हिमाचल: पांगी की पारंपरिक वेशभूषा की एक उत्कृष्ट विशेषता…

…जौ और गेहूं के पराल से पैरों के लिए तैयार की जाती हैं पूलें

अब पांगी घाटी के परंपरागत पहरावे में नज़र आ रहा बदलाव

जन उत्सवों के समय पंगवाल पहनते हैं अपना परंपरागत चोला (लिक्खड़), सिर पर परंपरागत टोपी

 हिमाचल प्रदेश के सभी जिलों की अपनी एक विशेष वेशभूषा है जो पुराने समय में अक्सर पहनी जाती थी। लेकिन अब वक्त के बदलते दौर के साथ यह वेशभूषा पारम्परिक वेशभूषा में बदल गई है। अब खास उत्सवों, मेलों, शादी ब्याह जैसे खास मौकों पर ही अब ये वेशभूषा लोग पहनते हैं। इस बार हम आपको अपने कॉलम धर्म संस्कृति में पांगी की वेशभूषा के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं।

ज्यादातर आज भी पांगी वासियों को परंपरागत पहरावा ही भाता है

ज्यादातर आज भी पांगी वासियों को परंपरागत पहरावा ही भाता है

पांगी के लोगों का पहनवा कैसा है हालांकि समय के साथ बदलाव जरुर हुआ है लेकिन अधिक ठंड और बर्फवारी के चलते यहाँ के लोग अब भी अपनी ही परंपरागत वेशभूषा को अक्सर विशेष अवसरों पर ही नहीं अपितु अक्सर खास तव्वजो देते हैं। वहां के पुरुष प्राय: घुटनों तक लंबा ऊनी कोट पहनते हैं जिस पर रंगीन कपड़े की कमरबंध बांधी जाती है। पट्टू से बने पायजामे ऊपर से खुले वह नीचे से तंग होते हैं। सिर के ऊपर सूती टोपी पहनी जाती है। सर्दियों में कंबल को शॉल की तरह ओढ़ा जाता है और बर्फ पर चलते समय ऊनी पट्टी से बनी जुराबें पहनी जाती हैं। पैरों में घास-निर्मित जूते, जिन्हें पूलें कहा जाता है, पहनी जाती हैं। जौ और गेहूं के पराल से घर में ही पैरों के लिए यह पूलें तैयार कर ली जाती हैं। आज के बच्चे अब स्कूल जाने लगे हैं बाहरी राज्यों में नौकरी के लिए जाने लगे हैं और नए फैशन से भी रूबरू हो रहे हैं जिस कारण परंपरागत पहरावे में कुछ बदलाव नज़र आ रहा है हालांकि ज्यादा पांगी वासियों को परंपरागत पहरावा ही भाता है।

महिलाओं का मुख्य परिधान पट्टू है, जिसे वे अपने शरीर के चारों ओर एक खास तरीके से लपेट लेती हैं। पट्टू का एक छोर बाएं कंधे के ऊपर से घुमाकर, पीछे से दाहिने हाथ के नीचे से होता हुआ शरीर को ढांपता है। पट्टू के दोनों छोर सीने के सामने की तरफ पीतल या चांदी की पिन के साथ बांध दिए जाते हैं। पट्टू के शेष बचे हिस्से को पीछे से दाएं कंधे की ओर लपेटते हुए सामने से एक दूसरे पिन के साथ बांध दिए जाते हैं। पट्टू के शेष बचे हिस्से को पीछे से दायें कंधे की ओर लपेटते हुए सामने से एक-दूसरे पिन के साथ बांधा जाता है। सिर के ऊपर महिलाएं कढ़ाईदार ‘जोजी’ पहनती हैं, जिसे रेशम शनील या साटन के कपड़े से बनाया जाता है ‘जोजी’ एक तरह से सपाट कपड़े की टोपी होती है, जिसमें एक लंबी लट पीछे की तरफ लटकती है। इसे सिर के मध्य में अथवा एक तरफ टिकाया जाता है।

पुरुष कानों में बालियां पहनते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘मुर्की’ कहा जाता है

महिलाएं कान में छह बालियां, नाक में ‘करू’ चूड़ियां, अंगूठी, पैरों की अंगूठियां जिन्हें गुथरी कहा जाता है

सर्दियों में एक कंबल के ऊपर दूसरा लपेटा जाता है। महिलाएं अपनी माँग सिर्फ के मध्य में निकालती हैं और बालों की लट को पीछे की ओर गूंथा जाता है। युवतियां कुर्ती और सलवार पहनती हैं और पट्टू के बजाय शाल ओढ़ना पसंद करती हैं। युवा लोग फूलों के बजाय कपड़े या प्लास्टिक या चमड़े के जूते पहनना पसंद करते हैं। पांगी के पुरुष और महिलाएं आभूषण पहनते हैं हालांकि इनकी मात्रा कम होती है। पुरुष कानों में बालियां पहनते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘मुर्की’ कहा जाता है। पुरुष उंगलियों में अंगूठी भी पहनते हैं। महिलाएं कान में छह बालियां, नाक में ‘करू’ चूड़ियां, अंगूठी, पैरों की अंगूठियां जिन्हें गुथरी कहा जाता है, के अलावा पाजेब व हार भी पहनती हैं। ये आभूषण परिवार की आर्थिक स्थिति के मुताबिक सोने अथवा चांदी के होते हैं।

पंगवाल जन उत्सवों के समय अपना परंपरागत चोला (लिक्खड़) पहनते हैं

पंगवाल जन उत्सवों के समय अपना परंपरागत चोला (लिक्खड़) पहनते हैं सिर पर परंपरागत टोपी पहनी जाती है। टोपी सफेद सूती कपड़े की बनी होती है जो दोनों कानों की ओर झुकी रहती है। लंबे चोले की लंबाई एड़ी तक होती है। यह चोला कमर पर पटके से बांधा जाता है जिससे वे गाची कहते हैं। नित्य के समय परंपरागत पहनावा ही अच्छा लगता है। बंद और खुला कोट आम प्रयोग में है। पांगी की परंपरागत गंदम के घास की रंगदार तथा नोकदार पूलें भी बहुत भाती हैं। इसके साथ ही बूट की तरह विशेष रेशे की पूलें कभी उपहार स्वरूप दूर-दूर तक पहुंचती थी। अब वे भी लुप्त होने लगी हैं।

 भरमौर में कितनी भी बर्फ पड़े, शिकारी बकरी के बालों की जडूलें पहन कर हाथ दो हाथ हिमपात को रोंदते हुए शिकार करने दौड़ पड़ते थे बशर्ते कि बर्फ नरम और सुखी हो। जडूल बकरी के बालों की पूल है। पांगी में लिक्खड़ लम्बा ऊनी कोट कमर में गाची से बांधा जाता है वहां किलाड़ में सूथण को चालण और साथ में अन्य स्थानों की तरह सूथण ही कहा जाता है।

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