कुल्लू के दशहरे का अपना इतिहास, पृष्ठभूमि व सांस्कृतिक परम्परा
देवी-देवताओं के महासंगम का गवाह : कुल्लू दशहरा
कुल्लू में दशहरे का शुभारंभ 17वीं शताब्दी में हुआ

देवी-देवताओं के महासंगम का गवाह बनता है कुल्लू दशहरा
देश भर में मनाया जाने वाला दशहरा पर्व जहां आसुरी शक्तियों पर दैवी शक्तियों की विजय के प्रतीक स्वरूप मनाया जाता है, वहीं कुल्लू दशहरे की पृष्ठभूमि बिल्कुल भिन्न है। कुल्लू में तो दशहरा एक लोकोत्सव है, स्थानीय देवी-देवताओं का महासंगम है। इस लोकोत्सव का दशहरे के साथ मात्र इतना संयोग है कि यहां का दशहरा भी देश के अन्य भागों में मनाए जाने वाले दशहरे के दिन शुरू होता है। बल्कि यूं कहा जाए कि कुल्लू का दशहरा उस दिन प्रारम्भ होता है जिस दिन देश भर में दशहरा समाप्त हो जाता है। कुल्लू के दशहरे का अपना इतिहास, पृष्ठभूमि व सांस्कृतिक परम्परा है।
हिमाचल प्रदेश देवी-देवताओं, मेलों, त्यौहारों व पर्वों की भूमि है। इन मेलों में इतिहास, परम्परा व सामाजिक सन्देश छुपा हुआ है। यहां की सुदृढ़ पारम्परिक मान्यताऐं ही सांस्कृतिक पक्ष को जीवन्त बनाती हैं जो समाज को एक लड़ी में पिरोए रखने का कार्य निभाती हैं। जिससे समाज विखण्डित होने से बचा रहता है। इसी परम्परा में हिमाचल में प्रत्येक स्थान पर मेलों का आयोजन होता है जिसमें से प्रमुख रूप से कुल्लू का दशहरा, चम्बा की मिंजर, मण्डी की शिवरात्रि, रामपुर का लवी मेला व सुजानपुर का होली मेला प्रसिद्ध है।
अपने आप में ही निराला उत्सव कुल्लू दशहरा
कुल्लू घाटी में विजयदशमी पर्व की परंपरा और रीति-रिवाज ऐतिहासिक रूप से खास महत्व रखती है। जिस दिन पूरे देश में दशहरा

रथ यात्रा की रम्यता, खरीदारी का उल्लास और धार्मिक परंपराओं की धूम पर्यटकों को लुभाती है
खत्म होता है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव की शुरुआत होती है। यहां की रथ यात्रा की रम्यता, खरीदारी का उल्लास और धार्मिक परंपराओं की धूम पर्यटकों को लुभाती है। यहां पर सात दिन का मेला लगता है। पूरे क्षेत्र में व्यवस्थित दुकानें लगती हैं और बड़ी चहल-पहल होती है। कुल्लू का दशहरा मुख्य रूप से सांस्कृतिक लोकोत्सव है। यहां दशहरे पर रघुनाथजी की पूजा की जाती है। देवी-देवताओं को पालकी में बिठाकर जुलूस निकाला जाता है। इस मौके पर सभी लोग अपने पारंपरिक कपड़े पहनते हैं। समुद्रतल से करीब 1200 मीटर की ऊंचाई पर बसे कुल्लू को प्राचीन काल में आदमी के रहने के अंतिम छोर पर बसा स्थान माना जाता था। देसी-विदेशी पर्यटक यहां दशहरा देखने के अलावा कुदरत का आनंद लेने के लिए भी आते हैं। कुल्लू का दशहरा अपने आप में ही निराला उत्सव है। यहां का दशहरा इतिहास व मिथक का एक ऐसा सुन्दर समन्वय है जिसे हर रूचि, रीति, प्रकृति और व्यवहार के लोग बड़े शौक से मनाते हैं।
भगवान रघुनाथजी की वंदना से कुल्लू दशहरा उत्सव का आरंभ

