हिमाचल प्रदेश (पश्चिमी हिमालय) की प्राचीनता : प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए वेदों के माध्यम से मानवीय सभ्यता के उन दिनों का पता चलता है…,

जब… विश्व के शेष भागों में अन्धकार छाया हुआ था और भारत में पूर्ण प्रकाश की उपासना हो रही थी

प्राचीन भारत के ऋषियों ने सृष्टि सम्वत् का प्रयोग इतिहास लेखन में किया है। सृष्टि सम्वत्, कलियुग सम्वत्, युधिष्ठिर सम्वत् का इस वक्त तक विद्यमान रहना इस बात का द्योतक है कि भारतीय जनता की भारतीय इतिहास विषयक धारणा गलत नहीं है। संकल्प जो किसी अनुष्ठान या संस्कार विधि के प्रारम्भ में करवाया जाता है, इतिहास का प्रबल स्रोत है, यथा :- “आज, श्री ब्रह्मा के विष्णु पद के इस उत्तरार्ध में, श्री श्वेत वराह कल्प के अट्ठाईसवें वैवस्वत मन्वंतर में, भारत देश में, आर्यावर्तक देश में, विक्रमाशाका के बौद्ध अवतार में मैं यज्ञ करूंगा जब मैं पैदा हुआ हूँ। मानवता के स्वरुप-निर्धारण अथवा उसकी स्थापना में जिन विषयों का समावेश है, वे सभी इतिहास के परिवेश में आते हैं।

भारतीय संस्कृति की परम्परा का दार्शनिक आधार विश्वचक्र की मौलिक एकता पर टिका हुआ है

भारतीय संस्कृति की परम्परा का दार्शनिक आधार विश्वचक्र की मौलिक एकता पर टिका हुआ है, जिसमें व्यापक काल सृष्टि का साक्ष्य मिलता है। यह सिद्ध है कि हमारा इतिहास विश्व में सर्वाधिक प्राचीन है। काल गणना की इस वैज्ञानिक विधि के साथ भूमि का वर्णन नाम, गोत्र, यज्ञ का हेतु उच्चारण करते हुए विश्व कल्याण की कामना का उल्लेख प्रतिपादित करता है कि भारत का इतिहास और यहां की संस्कृति पावन और प्राचीनतम है। कालगणना और भारतीय ज्योतिष विशुद्ध गणित है और वैज्ञानिक है।

कलियुग सम्वत् का एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य हिमाचल प्रदेश जिला चम्बा (प्राचीन रियासत) के साल्ही पनिहार के शिलालेख पर अंकित कलियुग सम्वत् 3270 है। यह इतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है। इस बड़े शिलालेख पर वरुण, गणेश, इन्द्र, कार्तिकेय की मूर्तियों के अतिरिक्त आठ नदियां सिन्धु, जेहलम, चन्द्रभागा, रावी, व्यास, सतलुज, यमुना, गंगा अंकित है।

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए वेदों के माध्यम से मानवीय सभ्यता के उन दिनों का पता चलता है। जब विश्व के शेष भागों में अन्धकार छाया हुआ था और भारत में पूर्ण प्रकाश की उपासना हो रही थी। प्राचीन गाथा, आख्यान, पुराण, ज्योतिष शास्त्र और भारत में उदभूत पंथ संप्रदाय सभी सत्य के अन्वेषण में समर्पित रहे। इतिहास के साक्ष्य रूप में पुराणों का विशेष स्थान है। उनमें इतिहासिक तथ्यों की भरपूर सामग्री है। इनकी इतिहासिकता पर सन्देह करने का कोई कारण नहीं है। यदि पुराणों में वर्णित रास्ते का अनुसरण करते हुए जर्मन खोजी नील नदी के उदगम पर पहुंच सकते हैं। तो भारतीय इतिहास लेखक भी पुराणों के आधार पर आदिकाल का इतिहास सफलता पूर्वक लिख सकता है। उपग्रह से प्राप्त चित्र द्वारा रामायण में वर्णित लंका तक के सेतु बन्ध की सत्यता प्रमाणित है। इसी प्रकार कृष्णा के महा प्रस्थान के पश्चात् द्वारका पुरी जलमग्न हो गई, उसके अवशेष समुद्र से निकाले जा रहे हैं, यह भी इतिहासिक सत्य है। वेदों में वर्णित सरस्वती नदी की खोज के प्रमाण सबके सामने है।

आदिकाल में ही भारतीय तत्त्वज्ञों ने ब्रह्माण्ड का, उत्पत्ति का रहस्य प्रकृति-पुरुष की शिव-शक्ति, अर्द्धनारीश्वर के स्वरुप में कर लिया था और कि यह सम्पूर्ण सृष्टि, सारी कायनात खरबों-खरबों वर्ष पूर्व महाविस्फोट द्वारा शून्य से प्रस्फुटित हुई, पलक भी न झपकने पाई एक राई से पहाड़ का शंखों-शंखों गुणा बड़ा आकार ले लिया, फिर सुदूर भविष्य में शून्य में हो समा जाएगी (महाप्रलय)। शिव पिंडी निराकार का पार्थिव रूप है, ताण्डव नृत्य सृष्टि का स्फुरण है। सृष्टि के उदय और महाप्रलय के बारे इस अद्भुत जानकारी का आज के सर्वश्रेष्ठ उच्चकोटि के वैज्ञानिक अभी तक अन्धेरे में ही टटोल रहे है और भारतीय तत्त्वद्रष्टाओं के ज्ञान और प्राचीनता को विस्मयय से अनुभव कर रहे हैं। 

आभार: हिमाचल प्रदेश का इतिहास

मंगत राम वर्मा

जारी………………………………भाग (2)

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