हिमाचल में देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए हर वर्ष मेले, त्योहार और उत्सव मनाए जाने की रीत
रबी और खरीफ की फसल आने पर त्योहारों और उत्सवों को मनाने का अनूठा रिवाज़
हिमाचल प्रदेश देवभूमि है। यहां का जीवन देव परम्पराओं के इर्द-र्गिद घूमता है। यहां जनमानस पर देव संस्कृति की गहरी छाप है। यहां देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए हर वर्ष मेले, त्योहार और उत्सव मनाए जाने की रीत है। जीवन की खुशहाली, वृद्धि-समृद्धि, सुख एवं शान्ति तथा दुःख के क्षणों में देव आश्रय लेने की अत्यन्त रोचक और प्राचीन प्रथाएं है। यहां रबी और खरीफ की फसल आने पर त्योहारों और उत्सवों को मनाने का अनूठा रिवाज है। यहां देवी-देवता मानव जीवन के प्रेरणा स्रोत है, उनके संरक्षक हैं तथा उनके स्वामी हैं।
हिमाचल की सांस्कृतिक परिवेश में भोला-भाला जनजीवन
हिमाचल प्रदेश का सांस्कृतिक वैभव अनमोल है। यहां के सांस्कृतिक परिवेश में भोला-भाला जनजीवन देखने को मिलता है। इसी पर्वतीय समाज की इन्द्रधनुषी संस्कृति अत्यन्त समृद्ध है। यहां मनोरंजन और खुशियों को मनाने के लिए मेले और त्योहारों की परम्पराएं है। हिमाचल प्रदेश में अधिकतर मेले और त्योहार देव परिपाटी के अनुरूप मनाए जाने की प्रथा है।
मृत्यु पर्यन्त नाना प्रकार के रीति-रिवाजों के निर्वहन की एक सशक्त मर्यादा
संस्कारों का रिवाज यहां की सांस्कृतिक सभ्यता में जन्म से मृत्यु पर्यन्त नाना प्रकार के रीति-रिवाजों के निर्वहन की एक सशक्त मर्यादा रही है। यहां लोक में महर्षि व्यास द्वारा निरूपति षोडश अर्थात् सोलह संस्कारों गर्भधारण, पुसंवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, नि-क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, उपनयन, वेदाख्य, केशान्त, समावर्तन, विवाह, अग्निस्थापन तथा अन्तयेष्टि में से कुछ-कुछ संस्कारों को निभाने का रिवाज है। वैसे तो आश्वलायनगह्यसूत्र, बौधायनगृह्यसूत्र, पारस्करगृह्यसूत्र, वराहागयगुत्र आदि आर्य प्रन्थों में संरकारों की संख्या भिन्न-भिन्न दी गई।
विवाह संस्कार का आम जीवन पर अत्यधिक प्रभाव
संस्कारों की सर्वाधिक संख्या 125 महर्षि अडगिरा द्वारा दी गई। यहां विवाह संस्कार का आम जीवन पर अत्यधिक प्रभाव देखने को मिलता है। हिमालय के दामन में बसे इस राज्य के कुछ जिलों में प्राचीनकाल से बहुपति और बहुपत्नी प्रथा रही है। विवाह के ऐसे रिवाज शिमला, सिरमौर, किन्नौर, लाहौल-स्पीति आदि जिलों में रहे हैं। यह विवाह परम्पराएं परिवार को एकता के सूत्र में बांधने की एक सबल कड़ी मानी जाती रही है। ऐसे विवाह में दहेज लेना और देना पूर्ण रूप से प्रतिबन्धित रहा है। इस प्रकार दोनों परिवार आर्थिक बोझ के दबाव से बच जाते थे। इन्ही में महिला के रूप लावण्य पर रिझे पुरूषों द्वारा जबरन विवाह करने की प्रथा को हार और रीत कहा जाता है। पति या पत्नी की मृत्यु के बाद पुनर्विवाह को झाझड़ा कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश में आमतौर से सामान्य वैदिक पद्धति से विवाह करवाने का रिवाज है।
लोक गीतों का रिवाज
लोक गीतों, देव गीतों आदि की लय पर लोक नृत्य और देवनृत्य किए जाने का रिवाज
हिमाचल प्रदेश में साठ के दशक तक वर्ण व्यवस्था के अनुरूप कार्य क्षेत्र को प्राथमिकता दी जाती रही है। इसका सीधा असर ग्रामीण वादियों में कृषि पर देखने को मिलता था। सभी वर्ण के लोग मिल-जुल कर खेतीबाड़ी का कार्य करते थे। मेले, त्योहारों, उत्सवों तथा खुशियों के अवसरों पर हर वर्ग के लोग आंबटित कार्य के आधार पर अपना-अपना दायित्व निभाते रहे है। विभिन्न त्योहारों पर दलित समुदाय के लोग द्रौढ़ी, पवाड़ा, बूढ़ा भर्तृहरि, लोक रामायण, सियाहरण आदि लोक गाथाओं को गेय शैली में प्रस्तुत कर लोगों का भरपूर मनोरंजन करते आए हैं। इसी के मूल से हिमाचल की लोक संस्कृति समृद्धि के स्तर तक पंहुच पाई। हिमाचल प्रदेश में लोक गीतों, लोक गाथाओं, देव गीतों, देव गाथाओं, आदि को गायन शैली में प्रस्तुत करने की अक्षुण्य परम्पराओं का प्रचलन है। इसी प्रकार लोक गीतों, देव गीतों आदि की लय पर लोक नृत्य और देवनृत्य किए जाने का भी इस पर्वतीय समाज में रिवाज है।