हिमाचल: प्राचीन काल से चली आ रही देव-ध्वज की परम्परा..शहतीर मात्र लकड़ी के खम्बे नहीं देवी-देवता के इतिहास के द्योतक

शहतीर मात्र लकड़ी के खम्बे नहीं देवता के इतिहास के द्योतक

मंदिर की शुद्धि तथा पुनः प्रतिष्ठा का भी प्रतीक 

कुल्लू घाटी की यात्रा के दौरान देखने में आया है कि अनेक गाँवों के एक छोर के विशाल वृक्ष के समीप देवालय स्थित होते हैं। मंदिर की थोड़ी दूरी पर देवदार के लम्बे शहतीर गड़े मिलते हैं-कुछ नए, कुछ पुराने और कुछ नाममात्र के। ये शहतीर मात्र लकड़ी के खम्बे नहीं देवता के इतिहास के द्योतक हैं। जब और जितनी बार मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ, उस उपलब्ध में खम्बा गाड़ दिया गया। यह मंदिर की शुद्धि तथा पुनः प्रतिष्ठा का भी प्रतीक बना।

ध्वजारोहण की यह पद्धति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है

इस विशाल शहतीर को, इस क्षेत्र में देवता की ‘धौर’ (ध्वजा) या ‘फलहरा’ ‘ढौच’ भी कहते हैं। ध्वजारोहण की यह पद्धति पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। ध्वजारोहण का दिन एवं मुर्हत देवता स्वयं तय करता है और माध्यम होता है ‘गूर’। ध्वज बकनाए जाने वाले पेड़ का निर्णय भी ‘गूर’ ही करता है। देवता की हार (प्रजा) बाजे-गाजे के साथ देवरथ को उस पेड़ के पास ले जाती है। पेड़ की पूर्व दिशा की ओर गिराया जाता है। पेड़ को चौकोर आकार देते हुए इसकी ऊँचाई सौ फीट रखी जाती है। बाजे-गाजे की ध्वनि के मध्य ‘हेसरु’ के साथ इस विशालकाय वृक्ष को मोटे रस्सों से खींचने का काम होता है।

यह कार्य नंगे पांव तथा अन्न जल ग्रहण किए बिना सम्पन्न होता है

ध्यान रखा जाता है कि कोई इस ध्वज को न लांघे। ध्वजारोहण स्थल पर पहले ही गहरा खड्‌डा खुदा होता है, जिसमें ‘गूर’ वेद मंत्रों का उच्चारण करता रहता है। विशालकाय ‘ध्वज’ को पूरी ताकत से खड्डे में उतारा जाता है। ‘गूर’ को सावधानी से पहले निकाल दिया जाता है, पर कभी दुर्घटना भी हो जाती है। यह कार्य नंगे पांव तथा अन्न जल ग्रहण किए बिना सम्पन्न होता है। पुराने समय में ध्वजा-स्थापन के क्षण मेंढे की बलि दी जाती थी। तीन दिन तक प्रीतिभोज की व्यवस्था रहती है। आसपास के गाँव सामग्री का प्रबंध करते हैं। प्रीतिभोज (धाम) में सबका शामिल होना जरूरी है।  प्राचीन काल से चली आ रही इस परम्परा का आज भी निर्बाध पालन होता है।

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