हमारा इतिहास विश्व में सर्वाधिक प्राचीन; हिमाचल प्रदेश पश्चिमी हिमालय की प्राचीनता- भाग-2

पद्म पुराण के उत्तराखण्ड में अलंकारिक भाषा में जालन्धर की उत्पत्ति का वर्णन किया है। जलन्धर राक्षस समुद्र की गर्जना का रूपक है, समुन्दर रुपी जलन्धर राक्षस को हट जाने के लिए कहता है कि वह जम्बूद्वीप से हट जाए और जलन्धर के रहने योग्य धरती अपनी लहरों से खाली कर दे। समुद्र ने अपनी लहरें हटा ली और तीन सौ कोस धरती खाली शुष्क रहने दी जिसका नाम जलन्धर पड़ा। जलन्धर और त्रिगर्त समानार्थ है। यह पौराणिक कथा एक रूपक है इस तथ्य का कि सिन्ध, गंगा का यह सारा मैदानी भूभाग पहले समुद्र था। जलन्धर (त्रिगर्त) की समतल भूमि उसका सन्धि बिंदु था। जलन्धर की कथा इस भौतिक यथार्थता का परम्परागत स्मरण मात्र है।

सृष्टि सम्वत्, युधिष्ठिर सम्वत् भारतीय समाज में आज भी विद्यमान हैं। भारतीय कालगणना और सृष्टि सम्वत् का इस वक्त तक विद्यमान रहना इस बात का द्योतक है कि भारतीय जनता की भारतीय इतिहास विषयक धारणा गलत नहीं है। संस्कारों के प्रारम्भ में संकल्प इतिहास का प्रबल स्रोत है।

सरस्वती के तटों पर हुआ है भारतीय सभ्यता संस्कृति का विकास

हिमाचल ईरावती, वितस्ता, विशाला देविका, कुहू नदियों का उद्‌गम स्थान होने के साथ सर्वश्रेष्ठ, प्राचीनतम नदी सरस्वती का उद्गम स्थल भी है। ऋगवेद में सरस्वती नदी के प्रवाह, उद्गम का विस्तृत वर्णन है। पुरातत्ववेता पद्म डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर के अनुसार सरस्वती नदी का प्राचीन प्रवाह आज से 25 हज्जार वर्ष पहले तक उसके  पूर्व पांच लाख\ वर्ष\ तक अपने उद्गम हिमाचल के जिला सिरमौर में शिवालिक पर्वत से होकर लूनी नदी के मार्ग से राजस्थान से होता हुआ कच्छ के रण से मिलकर खम्भात की खाड़ी पर दक्षिण समुद्र में मिलता था। विश्व के सारे विद्वान मानते हैं कि भारतीय सभ्यता संस्कृति का विकास सरस्वती के तटों पर हुआ है और वेदों की रचना हुई है। इस सम्बन्ध में सर्वेक्षण से और प्रमाण भी मिल रहे हैं। पाश्चात्य विद्वानों की यह कल्पना कि वेदों की रचना ईसा से 1500 वर्ष पूर्व हुई मिथ्या है और आधारहीन सिद्ध है। आर्यों के आप्रावास का उल्लेख कर इतिहासकारों ने पाश्चात्यों की नकल की और अपनी हीनता का परिचय दिया।

सरस्वती नदी का महत्त्व सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट

सरस्वती नदी का महत्त्व सर्वोपरि और सर्वोत्कृष्ट रहा है। मनु ने इसे ब्रह्मवर्त देश की सीमा बताने वाली कहा है। इसका जल घी के समान पुष्टिकारक और मधु के समान मीठा बताया गया है। प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए ऋग्वेद में वर्णित और पुराणों में मान्य सरस्वती प्रकरण एक सशक्त इतिहासिक सत्य है। उपग्रह (सैटेलाइट) से प्राप्त चित्र से ज्ञात होता है कि 25 हज़ार वर्ष पूर्व सरस्वती नदी का जो मार्ग भारत के प्राचीन साहित्य (वेद पुराण आदि) में मिलता है उसी मार्ग से एक बड़ी नदी आज भी भूमि के नीचे बह रही है। वैदिक सरस्वती नदी के साथ भारतीय संस्कृति के अनेक संदर्भ जुड़े हुए हैं और उसके सुरम्य पावन तटों पर जीवन पद्धति के विविध आयामों का विस्तार हुआ है। वेद मन्त्रो के सस्वर पाठ की मधुर ध्वनि इसकी तरंगों के कलकल निनाद के साथ युगों तक गूंजती रही है। अनेक स्थलों पर तीर्थ स्नान और ऋषि आश्रम स्थापित हुए। कई शताब्दियों से सरस्वती नदी का प्रवाह किन्हीं असम्भावित अथवा अवश्यम्भावी कारणों से लुप्त हो गया है। इसके भूगर्भीय परिवर्तन या उथल-पुथल सम्बन्धी कारण हो सकते हैं। वैदिक युग से भी बहुत पुरातन काल से उसका अस्तित्व चला आ रहा हो तो आश्चर्य नहीं। इसकी सहायक दो नदियों दृषद्वती और आपया के नाम आते हैं, उनमें दृषद्वती आज की घगघर नदी मानी जा सकती है। सरस्वती हमारे प्राचीनतम इतिहास की गौरव गरिमा को प्रतिष्ठित करने के लिए सुदृढ़ आधार है जो हमारे वैदिक ऋषियों की परम आस्था की देवी रही है।

