प्रदेश की लोक धड़कन "हिमाचल के वाद्य यंत्र"

मंगल कार्यों, देव उत्सवों व मेले-जातरों में हिमाचल के वाद्य यंत्रों की धुनों से गुंजयमान होकर भावविभोर हो उठता है वातावरण

हिमाचल में लोक संस्कृति का विशेष महत्व

हिमाचल में लोक संस्कृति का विशेष महत्व

हिमाचल के वाद्य यंत्र यहां की लोक धड़कन

हिमाचल के वाद्य यंत्र यहां की लोक धड़कन

प्रदेश की लोक धड़कन “हिमाचल के वाद्य यंत्र”

हिमाचल में लोक संस्कृति का विशेष महत्व है। ऐसे में हिमाचली लोक वाद्य यंत्रों की अगर बात की जाए, तो यह कहना गलत नहीं होगा कि जब हिमाचली वाद्य यंत्र अपने सुर ताल में बजते हैं तो देवी- देवताओं की देव भूमि हिमाचल झूम उठता है। हिमाचल के वाद्य यंत्र यहां की लोक धड़कन हैं। पहाड़ी शादी-ब्याह, मेले-त्यौहार या किसी मांगलिक अवसर में लोग नाच रहे हों, देवयात्रा हो रही हो अथवा विशेष त्यौहार का आयोजन हो रहा हो और वहां  हिमाचली वाद्य यंत्र  का सुर ताल ना छिडे ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि पहाड़ी वाद्यों की तो बात ही कुछ और है। हिमाचली लोक वाद्य यंत्रों की बनावट व उसे बजाने की कला पर दिखता है पृथक-पृथक, परम्परा व क्षेत्रीय प्रभाव

लोकगीत तो हृदय की सहज अभिव्यक्ति होते हैं इसलिए वाद्यों की अनिवार्यता नहीं रहती जैसा कि शास्त्रीय संगीत में रहती है। हिमाचल के वाद्य यंत्र यहां की लोक धड़कन हैं। इनका स्वर ताल फूटते ही लोकमन आह्लाद से भर उठता है। पहाड़ के निवासियों का कोई भी मंगल कार्य, पर्व, मेला अथवा त्यौहार इन वाद्यों के बिना अधूरा होता है। आज धीरे-धीरे पश्चिमी सभ्यता बेशक अपना संगीत की छाप तेज़ी से बढ़ाने में कामयाब हो रही हो लेकिनपरम्परागत लोकवाद्यों की पहाड़ी जनजीवन में इतनी गहरी पैठ है कि इनका महत्व किसी भी दृष्टि से कम होने की कोई सम्भावना नहीं है। आज हम आपको हिमाचली लोक वाद्य यंत्रों से अवगत कराने जा रहे हैं

लोक कलाकार चार प्रकार के वाद्य प्रयोग करते हैं-तार वाद्य, स्वर वाद्य, घन वाद्य तथा अवनद्ध वाद्य। तार वाद्यों में एकतारा, किदरी दवतारा, ग्राम्यड़ या रूबाब, सारंगी, जुमड़, रूमान आदि मिलते हैं। मूलत: ये वाद्य व्यावसायिक लोकगायकों द्वारा प्रयुक्त किए जाते हैं। भगवा वेशभूषा में जोगी अपने द्वातरे (दोतारे) पर गूगापीर, वीर आदि की वारें तथा कारके बड़ी मस्ती से गाते मिल जाते हैं। चम्बा-चुराह घाटियों का लोकगायक घुरई खंजरी-रोमान द्वारा ताल, सुर तथा गीत का एक साथ आस्वाद देता श्रोता को मनहर लगता है। ग्राम्यड़, रूबाब, जुमड़ आदि लाहौली तथा किन्नर घाटी के आदिम तार-वाद्य हैं।

बजन्तरी  ‘बाज़गी’ भी कहलाते हैं

देवनृत्य हो या नाटी, बजन्तरी यानी वाद्य (बाजा) बजाने वाले, इनके बिना सब फीका है। ये बजन्तरी यहां ‘बाज़गी’ भी कहलाते हैं।

