लाहौल और स्पीति के “भोट” में फलदार वृक्ष नहीं अपितु प्राकृतिक जड़ी-बूटियाँ अधिक पाई जाती हैं

लाहौली एवं स्पीति भोट द्वारा बोली जाने वाली भोटी भाषा

 भुटोरियां पंगवाल गांव से काफी दूर

लाहौल और स्पीति “भोट” की जीवन शैली उनकी निकटता के कारण समान…

ईसा की सातवीं शताब्दी में पहली बार तिब्बती भोटों ने अपने साम्राज्य प्रसार के अभियान में हिमाचल के सीमावर्ती प्रदेश पर आक्रमण किया। यह आक्रमण और प्रत्याक्रमण का क्रम बहुत समय तक चला और इस प्रकार किन्नौर और लाहौल स्पीति में भोट संस्कृति का उदय हुआ। दोनों लाहौली एवं स्पीति भोट द्वारा बोली जाने वाली भाषा भोटी है। स्पीति घाटी के लोग भोटी भाषा बोलते हैं इसलिए उन्हें भोट या स्पीतन कहा जाता है। इनका रंग-रूप तिब्बतियों जैसा होता है परन्तु कद छोटा होता है। पांगी की भोट जनजाति के लोग अपनी अलग बस्तियों में रहते हैं, जिन्हें प्राय: स्थानीय लोग भुटोरियां कहते हैं। पंगवालों से उनके सामाजिक संबंध, नाते रिश्ते और रोटी-बेटी के नहीं हैं। प्राय: भुटोरियां पंगवाल गांव से काफी दूर हैं।

 स्पीति के लोग भी भोट-संस्कृति से रखते हैं संबंध

यह विचारणीय विषय है कि भोटों का मूल स्थान कहाँ है? उन्हें पूछने पर वे अपना मूल स्थान भूटान बताते हैं, जो सरासर गलत है। वास्तव में यह जाति तिब्बत की मूल निवासी है। धीरे-धीरे तिब्बत के बहुत से लोग आस-पास के पड़ोसी भागों में बस गए। स्पीति के लोग भी भोट-संस्कृति से संबंध रखते हैं। ये लोग भी उन्हीं में से हैं। स्थानीय लोगों की धारणा है कि सर्वप्रथम ये लोग करियास गांव की धार पर बसे और धीरे-धीरे उन्होंने स्थान-स्थान पर अपनी बस्तियां बसा लीं। आज ये लोग अत्यंत पिछड़े क्षेत्र में रहते हैं, जहां पंगवाल लोगों की पहुंच न के बराबर है।

पशुओं के लिए अगस्त महीने में ही कर लेते है घास भंडारण

इन क्षेत्रों की विशेष उपज है एलो (एक प्रकार का देसी जौ)

पांगी के मुख्य गांव ही काफी ऊंचाई पर स्थित हैं, भोट लोग और भी ऊंचे ठंडे स्थान पर रहते हैं। पांगी में भुटोरियों की समुद्र तल से ऊंचाई 8000 से 10,500 फुट तक है। अत: ऐसे स्थानों पर वही फसलें उगती और फलती-फुलती हैं, जो अधिक ठंड का सामना कर सकें। इन क्षेत्रों की विशेष उपज है, एलो (एक प्रकार का देसी जौ), जो आमतौर पर शराब निकालने के काम आता है। इसके अलावा आलू व गंदम की पैदावार होती है। यहां ज़मीन प्रति व्यक्ति बहुत कम है। अत: पैदावार पूरे वर्ष के लिए पर्याप्त नहीं होती। फुल्लन और भरेस (ओगला और फाफरा) की फसलें भी उगाई जाती हैं। इतनी ऊंचाई पर फलदार वृक्ष नहीं पाए जाते। यहां प्राकृतिक जड़ी-बूटियाँ अधिक पाई जाती हैं। लोग पशुओं के लिए घास अगस्त महीने में ही काटकर भंडारण कर लेते हैं, ताकि सितम्बर महीने में बर्फबारी होने पर उनके पशु भूखे न रहें।

याक के बालों से बनाते हैं थोबियां

भोटों के घरों की बनावट अन्य पंगवालों के घरों की तरह ही होती है। परन्तु उनके पास पशु अधिक होते हैं। अत: मकान खुले हों, इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। वे याक भी पालते हैं, जिन्हें वे गर्मियों में ऊंची चरागाहों में स्वतन्त्र छोड़ आते हैं और सर्दियों में अपने घरों को ले आते हैं। याक अधिक ठंड बर्दाश्त कर लेता है। अत: सर्दियों में भी वह घर के आस-पास विचरता रहता है। इसके बालों से वे थोबियां (फर्श का बिछौना) तैयार कर लेते हैं। याक की थोबी इतनी नर्म और गर्म होती है कि इसे कम्बल की तरह रात को ऊपर भी ओढ़ लेते हैं। इसे ऊपर-नीचे ओढऩे से रात में भी ठंड नहीं लगती। अत: वे याक के बालों को संभालकर रखते हैं तथा कातकर थोबियाँ बना लेते हैं। याक यहां का अत्यंत उपयोगी पशु है। भेड़ों की ऊन से भी लोगों को उद्योग धंधा मिलता है।
भोट बस्तियों में हर जगह सरकार ने प्राथमिक स्कूल खोले हैं, ताकि उनके बच्चे आधुनिक शिक्षा का लाभ उठा सकें। माध्यमिक और उच्च विद्यालय उनकी बस्तियों से काफी दूर पड़ते हैं। अत: उच्च शिक्षा के लिए उन्हें बाहर ही जाना पड़ता है, जिस कारण लड़कियों की शिक्षा बहुत कम है। कुछ लड़कियां प्राथमिक शिक्षा का लाभ ही स्थानीय स्तर पर उठा पा रही हैं।

