्या बनकर खड़ी हो गई। जिसकी रोकथाम अति आवश्यक है। विशेषज्ञों का मत है कि भैंसे नई पौद को समाप्त कर देती हैं। वनस्पति हीन भूमि नंगी होकर मिट्टी बह जाती है, नदियों में बाढ़ों की गति बढ़ती है जिससे न केवल पहाड़ों को हानि होती है, मैदानों में भी विनाश लीला हो जाती है।
गुज्जर हिमाचल की निचली पहाडिय़ों में कब आकर बसे, निश्चय कर पाना कठिन
उपयुक्त शोध के अभाव में यह निश्चित करना बहुत कठिन है कि गुज्जर हिमाचल की निचली पहाडिय़ों में कब आकर बसे। माना जाता है कि उन्होंने औरंगजेब के काल में इस्लाम स्वीकार किया इसलिए निश्चय ही वे इससे बहुत पहले से यहां रह रहे थे। इस प्रकार गूजर हिन्दू भी है और मुसलमान भी। मुस्लिम गूजर पूरी तरह घुमक्कड़ हैं और हिमाचल में कहीं भी उनका स्थायी निवास नहीं है। हिमाचल सरकार ने इन्हें स्थायी रूप से बसाने के प्रयास भी किए हैं। हिन्दू गूजर प्राय: घुमक्कड़ी का जीवन छोडक़र स्थायी रूप से घर बनाकर रहने लगे हैं। चम्बा और कांगड़ा में इनकी आबादी अधिक है।
गुज्जरों का पशुधन होती हैं भैंसे, ठीक वैसे ही जैसे गद्दियों की होती हैं भेड़ें
गुज्जरों का पशुधन भैंसे होती हैं ठीक वैसे ही जैसे गद्दियों की भेड़ें होती हैं। पहाड़ी ढलानों पर पशु चराते हैं और उनका दूध-घी बेचकर गुजारा करते हैं। गर्मियों में गूजर ऊंचे पहाड़ों पर चले जाते हैं जहां उनके पशु बर्फ के नीचे निकली हरी घास का आनन्द लेते हैं और मैदानों के मक्खी-मच्छरों से बचते हैं। यहां का समशीतोष्ण जलवायु उनके लिए स्वास्थ्यवद्र्धक रहता है।
गुज्जर पौरूषवान् श्रेष्ठ जाति
गुज्जर पौरूषवान् श्रेष्ठ जाति है। इनके नैन-नक्श सुन्दर एवं श्रेष्ठ होते हैं। ये अपराधों से बचते हैं। इनकी स्त्रियां लम्बी और सुन्दर होती हैं। हिन्दू गुज्जर अधिकतर जिला मण्डी, बिलासपुर, सिरमौर की पौंटा तहसील और कांगड़ा जिला में रहते हैं। ये हिन्दू रीति-रिवाजों को मानते हैं और प्राय: खेती करते हैं।
गुज्जर लोग हिमाचल के मूल निवासियों में से नहीं
गुज्जर लोग हिमाचल के मूल निवासियों में से नहीं परन्तु किसी समय ये लोग हिन्दूकुश पर्वत के पार से आक्रांता बनकर भारत में आए थे और फिर यहीं के होकर रह गए। प्रदेश में हिन्दू और मुस्लिम गुज्जर हैं। हिन्दू गुज्जर स्थायी तौर पर गांव में बसकर कृषि या अन्य व्यवसाय करते हैं। परन्तु मुस्लिम गुज्जर घुमक्कड़ स्वभाव के हैं और पशु लेकर विशेषतया भैंसे लेकर घूमते रहते हैं और दूध बेचने का काम करते हैं। गुजरियां सुन्दर, तीखे नयन नक्श वाली होती हैं, जो दूध व घी बेचने का काम करती हैं। हिमाचल प्रदेश में ही गुज्जर अनुसूचित आदिम जातियों की सूची में गिने गए हैं। यह आदिम जाति मुसलमान है। दक्षिण भारत के टोडा लोगों के समान गुज्जर भी भैंसे पालते हैं और जंगलों में रहते हैं। गुज्जरों का कद और वेश-भूषा भी टोडाओं से मिलती हैं। हिमाचल प्रदेश में इस आदिमजाति की जनसंख्या करीब 21 (2011 जनसंख्या)हजार है। चम्बा जिले में उनकी सबसे अधिक संख्या है, करीब 1300 । महासू और सिरमौर जिलों में भी गुज्जर जनजाति पर्याप्त संख्या में है।
चम्बा में काफी संख्या में बसे हैं मुसलमान गुज्जर