विद्वानों का मत था कि ऋग्वेद के अनुसार सिन्धु और सरस्वती नदियों के किनारे ईसा के छः हजार वर्ष पूर्व अत्यन्त विकसित सभ्यता विद्यमान थी जिसकी पुष्टि आधुनिक पुरातत्त्वीय अन्वेषणओं से हो रही है। यह सभ्यता पूर्व के भारतीय मन-बुद्धि की प्रतिदीप्ति है न कि किसी बाह्य प्रेरणा द्वारा। सब विद्वान इस बारे में एक मत थे कि हर प्रकार के साक्ष्य से यह सिद्ध है कि सरस्वती नदी का प्राचीन काल में अस्तित्व था जो चार हजार वर्ष पूर्व सूख गई। सम्मेलन इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि :

विश्व को भारत का सबसे बड़ा उपहार ज्ञान है। हिन्दू दर्शन का मानव मात्र में प्रचार होना चाहिए।

आधुनिक पुरातत्त्वीय अन्वेषणों ने यह निश्चित कर दिया है कि ईसा से 6000 वर्ष पूर्व हिन्द महाद्वीप में लगातार सभ्यता का विकास होता रहा और आर्यों के आक्रमण की थियोरी सरासर गलत है। आर्य सप्तसिंधु प्रदेश में बाहर से न आकर यहीं के आदि निवासी थे। मोहनजोदड़ो, हड़प्पन बस्तियां उन्ही के द्वारा बसाई गई थीं जो महाभारत के बाद उजड़ गई।

भारतीय साहित्य में ‘आर्य’ शब्द जाति या भाषाई गुणार्थ में ‘प्रयोग नहीं हुआ है। इसे ‘श्रेष्ठ’ अर्थ में प्रयुक्त किया है।

रामायण काल 28 हज़ार विक्रम सम्वत् पूर्व से चालीस हज़ार वर्ष पूर्व तक

पंडित भगवद् दत्त जी ने अपने वृहत इतिहास में सप्रमाण स्वीकार किया है कि वेदों के प्रथम उद्‌गाता, ब्रह्मा 14 हज़ार वर्ष विक्रम पूर्व हुए हैं। रामायण काल 28 हज़ार विक्रम सम्वत् पूर्व से चालीस हजार वर्ष पूर्व तक था।

निस्संदेह भारतवर्ष का इतिहास हजारों हजारों वर्ष पुराना है तथा अखण्ड है। इसकी कड़ी कहीं भी टूटी नहीं है। यहां जब अंग्रेजों का राज्य रहा तब कई पाश्चात्य विद्वानों ने भारत का इतिहास लिखने का प्रयास किया। यह ग्रंथ दोषपूर्ण हैं, पूर्वाग्रहों और पक्षपात से कलुषित हैं और अनेक स्थानों पर उनमें तोड़ मरोड़ की गई है। भारतीय इतिहास, वैदिक समाज को गलत तौर पर प्रस्तुत किया गया। उनमें एक मुख्य गलत प्रचार ‘आर्य’ जाति (रेस) कहकर प्रस्तुत किया। पुनश्च यह गलत धारणा दी कि “आर्य बाहिर से मध्य एशिया से साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व भारत में आए और इन्होंने उत्तरी भारत में रहने वाले आदिवासी द्रविड़ कोल आदि जातियों को मारकर, परास्तकर दक्षिण की ओर भगा दिया। यह मिथ्या प्रचार यूरोपियनों ने अपनी श्रेष्ठता और हिन्दुओं की हीनता प्रदर्शित करने के लिए किया। इतिहास में निर्मित विसंगतियों को दूर करना आवश्यक है। भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी विसंगति आर्य अनार्य समस्या है।

दूसरा इतिहासिक भ्रम यह फैलाया कि उत्तर और दक्षिण के लोग दो  भिन्न मानव समूह के हैं- आर्य और द्रविड़ को मान्यता दी। बाद में मैक्समूलर ने ही अपनी पूर्व धारणा का स्पष्ट रूप से विरोध किया किन्तु पाश्चात्यों ने और भारतीय बुद्धिजीवियों ने उसकी पूर्व मान्यताओं को ही प्राधान्य दिया। दुर्भाग्य और सबसे बड़ी विसंगति यह है कि असत्य और इतिहास में विकृत शामिल बातों को अभी तक भारतीय बुद्धिजीवी यथार्थ मानकर ही चल रहे हैं।

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