पांगी में भोटों की प्रमुख बस्तियों का परिचय निम्र प्रकार से है-

हुड़ान भुटोरी- यहां के लिए यात्री अपना पैदल मार्च किलाड़ से आरंभ करता है। पूर्व की ओर चढ़ाई चढ़ते हुए परमस गांव आता है। परमस से थोड़ा ऊपर चढक़र टकवास गांव के लिए सीधा रास्ता है। इससे आगे भड़वास गांव और टंड नामक स्कूल आता है। आगे चलने पर पहाड़ की तलहटी में भोटों का गांव हुड़ान भुटोरी आता है। बीस-पच्चीस घरों की यह बस्ती है। ऊपर के गांव में एक छोटा सा गोम्पा है। पूर्व की ओर काफी दूर लद्दाख के लिए खुलता शंचा नामक दर्रा दिखाई देता है। जो बर्फ से ढका रहता है। भुटोरी की खेती योगय भूमि काफी उपजाऊ है।
सुराल भुटोरी- यह घाटी का सुरम्य स्थल है। यात्री जब धरवास पहुंचता है तो उसे यह स्थल अत्यंत सुंदर दिखाई देता है। साथ ही सुराल घाटी धरवास गांव, मानो यात्री स्वर्गतुल्य भूमि में प्रवेश करता है। अगस्त माह में मक्की के लहलहाते खेत यहां अनुपम छटा बिखेरते हैं।
चस्क भुटोरी- सेचु नाला से दाहिनी ओर की चढ़ाई के मार्ग पर सुंदर वृक्ष कुंज के मध्य चलते हुए चस्क गांव में पहुंचते हैं। चस्क गांव में पंगवालों के तीस-चालीस के करीब घर हैं। गांव के आस-पास सुंदर खेत हैं। इन खेतों की सिंचाई होती है। यह गांव सेचु नाला से 4-5 के फासले पर स्थित है। किलाड़ से साच गांव की दूरी केवल 14 कि.मी. है और साच से सेचु नाला की इतनी ही दूरी है। सारा पैदल रास्ता है। साच से सेचु नाला का मार्ग समतल है। सेचु नाला साथ-साथ बहता है। सेचु नाला में एक सरकारी उच्च विद्यालय है। सेचु से तवान या टवान भुटोरी की दूरी लगभग छह कि.मी. की होगी।
कुमार और परमार भुटोरी-ये भूटोरियां साथ-साथ ही हैं। इनके लिए मार्ग साच नामक गांव से है और किलाड़ गांव से भी। दोनों भुटोरियों में गोम्पा हैं। यहां चरागाहें और खेती योगय भूमि उपलब्ध है।
टवान भुटोरी- टवान भुटोरी टवान नाले के किनारे एक सुंदर गांव है। वहीं एक गोम्पा है, जिसके पूजागृह में सुन्दर चित्रकारी हुई है। यहां पद्मसम्भव की भव्य मूर्ति भी है।

स्पीति भोट समुदाय की विरासत प्रणाली है जो अन्यथा तिब्बतियों के लिए अद्वितीय है। माता-पिता दोनों की मृत्यु पर, केवल सबसे बड़ा पुत्र ही पारिवारिक संपत्ति का उत्तराधिकारी होगा, जबकि सबसे बड़ी बेटी को माँ के आभूषण विरासत में मिलते हैं, और छोटे भाई-बहनों को कुछ भी विरासत में नहीं मिलता है। पुरुष आमतौर पर ट्रांस-हिमालयी गोम्पों की सामाजिक सुरक्षा प्रणाली पर वापस आते हैं।
लाहौली और स्पीति भोट की जीवन शैली उनकी निकटता के कारण समान है। स्पीति भोट आम तौर पर अब बहुपति प्रथा नहीं करते हैं, हालांकि इसे कुछ अलग-अलग क्षेत्रों में स्वीकार किया जाता है। गाँव के बुजुर्गों की उपस्थिति में किए गए एक साधारण समारोह द्वारा तलाक को पूरा किया जाता है। तलाक किसी भी साथी द्वारा मांगा जा सकता है। पूर्व पत्नी के पुनर्विवाह न करने पर पति को मुआवजा देना पड़ता है। हालांकि, लाहौलियों के बीच यह असामान्य है।

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