चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम, (कांगड़ा) -जहाँ श्रद्धालुओं की होती है हर मनोकामना पूरी
चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम, (कांगड़ा) -जहाँ श्रद्धालुओं की होती है हर मनोकामना पूरी
श्री चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम रियासतीकाल में त्रिगर्तगण (वर्तमान कांगड़ा) का उत्तरी द्वारपाल माना जाता था
हिमाचल प्रदेश की धौलाधार पर्वत श्रृंखला में बसा कांगड़ाजिलेकाशिव–शक्तिधामश्रीचामुण्डा–नंदिकेश्वरमन्दिरधर्मशालाउपमण्डल के जदरंगल नामक गांव में स्थित है। इस मन्दिर की गणना प्रमुख शक्तिपीठों में की जाती है। मान्यता है कि इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूरी होती है।श्री चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम रियासतीकाल में त्रिगर्तगण (वर्तमान कांगड़ा) का उत्तरी द्वारपाल माना जाता था। यहां चामुण्डा का प्रस्तर शिल्प में बना शिखर शैली का एक प्राचीन मन्दिर था। इसी स्थान पर अब संगमरमर से निर्मित विशालकाय देवालय बनाया गया है। आधुनिक ढंग के निर्माण शिल्प से मन्दिर का पुरातन स्वरूप तो छिप सा गया है लेकिन मन्दिर की नवनिर्मित संरचना भी आकर्षक – बन पाई है। इस मन्दिर में शिव-शक्ति की लैंगिक देव के रूप में पूजा की जाती है। यहां मन्दिर के गर्भगृह में चामुण्डा की पुरातन प्रस्तर प्रतिमा है। यहां मन्दिर के कपाट चांदी की चादर के साथ मढ़े गए हैं। उस पर की गई नक्काशी शिल्पी के कुशल हस्त कौशल को दर्शाती है। चांदी की परत पर उत्कीर्ण दत्तात्रेय और पुष्पमालाओं से अलंकृत गजानन की शोभा देखते ही बनती है। इसके अधोभाग पर एक ओर हनुमान और दूसरी ओर भैरव की प्रस्तर प्रतिमाएं हैं। इनके ऊपर भद्र मुख है। इस मन्दिर के प्रवेश द्वार से दायीं ओर परिक्रमा करने पर एक पुरातन शिला पर शक्ति के युगल चरण अंकित हैं। यही चिन्ह आदि चामुण्डा का प्रतीक माना जाता है। यहां मन्दिर परिक्रमा पर और भवन के भित्ति चित्रों में शक्ति की लीलाओं को संजीवता के साथ उकेरा गया है। संकीर्तन भवन में रामायण और महाभारत के अनेक प्रसंगों को दीवारों पर चित्रित किया गया है। इस मन्दिर के शिखर पर तांबे का आमलक तथा कलश है जिस पर सोने की पालिश चढ़ायी गयी है। चामुण्डा मन्दिर के प्रांगण में एक लघु मन्दिर है और महाभारत के अनेक प्रसंगों को दीवारों पर चित्रित किया गया है। इस मन्दिर के शिखर पर तांबे का आमलक तथा कलश है जिस पर सोने की पालिश चढ़ायी गयी है।
गुफा के बाहर आंगन में दुर्गा, शंकर और गणेश की संगमरमर की मूर्तियां तथा हनुमान, छत्र लिए घुड़सवार, नंदी बैल, एक नाग आकृति और आठ तपस्वियों की प्रस्तर प्रतिमाएं
चामुण्डा मन्दिर के प्रांगण में एक लघु मन्दिर है जिसमें शिवलिंग और द्वार के बाहर नंदी बैल है। इसके साथ श्री राम और गणपति की विशालकाय मूर्तियां है। इस छोटे मन्दिर के पास ही तपस्वियों की नौ छोटी-छोटी मूर्तियां भी हैं। चामुण्डा मन्दिर की बगल वाली गुफा नंदिकेश्वर महादेव का पूजा स्थल है। इसी गुफा में बृहदाकार नैसर्गिक प्रस्तर शिवलिंग की नंदिकेश्वर महादेव के रूप में पूजा की जाती है। इसके साथ गणेश की प्रस्तर मूर्ति है। यहां शंकर, पार्वती, कार्तिकेय, हनुमान, और नंदी की संगमरमर की मूर्तियां है। गुफा