आर्य शब्द न जातिवाचक है और न वंशवाचक
आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों, पुरातात्त्विक खनन और प्राचीन इतिहास के प्रति सही दृष्टिकोण से ये तथ्य प्रस्थापित हुए हैं कि आर्य यह संज्ञा अति प्राचीन काल से श्रेष्ठ गुणों और नैतिकता के लिए प्रयुक्त होती आई है, आर्य शब्द न जातिवाचक है और न वंशवाचक। पाश्चात्य विद्वानों ने भी यह स्वीकार कर लिया है कि हिन्दुओं का मूल स्थान भारत है और कि यदि पृथ्वी पर कोई देश है जो मानव जाति का मूल स्थान था तो वह भारत ही था। भारत सप्तसिन्धु, वैदिक कालीन आर्यभूमि माना है। ऋग्वेद संहिता में “त्रिः सप्तसस्रानद्यो” कह कर तीन सप्तक की चर्चा है, वे तीनों सप्तक अपनी सहायक नदियों के साथ गंगा, सरस्वती और सिन्धु हैं और तीनों ‘हिमाचल’ से अधिकांश सम्बन्धित हैं।
अंग्रेज इतिहासकार बर्नेस लिखते हैं कि हिमाचल का क्षेत्र अनन्त काल से हिन्दू जाति का वास स्थान है। इतिहासकार कनिंघम का वर्णन है कि उसने त्रिगर्त कांगड़ा के कटोच राजाओं की वंशावली देखी है जिसमें 500 राजाओं की पीढ़ी का उल्लेख है जिस देश का प्रथम राजा भूमचन्द्र था। तदनुसार एक राजा का औसत राज्य काल 22 वर्ष निर्धारित करें तो इस वंश का निरन्तर राज्य ग्यारह हजार वर्ष से अधिक ठहरता है। इसी वंश में महाभारत कालीन राजा सुशर्मा हुए जो कौरवों के पक्ष में लड़े थे। महाभारत का युद्धकाल 5000 वर्ष पूर्व था। पाश्चात्यों का भ्रामक प्रचार कि “आर्य” साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व बाहर से आए, धराशयी हो जाता है।
संस्कृत और तामिल भाषाओं का भी एक ही परिवार
दक्षिण-उत्तर के वासी सदा से शान्ति और मेल-मिलाप से रहते आए, कोई भेदभाव नहीं
कितनी विडम्बना है कि स्वतंत्रता के पश्चात आज भी कई दशाब्दियों से जो इतिहास पढ़ाया जा रहा है उसमें अग्रेजों द्वारा थोपी मिथ्या भ्रामक धारणाएं प्रतिपादित है कि आर्य बाहिर से आए, द्राविड़, कोल आदिवासी थे, उन्हें दक्षिण में धकेला गयाः वेद गडरियों की कहानियाँ हैं और गंवारू साहित्य है। अति दुख इस बात का है कि सच्चाई और वास्तविकता सामने आ जाने पर भी बड़ी संख्या में भारतीय बुद्धिजीवी अंग्रेजों के षडयंत्रपूर्ण कथन को सिद्धान्त मान कर चल रहे हैं जबकि :-संस्कृत साहित्य, वेदशास्त्र, तामिल साहित्य में कहीं, द्रविड शब्द का प्रयोग नहीं हैं और दोनों एक ही परिवार के अंश हैं। संस्कृत और तामिल भाषाओं का भी एक ही परिवार है, तमिल में संस्कृत शब्दावली का बाहुल्य है। तमिल समाज वैदिक साहित्य का समान आदर और सम्मान करता है। अनन्त काल से तामिल वर्णाश्रम धर्म के अनुयायी हैं। वैदिक जीवन लक्ष्य-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्रचलित है। गौ की समान पूजा है। दक्षिण-उत्तर के वासी शान्ति और मेल- मिलाप से सदा रहते आए, कोई भेदभाव नहीं। समान रूप से राष्ट्र जीवन हिमालय से दक्षिण में कन्याकुमारी तक मानते हैं। एक देश, एक राष्ट्र एक संस्कृति, एक समाज को मानते आए हैं। तमिल साहित्य तथा कथित, द्राविडों की शेष हिन्दू समाज के साथ एकता का गुणगान करता है।
स्वामी विवेकानन्द ने सख्ती से विरोध किया आर्य-द्रविड़ भेदभाव का
स्वामी विवेकानन्द ने आर्य-द्रविड़ भेदभाव का सख्ती से विरोध किया। कांची के परमाचार्य ने आर्य-अनार्य द्राविड़ नामों से फूट डालने को आपत्तिजनक ठहराया। डाक्टर वी.आर. अम्बेडकर ने आर्य आक्रमण सिद्धान्त को नकारा और कहा कि गहरे अध्ययन के बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि शूद्र आर्य थे, वे सूर्यवंशी क्षत्रिय थे और प्राचीन काल में कई प्रसिद्ध शक्तिशाली राज्यों के शासक शुद्र थे।