भगवान रघुनाथजी की वंदना से कुल्लू दशहरा उत्सव का आरंभ
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा बहुत प्रसिद्ध है। करीब एक सप्ताह पहले से ही इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्री और पुरुष सुंदर वस्त्रों से सुसज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बांसुरी अथवा जिसके पास जो वाद्य होता है, उसे लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूमधाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं। देवताओं की मूर्तियों को बहुत ही आकर्षक पालकी में सुंदर ढंग से सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक नाटी नृत्य करते हैं। इस प्रकार जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ करते हैं।
कुल्लू दशहरा उत्सव की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
कुल्लू का दशहरा उत्सव की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि श्री रामचंद्र जी के अयोध्या से कुल्लू आने पर आधारित है। कुल्लू में दशहरे का शुभारंभ 17वीं शताब्दी में हुआ। श्री रामचन्द्र तथा सीता की मूर्तियां, जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें श्री रामचन्द्र जी ने अश्वमेघ यज्ञ के लिए बनवाया था, राजा जगत सिंह के रोग निवारण के लिए अयोध्या से कुल्लू लाई गईं। वर्ष 1651 में मकड़ाहर, उसके बाद 1653 में मणिकर्ण मंदिर में मूर्तियां रखने के बाद 1660 में कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में विधि विधान से मूर्तियों को स्थापित किया गया। इसके बाद राजा राजपाट इन्हें सौंप कर स्वयं प्रतिनिधि सेवक के रुप में कार्य करने लगा तथा राजा रोग मुक्त हो गया। रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह द्वारा वर्ष 1660 में दशहरे की परम्परा आरंभ हुई तथा कुल्लू में 365 देवी-देवता भी रघुनाथ जी को इष्ट मानकर दशहरा उत्सव को ढालपुर मैदान में मनाया जाने लगा। जिस दिन भारत भर में अश्विन शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को दशहरा का समापन होता है उस दिन कुल्लू का दशहरा आरंभ होता है।
पहले पूर्णिमा के दिन लंका दहन होता था, लेकिन अब यह सात दिन तक मनाया जाता है। भारत वर्ष के अन्य भागों में जहां विजयदशमी के दिन रावण, कुंभकरण, मेघनाथ आदि के पुतले जलाकर यह त्यौहार संपन्न किया जाता है, वहां कुल्लू में यह पर्व रामचंद्र जी की विजय-यात्रा से प्रारंभ होता है। दशहरे के लिए राजा देवी हिडिंबा (मनाली) को विशेष निमंत्रण भेजता है। पहले इस दिन आदि ब्रह्मा, नारद, दुर्वासा, बिजली महादेव, वीरनाथ (गौहरी) आदि देवता रघुनाथ मंदिर में आते थे, लेकिन अब केवल गौहरी देवता ही प्रथम नवरात्र को मंदिर में आते हैं। विजयदशमी के दिन प्रात: काल से ही देवी-देवताओं के रथ रंग-बिरंगे परिधानों से सुसज्जित अपने क्षेत्र की जनता तथा वाद्य-वृन्द के साथ रघुनाथ मंदिर में आकर रघुनाथ जी की वंदना करते हैं। राजमहल में जाकर ‘ठारह करडू’ की परौल (ड्योढ़ी) की वंदना करते हैं। पहले इस त्यौहार में तीन सौ पैंसठ देवता रथ यात्रा में सम्मिलित होते थे। इस दिन प्रात: काल देवी हिडिंबा के रथ (पालकी) को लेकर लोग रामशिला पहुंच जाते हैं। पहले देवी हिडिंबा के रथ को रघुनाथ मंदिर में लाते हैं। राजपुरोहित राजा से ध्वजा पंखे, अन्य निशान तथा अस्त्र-शस्त्रों की पूजा करवाता है, फिर दुंदभी (नोपत) और अश्व की पूजा की जाती है। राजा अपने महल को जाते हुए देवी ‘महोग्र तारा’ के मंदिर में वंदना करता है। राजमहल में भी रघुनाथ जी की मूर्तियां हैं। यहां भी शस्त्रास्त्रों की पूजा की जाती है। देवी हिडिंबा राजा को आर्शीवाद देती हैं। अपराह्र तीन बजे के लगभग भगवान जी को पुष्पमालाओं से सुसज्जित पालकी में विराजते हैं। इसी के साथ भगवान विजय-यात्रा के लिए चल पड़ते हैं।
आकर्षण का केंद्र रहती है भगवान रघुनाथ जी की रथ यात्रा

आकर्षण का केंद्र रहती है भगवान रघुनाथ जी की रथ यात्रा
मंदिर प्रांगण में आने पर शोभायात्रा में सबसे आगे सुसज्जित घोड़ा, देवी-देवताओं के वादक ढोल, नगारा, दारघ, ढौंस, दमामा, भाणा, नरसिंघा, करनाल, नोपत, शहनाई, छणे, शंख लेकर चलते हैं। इन वाद्य-यंत्रों की मधुर ध्वनि से सारा वातावरण गूंज उठता है। रघुनाथ जी तथा उपस्थित देवी-देवताओं के ध्वज, पंखे आदि विभिन्न रंगों से सजे होते हैं। राजा तथा राज परिवार के सदस्य, भक्तजन, रघुनाथ जी की पालकी के साथ देवी-देवताओं के रथ उत्सव में आए हुए लोग एक लंबे जलूस के रुप में ढालपुर मैदान की ओर जाते हैं। देवी-देवताओं की पालकियां भी रघुनाथ जी के स्वागत के लिए रथ के पास रहती हैं। शोभायात्रा के रथ के पास पहुंचने पर मूर्तियों को रथ में रख लिया जाता है। पूजा एवं आरती के पश्चात् राजा, परिवार के अन्य सदस्य, पुजारी, पुरोहित, अन्य सेवक, कुछ देवता रथ की चार परिक्रमा करते हैं। राजा रस्सों को हाथ लगाता है। उसके पश्चात् हजारों की संख्या में लोग ‘श्री रामचंद्र की जय’, ‘सीता माता की जय’, हनुमान जी की जय’ आदि जयघोष करते हुए रथ को मैदान के मध्य तक ले जाते हैं।
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ढालपुर मैदान में अद्भुत एवं अनूठे देवी-देवताओं का मिलन देखकर भावविभोर हो उठता है मन
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