के बाहर आंगन में दुर्गा, शंकर और गणेश की संगमरमर की मूर्तियां तथा हनुमान, छत्र लिए घुड़सवार, नंदी बैल, एक नाग आकृति और आठ तपस्वियों की प्रस्तर प्रतिमाएं है। इस गुफा से कुछ दूरी पर एक शमशान घाट भी है। इस मन्दिर के एक अन्य द्वार के ऊपर हनुमान, भैरव और वंशीधर गोपाल की मूर्तियां हैं। यहां मन्दिर परिसर में महात्माओं की समाधियां भी हैं। यहां निर्मित चामुण्डा सरोवर के मध्य शंकर और सरस्वती तथा किनारे पर हनुमान की मूर्ति बनाई गई है।
यहां आद्य शक्ति को हिमानी चामुण्डा के नाम से जाना जाता था
आर्ष ग्रन्थों में उल्लेख है कि महाकाली सृष्टि के ध्वंसक चण्ड-मुण्ड नामक असुरों का संहार करने पर चामुण्डा कहलाई। भगवती कौशिकी का रूद्र रूप भी चामुण्डा कहलाता है। इस जनपद में चामुण्डा रूपी शक्ति का मूल मन्दिर चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम से पन्द्रह किलोमीटर दूर चन्द्रधार पर्वत चोटी पर था। यहां आद्य शक्ति को हिमानी चामुण्डा के नाम से जाना जाता था। इसी भूमि पर यशस्वी राजा चन्द्रभान ने भगवती चामुण्डा की कठोर साधना की यह परम्परा प्रतिबन्धित है। हिमाचल प्रदेश राजस्व विभाग के 28 मार्च, 1890 ई० को उल्लिखित अभिलेख के अनुसार- “यह मन्दिर बहुत पुराना है जिसमें एक धर्मशाला बनी है तथा बहुत प्रसिद्ध है।”
लोकश्रुति के ‘ अनुसार शिव और शक्ति के मिलन से यहां चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम प्रतिष्ठापित हुआ
यहां चामुण्डा नंदिकेश्वर के आविर्भाव के सम्बन्ध में किंवदन्ति है कि प्राचीनकाल में इस क्षेत्र पर नरभक्षी योगिनी का अधिराज्य रहा है। लोक मानस में वह योगिनी चामुण्डा मानी जाती थी। चामुण्डा की रक्त पिपासा को शान्त करने के लिए क्षेत्रवासी हर दिन बारी-बारी से एक व्यक्ति को योगिनी की बलि चढ़ाते थे। इस क्रम में एक परिवार की बारी आई जिसमें एक बूढ़ी मां और उसका इकलौता पुत्र था। इस घटना की सूचना मिलने पर वृद्ध मां रूदन हां करती-करती अपने पुत्र को मनपसन्द पदार्थ और भोजन या परोस रही थी। मां और पुत्र मृत्यु के विस्मयकारी त्रास से खिन्न, आशा की किरण को भुलाकर शोकाकुल हो गए थे। के उसी क्षण एक फक्कड़ फकीर उनके घर के सामने खड़े बर होकर वृद्धा से स्वादिष्ट भोजन मांगता है। इस पर वृद्धा भी इंकार करती है। साधु ने कहा कि तुम मुझे पेटभर भोजन तो करवा दो मैं तुम्हारे बेटे के बदले बलि हो जाऊंगा। उस साधु ने वृद्धा के मना करने पर भी उससे जबरदस्ती भोजन लिया तथा बलि के लिए तत्पर रहा।
चामुण्डा के बलि का समय आने पर जब लड़का नहीं पहुंचा तो योगिनी चामुण्डा (जिसे स्थानीय बोली में चौण्डा कहते हैं) ने उस साधु पर बृहद् शिलाओं को फेंक कर प्रहार किया। साधु ने उन शिलाओं को आक्रमण मार्ग पर ही रोक दिया। इस पर भगवती चामुण्डा ने योगमाया से भेद ना लगाया कि यह अदम्य कार्य शमशान वासी शिव ही कर सकते हैं। आलौकिक शक्तियों का मिलन होने पर शिव ने चामुण्डा से बलि न लेने का वचन लिया। शिव स्वयं चट्टान के नीचे नंदिकेश्वर महादेव के नाम से पूजित हुए तथा चट्टान के ऊपर चामुण्डा का पूजनीय स्थान है। इस लोकश्रुति के ‘ अनुसार शिव और शक्ति के मिलन से यहां चामुण्डा नंदिकेश्वर धाम प्रतिष्ठापित हुआ।
चामुण्डा-नंदिकेश्वर धाम महान तान्त्रिकों का अखाड़ा रहा है