पहली तामिल व्याकरण हिन्दू अगस्त्य मुनि ने लिखी। वर्णमाला की तरकीब संस्कृत अनुक्रमण पर है। तमिल की प्राचीन लिपि, अशोक काल की ब्रह्मलिपी से ली गई है। सामाजिक आधार पूर्णतया पाटलीपुत्र और अन्य नगरों के अर्थ शास्त्र काल जैसा है। वैदिक और परावर्ती वैदिक हिन्दू-देवताओं जैसे शिव, सुब्रह्मन्य, विष्णु, इन्द्र, कृष्ण, दुर्गा, देवी समान हैं, त्यौहार समान, ग्रहों के नाम समान तिथियों, बारह महीनों की तारीख सब समान हैं। दर्शन शास्त्र, देव, पूजा-पद्धति, काल गणना, हिन्दू जीवन पद्धति, शत प्रतिशत हिन्दू। इस प्रकार संस्कृति-सभ्यता, इतिहास, जीवन आदर्श, वीर पुरुष, शास्त्र, किसी में, द्रविड़ और हिन्दू आर्य में अन्तर नहीं। कविवर तिरूमल और बाद के कवि संस्कृत को ‘आर्यम्’, गंगा के मैदान को आर्यवर्त कहते थे।
हड़प्पन सभ्यता वैदिक सभ्यता संस्कृति का ही भाग है। हड़प्पन भाषा वेदों की संस्कृत भाषा के बहुत समीप है। वे लोग अग्निपूजक थे, वैदिक लोगों की भान्ति यज्ञ-योग का अभ्यास करते थे। हड़प्पन सभ्यता के अवशेष उत्तरी भारत और हिमाचल के नालागढ़, सिरमीर क्षेत्र में कई स्थानों पर खनन में प्राप्त हुए हैं। हिमाचल के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों, घाटियों में नीचे लिखी जातियों का वास था जिसका उल्लेख महाभारत, कालिदास की कृतियों में, कल्हण की राजतंरगिणी में विस्तार से है : किन्नर जाति – ऐसा विश्वास किया जाता है कि किन्नर जाति के लोग भीतरी हिमालय में गंगा की घाटी से चन्द्र भागा तक रहते थे। किन्नौर इसका विशेष क्षेत्र था। गुप्तकाल तक गुणगान इनका किन्नर जाति के रूप में अस्तित्व रहा। कालिदास के कुमार सम्भव में दास, दिवोदास कबीलों का उल्लेख है।
नाग जाति का वास भी हिमाचल में रहा
कल्हण ने अपनी कृति में करीत कबीलें का उल्लेख किया है कि ये लोग जंगलों में आदिम (असभ्य) अवस्था में रहते थे। महाभारत में इनका नाम ‘गिरिगेह वर्णी वसिन’ कहा गया है और लिखा है कि हिमालय की तराई में रहते थे। करीत राजा का युद्ध अर्जुन, भीम और नकुल के साथ हुआ। कीरतों का सम्बन्ध यवनों, यक्ष कबीलों के साथ बताया जाता है जो भारत की सीमा पर रहते थे। नाग जाति का वास भी हिमाचल में रहा है। इनकी बस्तियां, वासुकी, काली और तक्षक राजाओं के राज्यकाल में महाभारत के समय थीं। नाग पूजा तभी से प्रारम्भ हुई लगती है। यक्षों को रहस्यपूर्ण दैवी शक्ति प्राप्त थी। पहाड़ी लोग इनको जख के रूप में पूजते थे। इनमें वृक्ष देवता के गुण विद्यमान थे। खस कबीलों की बस्तियां पूर्वी तुर्किस्तान, कश्मीर से नेपाल, आसाम तक सिन्ध और गंगा के बीच थीं। खसो ने भी महाभारत में सात्यकी जो पाण्डवों का सहयोगी था के साथ युद्ध किया, युधिष्ठिर के यज्ञ में पिपलिक स्वर्ण भेंट किया।
प्राचीन वैदिक कालीन भारत कृषि प्रधान था और गोपालन, भेड़-बकरी, घोड़े पालते थे। हिमाचल की घाटियों में रहने वाले अधिकतम ग्रामवासियों का भी कृषि और पशु-पालन धन्धा थे। परिवार समूह ग्राम, जनपदों में रहते थे। जनपद का मुखिया जनपति कहलाता था जो सर्वसम्मति से चुना जाता था।
हिन्दुओं ने विश्व के सभी भागों में महाभारत से बहुत पहले ही बसना आरम्भ कर दिया था
मैगस्थनीज को चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रासाद में एक वंशावली प्राप्त हुई जिसमें चन्द्रगुप्त तक 253 पूर्ववर्ती राजाओं के नाम और राज्यकाल दिए थे जो कुल मिला कर 6752 वर्ष का शासन काल रहा। यह स्मरण रहे कि मैगस्थनीज यूनानी इतिहासकार था जो यूनानियों के भारत आक्रमण पर आया था।
महाभारत के युद्ध के अनन्तर हिन्दुओं के बहुत से घराने पश्चिम की ओर गए और मिस्र, रोम, यूनान, फिनिसिया आदि देशों में जा बसे। विश्व के सभी भागों में हिन्दुओं ने महाभारत से बहुत पहले फैलना और बसना आरम्भ कर दिया था।
आभार: हिमाचल प्रदेश का इतिहास
मंगत राम वर्मा