चम्बा जिला जम्मू के साथ लगता है। जब देशी राज्य था तभी से चम्बा में मुसलमान गुज्जर काफी संख्या में बसे हैं। चम्बा जिला वन-प्रधान है और यहां ऊंचे शिखरों पर पशुओं के लिए घास प्रचुर मात्रा में मिलती है। इसलिए हिमालय के भारतीय भाग में सबसे अधिक भेड़ बकरी और गौ, चम्बा जिले में है। गुज्जर अपना उद्गम स्थान जम्मू बताते हैं। परन्तु चम्बा जिले में रहते उन्हें अनेक पीढिय़ां बीत गई हैं। चम्बा में कुछ बन्दोबस्ती जमीन है और जंगलों में भैंस चुगाने के अधिकतर उनके बहुत पुराने माने गए हैं। चुराह, भरमौर और भटियात तहसीलों में गुज्जरों की बस्ती पर्याप्त है। ये लोग अपनी भैंसों के साथ ही गर्मियों में ऊंची चोटियों पर तथा सर्दियों में नीचे कांगड़ा और गुरूदासपुर जिलों में रहते हैं।
मुसलमान गुज्जर अपने गोत्र में नहीं करते विवाह
गुज्जरों की वेश-भूषा अलग ही होती है। भाषा भी न्यारी है। मुसलमान होने पर भी ये लोग अपने गोत्र में विवाह नहीं करते। गो मांस नहीं खाते तथा गुज्जरों के अलावा दूसरे मुसलमानों से शादी का रिश्ता नहीं करते।
गुज्जरों की चंबा जिला में सबसे अधिक संख्या
हिमाचल प्रदेश में गुज्जर अनुसूचित आदिम जातियों की सूची में गिने गए हैं। यह आदिम जाति मुसलमान है। दक्षिण भारत के टोडा लोगों के समान गुज्जर भी भैंस पालते हैं और जंगलों में रहते हैं। गुज्जरों का कद और वेश-भूषा भी टोडाओं से मिलती है। चंबा जिला में उनकी सबसे अधिक संख्या है। करीब 1300 महासू और सिरमौर जिलों में भी गुज्जर जनजाति की पर्याप्त संख्या है। चंबा जिला जम्मू के साथ लगता है। जब देशी राज्य था तभी से चंबा में मुसलमान गुज्जर काफी संख्या में बसे हैं। चंबा जिला वन प्रधान है और यहां ऊंचे शिखरों पर पशुओं के लिए घास प्रचुर मात्रा में मिलती है। इसलिए हिमालय के भारतीय भाग में सबसे अधिक भेड़-बकरी और गौ, चंबा जिला में है। गुज्जर अपना उद्गम स्थान जम्मू बताते हैं, परंतु चंबा जिला में रहते उन्हें अनेक पीढि़यां बीत गई हैं। चंबा में कुछ बंदोबस्ती जमीन है और जंगलों में भैंस चराने के अधिकार उनके बहुत पुराने माने गए हैं। चुराह, भरमौर और भटियात तहसीलों में गुज्जरों की बस्ती पर्याप्त है। ये लोग अपनी भैंसों के साथ ही गर्मियों में ऊंची चोटियों पर तथा शीतकाल में नीचे कांगड़ा और गुरदासपुर जिलों में रहते हैं।
गुज्जरों की भैंसें जंगली किस्म की होती हैं, जिनको खूंटे पर नहीं बांधना होता
गुज्जरों की भैंसें जंगली किस्म की होती हैं। उनको खूंटे पर नहीं बांधना होता है। इन भैंसों की आदत कुछ- कुछ भेड़-बकरियों जैसी होती है और बीहड़ जगहों पर भी बहुधा घास खाकर अपना पेट भर लेती हैं। गुज्जर अपना डेरा आम तौर पर पेड़ के नीचे लगाते हैं। कहीं कहीं कच्ची घास की झोंपड़ी भी बना लेते हैं। ये लोग शांतिप्रिय और भले प्राणी हैं। जंगलों में रहने से इनका स्वभाव पूरा जंगली है। इनका धंधा भैंस, गौ पालना और दूध घी बेचना है। गुज्जरों की वेश-भूषा अलग ही होती है। भाषा भी न्यारी है। मुसलमान होने पर भी ये लोग अपने गोत्र में विवाह नहीं करते। गो मांस नहीं खाते तथा गुज्जरों के अलावा दूसरे मुसलमानों से शादी का रिश्ता नहीं करते। 1947 की गड़बड़ के समय पठानकोट और डलहौजी के अलावा चंबा शहर के अनेक सांप्रदायवादी हिंदुओं ने भी गुज्जरों को काफी परेशान किया था। उस समय देशी राज्य था। राजा और उनके कर्मचारियों ने यथाशक्ति गुज्जर प्रजा को संरक्षण दिया, परंतु उस समय देश में और लोगों के मनों में घृणा की आग लगी हुई थी।