“मृकुला मंदिर” में कलकत्ते वाली मां काली हुई थीं अवतरित
कश्मीरी कन्नौज शैली में बना है माँ मृकुला का मंदिर
मंदिर में लकड़ी की दीवारों पर एक ओर महाभारत के दृश्य, दूसरी तरफ रामायण के प्रसंग
सातवीं शताब्दी से लाहौल-स्पीति के उदयपुर गांव में बसा “मृकुला देवी मंदिर”
हिमाचल को देवभूमि से जाना जाता है। यहां के लोगों की देवी-देवताओं के प्रति गहरी आस्था है, तो वहीं इन्हीं देवी-देवताओं की यहां के लोगों पर अपार कृपा भी रहती है। हिमाचल के देवी-देवताओं का कोने-कोने में वास है और यहां की धरती पर बसने वाले देवी-देवताओं के प्रति अपार श्रद्धा यहां के लोगों में हमेशा देखने को मिलती है। यहां के तीज-त्यौहार,संस्कृति, उत्सव व मेले इसका मुख्य उदाहरण है।
हम आपको धर्म आस्था के जरिए इस बार जिला लाहौल-स्पीति के गांव उदयपुर में सातवीं शताब्दी में बनाये गये प्रसिद्ध मंदिर मृकुला देवी से परिचित करवाने जा रहे हैं।
मां महिषासुर्मर्दिनि के नाम से भी जाना जाता है मंदिर में स्थापित मूर्ति को
जिला लाहौल-स्पीति के मुख्यालय केलांग से 56 किलोमीटर दूर स्थित है खूबसूरत गांव उदयपुर। इस गांव में मृकुला देवी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जिसे सातवीं शताब्दी में बनाया गया है। यह मंदिर प्राचीन काष्ठ कला का अद्भुत उदाहरण है। मंदिर में स्थापित मूर्ति को मां महिषासुर्मर्दिनि के नाम से भी जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह मूर्ति अष्ठधातु से बनी है।
श्रद्धालु यहां मंदिर में श्रद्धा अनुसार पूजा-अर्चना करते हैं। कोई महिषासुर्मर्दिनि मां के नाम से तो कोई नवदुर्गा भवानी के नाम से पूजा करते हैं। ऐसी मान्यता है कि मां काली खप्पर वाली कलकत्ते से आई है जिसका प्रमाण मंदिर प्रांगण में शिला पर बने पैरों के निशान हैं। उसके बाद ऐसा निशान कापुंर्जो नामक स्थान पर है। ऐसा ही निशान चिनाव नदी के पार भी है तथा उसी सीध में पहाड़ी पर भी चरण चिन्ह हैं।
दोरजेफामो के नाम से पूजते हैं बौद्ध धर्म के अनुयायी
ऐसा भी बताया जाता है कि बौद्ध धर्म अनुयायी इन्हें दोरजेफामो के नाम से पूजते हैं। यहां चिरकाल से एक गोम्पा रहा है। ऐसी मान्यता है कि गुरू पदमसंभव ने प्रवास के दौरान यहां गोम्पे में पूजा-अर्चना एवं सिद्धियां की होंगी। बौद्ध धर्म ग्रन्थों में उदयपुर में चिनाव एवं मियाडनाला नदी के संगम स्थल को तान्दी संगम से भी पवित्र माना गया है।
उदयपुर गांव कभी मारूल या मर्गुल कहलाता था। इसके नामकरण के बारे में ऐसा बताया जाता है कि एक बार चम्बा नरेश राजा उदयसिंह यहां प्रवास पर आए। राजा ने मां मृकुला के मंदिर में दर्शन करने के उपरान्त वहां प्रांगण के साथ सहो नामक स्थान पर आकर आदेश जारी किया कि आज के बाद यह गांव उदयपुर कहलाएगा। तब से यह गांव उदयपुर के नाम से प्रसिद्ध है।