लोक कलाकार चार प्रकार के वाद्य प्रयोग करते हैं

लोक कलाकार चार प्रकार के वाद्य प्रयोग करते हैं

अलग-अलग साज-बाज बजाने वालों के लिए अलग-अलग नाम हैं जैसे— ढोल बजाने वाला ‘ढोली’, करनाल बजाने वाला ‘करनालची’ और शहनाई बजाने वाला ‘सनाईतड़’ या ‘हेसी’ हिमाचल के अलग-अलग भागों में इन नामों में न्यूनाधिक भिन्नता हो सकती हैं परन्तु ये साज-बाज लगभग एक से हैं।

घन वाद्यों में झांझ, मजीरा, खडताल, चिमटा, घडियाल, थाली, घुंघरू, कोकाठा, मुरचंग आदि को लिया जा सकता है। जगराता, भगत, करियाला आदि लोकनाट्यों तथा भजन-कीर्तन में इनका अधिक प्रयोग होता है। जगराते और ऐंचली गायन में थाली को घड़े पर रखकर लोहे के कंगने से विशेष आरोह-अवरोह के साथ बजाया जाता है। इसे ऐंचली संगीत कहते हैं।

बजाने से पूर्व पूजने, द्रुवा, पुष्प, अक्षत, नैवेद्य चढ़ाने की परम्परा सदियों से

हिमाचल में ढोल, ढोलकू, ढोलकी, नगाड़ा, ढमामा, दमंगटू, नगारट, गुज्जू, डौरू, हुडक तथा धौसा आदि अनेक प्रकार के छोटे-बड़े ढोल मिलते हैं। इनकों बड़ी श्रद्धा से मंदिरों, मढियों, गोपों तथा बड़े घरानों में रखा जाता है। उत्सवों और त्यौहारों पर इन्हें बजाने से पूर्व पूजने, द्रुवा, पुष्प, अक्षत, नैवेद्य चढ़ाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। हिमाचल के कम ऊंचाई के या मैदानी भागों में ढोल, ढोलकी, मंदल के साथ-साथ टमक (बड़े आकार के नगाड़े ) भी बजाए जाते हैं। भराई जाति के लोग मेले की पूर्व संध्या पर मेले अथवा छिंज (छोटे मेले) के स्थान पर या गांव के भीतर टमक गाड़ते हैं। गांव के मनचले झूम-झूमकर झंझोटियां, बैंत, बोलियां आदि गाते हैं। टमक, ढोल, नगाड़ा, मंदल, डौरू आदि वाद्य शुरू कार्य, तमाशों, छिंज मेलों के संकेत माने जाते हैं। गद्दी जाति में विवाह आदि के समय डफले (गोलाकार ढोल जिसे गले में लटकाकर छाती पर बजाया जाता है) बजाए जाते हैं।

कुल्लूई ढोल, सिरमौर दमंगटू की बनावट तथा बजाने की कला पृथक-पृथक

कुल्लूई ढोल, सिरमौर दमंगटू अथवा नगारट् की बनावट तथा बजाने की कला देती है संगीत शैली का पृथक-पृथक प्रभाव : सभी तरह के ढोलों के आकार, बनावट तथा उसे बजाने की कला पर क्षेत्रीय प्रभाव दिखता है। कुल्लूई ढोल, सिरमौर दमंगटू अथवा नगारट् की बनावट तथा बजाने की कला अपनी परम्परा तथा संगीत शैली का पृथक-पृथक प्रभाव देती है। पुराने समय में अवदालों द्वारा डफलों की संगीत माधुरी पर राम सिंह पठाणियां की वारें बड़े ओजस्वी स्वर में गाई जाती थीं। इसी शैली में सिरमौर में हारे (युद्ध गीत) गाए जाते थे। धौंसा एक बड़े आकार का नगाड़ा होता है जिसे विशेष अवसरों पर खड़े होकर, दोनों हाथों से डंडे से पीट-पीटकर बजाया जाता है।   

विवाहों तथा मांगलिक अवसरों की शोभा बढ़ाते हैं रणसिंगा, शहनाई व बीण

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