चंबा का "मिंजर" रघुवीर व लक्ष्मी नारायण जी को समर्पित

परंपरागत ढंग से शताब्दियों से मनाया जा रहा है “चंबा का मिंजर”

  • चंबा का “मिंजर” रघुवीर व लक्ष्मी नारायण जी को समर्पित

परपरागत ढंग़ से शताब्दियों से मनाया जा रहा है “चंबा का मिंजर”

परपरागत ढंग़ से शताब्दियों से मनाया जा रहा है “चंबा का मिंजर”

चंबा का यह सुप्रसिद्ध वर्षा ऋतु का मेला श्रावण मास के तीसरे रविवार को बड़ी धूमधाम से परपरागत ढंग़ से शताब्दियों से मनाया जा रहा है। साले जिला भर से, बाहर से हजारों लोग एकत्रित होते हैं। चौगान में भांति-भांति की दुकानें लगती है। तीसरे रविवार को रघुनाथ जी के मंदिर से प्रारंभ कर जो अखण्ड-चण्डी महल में आते हैं, बाजे गाजे, पुलिस बैंड, जिला के उच्च अधिकारियों गण्य-मान्य लोगों की शोभा-यात्रा द्वारा, राज चिन्हों के साथ शोभा-यात्रा में रावी के किनारें नल्होरा स्थान पर मिंजर प्रवाहित कर दी जाती है। रघुनाथ नाथ जी की मूर्ति को पालकी में उठा कर लाते हैं। यह मेला आठ दिन तक चलता है। मिंजर वरूण देवता की पूजा समझी जाती है। मिंजर मक्की की बाली का द्योतक है। मेले की शुरुआत रघुवीर और लक्ष्मी नारायण को मिंजर भेंट कर किया जाता है।

  • गेंहू, धान, मक्की और जौ की बालियों को ही स्थानीय लोगों में कहा जाता है मिंजर

अब यह मेला राज्य की ओर से मनाया जाने लगा है। ऐसा कहा जाता है कि 920-940 ई. जिसने चंबा शहर की नींव रखी थी, के समय से शुरू हुआ था। राजा साहिल वर्मन एक वीर राजा थे जिन्होंने किर और तुरूकश नामक शक्तिशाली कबीलों को हराया था। इसी विजय की खुशी में राजा को लोगों ने मिंजरे मक्की के पौधे के ऊपरी भाग भेंट की व राजा ने उन्हें अशार्फियां भेंट की। उसी समय से यह मेला मनाया जाता है। मेले के अंतिम दिन चंबा के सारे देवता इकटठे होतें हैं। गेंहू, धान, मक्की और जौ की बालियों को ही स्थानीय लोगों में मिंजर कहा जाता है। मौजूदा समय में जरी या गोटे से बनाई गई बालियां मिंजर या मंजरी कमीज के बटन पर लगाई जाती हैं, जो एक हफ्ते के बाद उतार कर रावी में विसर्जित या प्रवाहित कर दी जाती हैं।

  • शाहजहां के शासन काल में “रघुवीर जी” को सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह लाए थे यहां

शाहजहां के शासन काल में सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह रघुवीर जी को यहां लाए। रघुवीर जी के साथ शाहजहां ने मिर्जा साफी बेग राजदूत के रूप में भेजा और साथ छत्र और चिन्ह

शाहजहां के शासन काल में “रघुवीर जी” को सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह लाए थे यहां

शाहजहां के शासन काल में “रघुवीर जी” को सूर्यवंशी राजा पृथ्वी सिंह लाए थे यहां

भेजे। मिर्जा साहब जरी गोटे के काम में निपुण थे। जरी को मिंजर बनाकर उन्होंने रघुवीर जी, लक्ष्मी नारायण और राजा पृथ्वी सिंह को भेंट की थी। तब से लेकर मिर्जा साफी बेग का परिवार ही रघुनाथ जी और लक्ष्मी नारायण को मिंजर भेंट करता चला आ रहा है। यह मेला सदियों पहले चंबा और भारत के धर्म निरपेक्ष स्वरूप को उजागर करता है।

  • रियासत के लोगों ने जीत के बाद मक्की, धान, जौ की फसलें भेंट कर किया था राजा का स्वागत

1948 से मिंजर के जुलूस की अगुवाई रघुवीर जी करते हैं। रियासत काल में इस मेले के दौरान चंबावासियों के लिए राजा मिंजर ऋतु फल और मिठाई भेंट की जाती थीं। आजकल यह काम जिला प्रशासन करता है। राजा की भेंट मिंजर परिवार के मुखिया पुरुष को भेंट की जाती थी। रियासत काल में घर-घर में इस दौरान ऋतु गीत-संगीत, कंजड़ी मल्हार गाए जाते थे। हालांकि, अब यह रस्म मेले में स्थानीय कलाकार पूरी करते हैं। पुरानी कहावत के अनुसार, मिंजर मेला रियासत के राजा की कांगड़ा के राजा पर जीत दर्ज करने की खुशी में मनाया जाता है। रियासत के लोगों ने जीत के बाद मक्की, धान, जौ की फसलें भेंट कर राजा का स्वागत किया था। मिंजर मेले का मुख्य जुलूस राजमहल अखंड चंडी से चौगान के रास्ते रावी नदी के तट पर पहुंचता है। यहां पर मिंजर लाल कपड़े में नारियल लपेट कर एक रुपये फल और मिठाई आदि बांटकर उसे विसर्जित करते हैं।

  • पहले जीवित भैंसा किया जाता था प्रवाहित

 मिंजर लाल कपड़े में नारियल लपेट कर एक रुपये फल व मिठाई आदि बांटकर उसे करते हैं विसर्जित

मिंजर लाल कपड़े में नारियल लपेट कर एक रुपये फल व मिठाई आदि बांटकर उसे करते हैं विसर्जित

1943 तक मिंजर के साथ एक जीवित भैंसा भी प्रवाहित किया जाता था। मान्यता थी कि यदि भैंसा नदी के दूसरे छोर तक पहुंच जाता था तो राज्य पर किसी तरह संकट नहीं आएगा। वहीं भैंसे के वापस आने पर घोर विपत्ति का संकेत था। पुराने समय में  भैंसा भी रावी में प्रवाहित किया जाता था, जो प्रथा बंद कर दी गई है।

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