श्रीरामजी ने स्वयं बनवाईं मूर्तियां
इस समय चार मूर्तियां हैं-रघुनाथजी, सीताजी, हनुमान जी और नृसिंहजी। ये चारों ही अवध से लाई बताई जाती हैं। नृसिंहजी वाला पत्थर एक कथा के अनुसार बाबा किशनदास ने राजा जगतसिंह को दिया था।
अवध में मंदिर का खाली हो जाना और वहां के पुजारियों की जीविका पर चोट इस बात का प्रमाण है कि दामोदर उस मंदिर से सारी मूर्तियां उठा लाया। ये मूर्तियां रघुनाथजी, सीताजी, हनुमानजी और नृसिंहजी की थीं। राम-सीता तथा हनुमान के अलावा नृसिंह जी की मूर्ति भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि दशहरे में हर रोज नृसिंह जी की घोड़ी राजा की पालकी के साथ मेले का चक्कर लगाती है।
रघुनाथ जी मूर्ति के विषय में लोकास्था है कि यज्ञ के समय जब अद्र्धांगिनी के रूप में सीता जी की उपस्थिति का प्रश्र उठा तो सीता की जगह इनकी मूर्ति प्रतिष्ठित कर यज्ञ का कार्य निकाल लिया गया। मूर्ति को अप्र्र्र्रयोज्य समझ किनारे रख दिया। सीताजी पहले ही खिन्न थीं। अब और दुखी हुईं। उन्होंने स्वप्र में श्रीराम को कहा, लोक मर्यादा के कारण आपने मुझे त्याग दिया। मैं विरह सहती रही। अब मेरी मूर्ति को भी त्याग दिया। दो-दो स्थानों पर विरह सहना मेरे लिए सम्भव नहीं है प्रभु! अब श्रीराम ने अपनी एक मूर्ति बनवाकर सीताजी के साथ प्रतिष्ठित कर दी। यह वही मूर्ति है जो श्रीराम ने स्वयं बनवाई।
विजयदशमी-विजय का उत्सव
राजा रूपी बताते हैं, इस उत्सव को दशहरा नहीं कहा जाता बल्कि दशमी कहा जाता है। विजयदशमी वास्तव में क्षत्रियों का उत्सव है। विजय का उत्सव है। राजाओं के समय में यहां सर्वप्रथम शस्त्र-पूजा होती थी। फिर घुड़-पूजन अर्थात घोड़े का पूजन। सेना पूजी जाती थी और इसी दिन सेना को नई वर्दियां आदि दी जाती थीं। अब भी यह कार्य प्रतीकात्मक रूप से निभाया जाता है।
• सबसे पहले रघुनाथ जी के मंदिर में माथा नवाते हैं राजमहल जाने वाले देवता
• रथ-यात्रा को देखना व रथ खींचना पवित्र कार्य
धीरे-धीरे सब देवता रघुनाथजी के पास एकत्रित होते जाते हैं। राजमहल जाने वाले देवता सबसे पहले रघुनाथ जी के मंदिर में माथा नवाते हैं फिर राजमहल में ठारा करडू के धड़छ के पास। कुछ देवता सुल्तानपुर न जाकर सीधे ढालपुर में ही रथ यात्रा में शामिल होते हैं। सुल्तानपुर में रघुनाथ जी को एक छोटी पालकी में सुसज्जित किया जाता है और देव समुदाय से सुशोभित देव-शिरोमणि रघुनाथ जी को पालकी में ढालपुर मैदान में लाया जाता है। सुल्तानपुर पहुंचे सभी देवता बाजे-गाजे सहित साथ आ जाते हैं। ढालपुर मैदान में रथ पहले से ही सजाया होता है। दशहरे से पहले इसके पहिए आदि की मरम्मत कर दी जाती है। रथ में रघुनाथ जी को बिठा दिया जाता है। पुजारी बैठकर पूजा-अर्चना करता है, चंवर झुलाया जाता है। राजा छड़ी लेकर उपस्थित रहता है। राजपरिवार के अन्य लोग भी अपनी पारम्परिक वेशभूषा में सुसज्जित उपस्थित रहते हैं। पूजा-आराधना की जाती है। परिक्रमा की जाती है। रथ के चारों ओर देवता एकत्रित हो जाते हैं।
रथ-यात्रा को देखना व रथ को खींचना श्रद्धालु पवित्र कार्य समझते हैं। लोगों का अपार जनसमूह रथ के चारों ओर उमड़ पड़ता है। चारों और उमड़े आह्लादित देवता चारों ओर उछल कूद मचाते हैं।
रथ यात्रा आरम्भ होती है। भीड़ में हड़बड़ाहट फैल जाती है। कोई-कोई देवता भीड़ को रौंदते हुए तेजी से आगे भागते हैं। कोई उछल-उछलकर नाचते हैं। रथ के रस्से खींचने वालों की जय-जयकार करती भीड़ आगे बढ़ती है। लोग रथ के निकलने के रास्ते से हटकर इधर-उधर भागते हैं।
एक शोर! हर्षनाद! बाजों की घाटियों को चौंका देने वाली ध्वनि। जयघोष! धमाचौकड़ी! ऊंचे-ऊंचे झंडे! रघुनाथजी के देवताओं के आकर्षक निशान हवा में लहराते हैं। आकर्षक छत्र, ढोल, शहनाई, रणसिंगे? उत्साहित हो सरकता रंग-बिरंगे लोगों का अपार समूह? पारम्परिक वेशभूषा में सजे ग्रामीणों की श्रद्धामयी आंखे? देश-विदेश से आए अचम्भित लोगों की भीड़? एक रोमांचकारी दृश्य उपस्थित हो जाता है सामने।
रथ आकर रघुनाथजी के कैम्प तथा राजा रूपी के कैम्प के बीच खड़ा हो जाता है। अपने-अपने नियत स्थानों पर राजा रूपी तथा रघुनाथजी के कैंप लगे हैं। राजा रूपी का कैम्प जिलाधीश कार्यालय की ओर है तथा रघुनाथजी का कैम्प सडक़ की ओर। रघुनाथ जी को अपने कैम्प में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। सात दिनों तक रघुनाथजी को यहीं रहना होता है। अन्य देवता अपने-अपने निश्चित स्थानों को चले जाते हैं। हर देवता का मैदान में अपना निश्चित स्थान है। इस स्थान में देवता के बैठने के लिए कुल्लू दशहरा कमेटी की ओर से टैंट लगे होते हैं। टैंट में देवता को बिठा दिया जाता है। कमेटी द्वारा यहां प्रकाश का प्रबन्ध भी किया जाता है। देवताओं को कमेटी की ओर से नजराना दिया जाता है। देवता के साथ आए आदमी भी इसी टैंट में रहते हैं।
- साभार: सुर्दशन वशिष्ठ