वो दिन…जब सूरज ढलते ही बच्चे घर आंगन की गलियों में कबड्डी, गिट्टी-छिपाना, किकली, छुपन-छुपाई, बैट बॉल जैसे खेल खेलते थे

बचपन में पुराने समय में खेले जाने वाले खेल

समय-समय के साथ हमारे जीवन शैली में भी आज बहुत परिवर्तन हो गया है। चाहे बात हमारे रहन-सहन की हो या खान-पान की या खेलकूद, वर्तमान में बहुत कुछ बदल गया है। आज हम बात कर रहे हैं अपने कॉलम में मनोरंजन खेलकूद की। जी हां! आज मनोरंजन, यानि खेलकूद के लिए मायने काफी बदल गए हैं। टीवी, मोबाइल, कंप्यूटर, लैपटॉप में ही बच्चे व्यस्त होने लगे हैं, लेकिन एक समय वह भी था जब बच्चे स्कूल से आकर पढ़ाई करने के बाद शाम को इकट्ठे होकर घर के आंगन, खेत-खलिहान गली। जहां जगह मिलती इकट्ठे होते और तरह-तरह के खेल खेलते।

गिल्ली-डंडा तथा फागुन में पतंग उड़ाना भी आनंदमयी खेल

पहाड़ों के शांत जीवन में एकरसता को तोड़ने के लिए नाच-गाने, उत्सव-मेले, खेल-तमाशे तथा मनोरंजन के अनेक अन्य साधन खोजे गए हैं

हिमाचल प्रदेश भागदौड़ की जिंदगी तथा आधुनिक मनोरंजन से दूर अछूता सदियों तक मनोरंजन के कई ऐसे छोटे-छोटे साधनों पर निर्भर था जिनमें सस्ता और स्वस्थ मनोरंजन मिलता था। गांव में लोक मनोरंजन के प्रमुख साधन रहे हैं जैसे शतरंज, छकड़ी का खेल, अखरोट तथा डोड़ों के खेल भी लोगों को बहुत भाते थे। मेलों तथा छिंजों में कुश्तियों का आयोजन, भेड़ों तथा मुर्गों के मुकाबले भी लोक-मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। चैत माह तो कांगड़ा में कुश्तियों का महीना कहलाता है। लड़कियों में गुड़ियां बनाने और ब्याह रचाने का खेल चलता था गांव के बच्चे सांझ ढलते ही आंगन तथा चौगानों में कबड्डी, गिट्टी-छिपाना, किकली, छुपन-छुपाई आदि कई प्रकार के खेल खेलते थे। गिल्ली-डंडा तथा फागुन में पतंग उड़ाना भी आनंदमयी खेल है, पहाड़ों के शांत जीवन में एकरसता को तोड़ने के लिए नाच-गाने, उत्सव-मेले, खेल-तमाशे तथा मनोरंजन के अनेक अन्य साधन खोजे गए हैं। वर्तमान में इसकी जगह टीवी संस्कृति घर करती जा रही है और परंपरागत मनोरंजन के साधन तथा कलाएं धीरे-धीरे समाप्त अथवा लुप्त होती जा रही हैं।

हमें बच्चों को मोबाइल गेम्स, टीवी या फिर आधुनिक साधनों से दूर रखना होगा ताकि बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास हो सके। बच्चों का खेल का समय निर्धारित किया जाना चाहिए जिससे उनके शारीरिक व्यवहार या फिर शारीरिक गतिविधियों में रुचि बढ़े। पुराने समय में जहां बच्चे कपड़े की बॉल से पिट्ठू बनाकर गोल पत्थर इकट्ठे करके पिट्ठू खेलते थे, वहीं लकड़ी का बल्ला बनाकर या जिसे हम कपड़े धोने की थापी कहते थे उसके साथ सभी बच्चे इकट्ठे होकर मिल जुलकर खेलते थे। बच्चे आंगन, गलियारों और खेतों में कंचे, स्टापू और पंचगिट्टे खेल कर बहुत आनंद उठाते थे।

अभिभावकों को कोशिश करनी चाहिए कि बच्चों का मानसिक और शारीरिक विकास हो सके। भले ही जीवन में सभी के व्यस्तता बढ़ गई हैलेकिन अपने बच्चों के लिए हम कुछ  समय तो सिर्फ अपने और उनके लिए निकाल ही सकते हैं यह तभी संभव है जब बच्चों को छोटे-छोटे खेल के साथ कभी-कभी जैसे-पकड़म-पकड़ाई, छुपन-छुपाई, कंचे, पीठु, बैट-बॉल, रस्सी कूदना, बेडमिंटन, लकड़ी के धनुष-तीर तलवार बनाना,  हॉकी, खो-खो, स्टापू, गिट्टे, जैसे खेल खेलने चाहिए।

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