लोक विश्वास है कि यहां चार कोस के क्षेत्र से र प्रतिदिन कहीं न कहीं से कोई शव दाह संस्कार के लिए आता है। यह भी मान्यता रही है कि यदि किसी दिन शव न 1 आए तो उस दिन खड़ नाम की घास का एक गट्ठा शव 5 प्रतीक के रूप में जलाया जाता था। हालांकि अब यह प्रथा नहीं है तथापि इस क्षेत्र में वर्षभर लगभग तीन सौ से अधिक शव जलाए जाते हैं जो शवों की दैनिक गणना भी पूर्ण करते हैं। एक लोक आस्था के अनुसार सांसारिक जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति पाने के लिए यहां शव दूर-दूर के स्थानों से दाह संस्कार के लिए लाए जाते हैं।
चामुण्डा-नंदिकेश्वर धाम महान तान्त्रिकों का अखाड़ा रहा है। यहां तंत्र विद्या के माहिर आचार्य शम्भु नाथ, लठ निरंजन अवदूत, बाबा घासी राम, पण्डित दयाल राम, पण्डित वाम देव आदि ने भगवती चामुण्डा की साधना कर सिद्धि हासिल की है। यहां दुर्गा सप्तशती को लिपिबद्ध करने वाले सरयु प्रसाद द्विवेदी ने भी चामुण्डा देवी की एक वर्ष तक तपस्या की है। यहां सन् 1950 ई० से तन्त्र शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान पण्डित कांशी नाथ के तत्त्वावधान में यज्ञ-याग प्रथा का सूत्रपात हुआ।
चामुण्डा की बावड़ी से जल लाकर माता का स्नान और शृंगार करने के बाद पूजा की जाती है
चामुण्डा मन्दिर में ब्रह्ममुहूर्त में बाणगंगा के पार चामुण्डा की बावड़ी से जल लाकर माता का स्नान और शृंगार करने के बाद पूजा की जाती है। यहां शिव-शक्ति का वैदिक रीति के अनुसार षोडशोपचार विधि से द्विकालीन पूजा का नित्य विधान है। प्रातःकालीन और सांयकालीन बेला में भगवती की आरती की जाती है। संध्या आरती के उपरान्त माता की स्तुति विभिन्न स्त्रोतों के साथ उन्मुक्त कण्ठ से की जाती है। इसके साथ शय्या सजाकर माता का शयन करवाया जाता है। चामुण्डा देवी को दोपहर 12:00 बजे लंगर में बनाए गए भोजन और मीठे चावल और खीर का भोग लगाया जाता है। इस मन्दिर में वसंतीय और शरद नवरात्र, श्रावण मास के गुप्त नवरात्र, कृष्ण जन्माष्टमी, दीपावली, लोहड़ी, शिवरात्रि, होली आदि त्योहार धूमधाम के साथ मनाए जाते हैं।
यहां चैत्र और आश्विन नवरात्र की अष्टमी को निशीथ पूजन की परिपाटी है। इसमें भगवती चामुण्डा की अर्धरात्रि में विशेष पूजा की जाती है। माता को नाना प्रकार के भोग लगाए जाते हैं। सारी रात जागरण होता है। इस पूजन को देखने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। यहां बैशाख मास की द्वितीया को रलियों का मेला लगता है। इसमें लड़कियां शिव-पार्वती की मिट्टी से बनी मूर्तियो का रली विवाह करवाती है।
इस मन्दिर का प्रबन्धन कार्य संचालित करने के लिए 24 फरवरी, 1994 ई० को हिन्दू सार्वजनिक संस्थान एवं पूर्त विन्यास अधिनियम 1984 के अन्तर्गत मन्दिर न्यास का गठन किया गया है। यहां न्यास दारा मन्दिर के कार्यों के अतिरिक्त एक संस्कृत महाविद्यालय, कांगड़ा हस्त शिल्प केन्द्र, पुस्तक विक्रय केन्द्र और एक पुस्तकालय भी चलाया जा रहा है।
यह मन्दिर कांगड़ा से 20 किलोमीटर धर्मशाला से 16 किलोमीटर, पालमपुर से 25 किलोमीटर, पठानकोट से 105 किलोमीटर तथा शिमला से 270 किलोमीटर की दूरी पर है। मण्डी-पठानकोट राष्ट्रीय उच्च मार्ग पर मला नामक स्थान से यह मन्दिर केवल पांच किलोमीटर दूर है।