चंबा के राजा मेरूवर्मन ने सातवीं शताब्दी में करवाया था मंदिर का निर्माण
कश्मीरी कन्नौज शैली में बना है मंदिर
तांदी से एक सड़क पट्टन घाटी होकर उदयपुर तक जाती है। उदयपुर से एक सड़क पांगी घाटी की तरफ मुड़ जाती है। उदयपुर खूबसूरत कस्बा है। यहां स्थित मृकुला देवी मंदिर खास तौर से दर्शनीय है। मंदिर बाहर से देखने पर साधारण घर जैसा लगता है, लेकिन इसके भीतर एक ऐसा अनोखा कला संसार है जिसे देखकर कलाप्रेमी अभिभूत हो उठते हैं। कश्मीरी कन्नौज शैली में बने इस मंदिर के भीतर देवदार के शहतीरों और तख्तों पर खुदी मूर्तियां बिल्कुल सजीव लगती हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में चंबा के राजा मेरूवर्मन ने करवाया था। कुछ विद्वान इसे कश्मीर के राजा अजय वर्मन और राजा ललितादित्य द्वारा निर्मित बताते हैं। मंदिर में लकड़ी की दीवारों पर एक ओर महाभारत के दृश्य हैं और दूसरी तरफ रामायण के प्रसंग। शहतीरों पर बौद्ध इतिहास के प्रसंग भी चित्रित हैं। राजा बलि द्वारा वामन को धरती दान और सागर मंथन आदि पौराणिक गाथाओं का भी प्रभावशाली चित्रण किया गया है। कुछ चित्रों में गंधर्वो को योग मुद्राओं व अप्सराओं को नृत्य मुद्रा में दर्शाया गया है।
उदयपुर गांव के आसपास कई प्राकृतिक झरने
उदयपुर गांव के आसपास कई प्राकृतिक झरने हैं, जिन्हें देखकर सैलानी आनंदित हो उठते हैं। सर्दियों में तो बर्फबारी के कारण यहां कोई सैलानी नहीं आता, पर रोहतांग दर्रे के खुलते ही यहां मृकुला देवी मंदिर की अद्भुत कलाकृतियां देखने के लिए देश भर के कलाप्रेमी सैलानियों का तांता लग जाता है। यहां के लोग खुले दिल से सैलानियों का स्वागत करते हैं।
इस गांव की उत्तर दिशा में मंदिर के साथ एक चरणामृत सा चश्मा है। एक अन्य प्राचीन चश्मा गांव की पूर्व दिशा में है जो कोईडी मूर्ति
कश्मीरी कन्नौज शैली में बना है मंदिर
के नाम से प्रसिद्ध है। यह संयोग ही है कि दोनों चश्मों के साथ-साथ विशालकाय कायल के पेड़ हैं जो आज भी मौजूद हैं। उदयपुर गांव के दक्षिण-पश्चिम से चिनाब नदी बहती है।
ऐसा बताते हैं कि उदयपुर कभी 140 घरों का गांव था जो उजड़ गया था। इसके उजडऩे की पुष्टि यहां खुदाई में दीवारों के अवशेष मिलने से होती है। गांव के लोगों का मानना है कि वर्तमान के उदयपुर गांव में 60 साल पहले केवल 4 घर थे और अब यह गांव एक किलोमीटर के कस्बे में फैल चुका है। उदयपुर के पश्चिम में देवदार के पेड़ों का घना जंगल कभी रियोढन नाम से जाना जाता था। आज इसे लोग मिनी मनाली के नाम से जानते हैं। यह उदयपुर से एक किलोमीटर की दूरी पर मनाली-जम्मू राजमार्ग पर स्थित है। उससे चार किलोमीटर की दूरी पर प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण मडग्राम (पांच गांवों का समूह) है। यहां ढलानदार घासनियों, समतल खेत और कुदरती नज़ारों को देखकर हर पर्यटक मंत्रमुगध हो जाता है।