आज भी देखे जा सकते हैं…लकड़ी और पत्थर से बने “पांगी” के सुंदर आयताकार घर

पांगी के घर, मवेशी एक कोने में और दूसरे कोने में आदमी

आधारतल को कहा जाता है कोठा

घरों में नहीं होते रोशनदान

हिमाचल प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में भले ही आज काफी बदलाव रहन-सहन में देखने को मिलता है। लेकिन आज भी प्रदेश के काफी दूर दराज के ऐसे इलाके हैं जहाँ आज भी पुराने पत्थर के घर देखने को मिलते हैं। इस बार हम आपको जानकारी देने जा रहे हैं हिमाचल के चंबा के जनजातीय क्षेत्र पांगी के घरों की। लकड़ी और पत्थर से बने पांगी के आयताकार घर देखने में बहुत सुंदर लगते हैं। आज भले ही लोगों द्वारा घर पक्के बना दिए गये हैं लेकिन कहीं न कहीं दूरदराज इलाकों में आज भी पुराने कच्चे घरों की झलक देखने को मिल ही जाती है। हालांकि बदलाव की ब्यार में आज बहुत परिवर्तन देखें जा सकते हैं पर फिर भी कुछ नये घर आज भी पुराने आकार में देखने को मिल ही जाते हैं

  ढकने से पूर्व इनके किनारों पर भोजपत्र बिछा दिए जाते हैं, जो पानी के रिसाव को रोकने में होते हैं सहायक

पांगी के घर, मवेशी एक कोने में और दूसरे कोने में आदमी

 कई बार मिट्टी के गारे से पुराने घरों की चिनाई की गई होती है। घरों की छतें सपाट होती हैं, जिन्हें मिट्टी से ढका जाता है। लेकिन इन्हें ढकने से पूर्व इनके किनारों पर भोजपत्र बिछा दिए जाते हैं, जो पानी के रिसाव को रोकने में सहायक होते हैं। छतों का ढांचा और आकार इस तरह से निर्मित किया जाता है कि ये तेज हवाओं और सर्दी को बर्दाश्त कर सकें। घरों में रोशनदान नहीं होते। घर से धुएं की निकासी के लिए छत में सिर्फ एक सुराख रखा जाता है। पुराने समय में प्रत्येक घर में आधारतल को कोठा कहा जाता था, जिसमें आदमी व मवेशी दोनों रहते थे। मवेशी एक कोने में और आदमी दूसरे कोने में रहते थे।

घरों की सपाट छतें खाद्यान्न सामाग्री को सुखाने के साथ-साथ खाद्यान्न की गहाई में भी सहायक

घरों की सपाट छतें चारों ओर खाद्यान्न सामाग्री को सुखाने के साथ-साथ खाद्यान्न की गहाई में भी सहायक होती हैं। इन छतों की एक ही असुविधा है कि इन पर बर्फ को हटाया न जाए तो छत ढहने से जान-माल की भारी क्षति होने का अंदेशा बना रहता है। यही वजह है कि बर्फबारी के दिनों में पांगीवासियों को विशेष रूप से निर्मित लकड़ी के आयताकार औज़ार के सहारे अपने घरों की छतों से बर्फ हटाते देखा जा सकता है।

गांवों में किसी के घर के निर्माण में नि:शुल्क सेवाएं देना यहां की सामूहिक परम्परा

पांगी घाटी में घर बनाना बहुत खर्चीला भी नहीं है, क्योंकि इसके निर्माण में स्थानीय लकड़ी, पत्थर और गारा ही इस्तेमाल किया जाता है। गांवों में किसी के घर के निर्माण में निशुल्क सेवाएं देना यहां की सामूहिक परम्परा में है। घर का निर्माण तथा गृह प्रवेश करते समय न तो कोई शुभ मुहुर्त देखा जाता है और न ही किसी ब्राह्मण या पुजारी को पूछा जाता है। घरों में अलग से स्नानगृह भी नहीं बनाए जाते।

बिस्तर के तौर पर किया जाता है हाथ से निर्मित कंबल और बकरी के बालों से बनी थोबी का इस्तेमाल

कुर्सियां और मेज़ यहां बहुत कम देखने को मिलते हैं। इसके अलावा गांवों में चारपाईयाँ भी कम ही होती हैं। पीतल व कांसे के बर्तन, खाना बनाने व परोसने के काम आते हैं, जबकि स्टील के बर्तनों का भी प्रचलन अब आम होने लगा है। खाद्यान्न सामग्री लकड़ी के बक्सों या दीवार में बने खंदों में रखी जाती है, जबकि बकरी की खाल से बने खल्टे यानी बड़े थैले में भी इनका भंडारण किया जाता है। पहनने वाले कपड़े घर के भीतर जहां-तहां रखे जाते हैं। बुनाई में काम आने वाली खड्डी, जिसे स्थानीय भाषा में करघा कहा जाता है, अधिकांश घरों में मिल जाती है। सूत कातने के औज़ार भी लकड़ी के बने होते हैं। हाथ से निर्मित कंबल और बकरी के बालों से बनी थोबी का इस्तेमाल बिस्तर के तौर पर किया जाता है।

मकोल से की जाती है दीवारों की पुताई

घरों में लकड़ी का काम बहुत ही सादा होता है

तस्वीरें बहुत ही कम घरों में देखने को मिलती हैं। अपवादस्वरूप शिव-पार्वती के चित्र कहीं-कहीं घरों में लगे होते हैं। दरवाज़ों और खिड़कियों पर रोगन कम ही किया जाता है। दीवारों पर अमूमन स्थानीय स्लेटी मिट्टी से पुताई की जाती है, जिसे मकोल कहते हैं। घरों में लकड़ी का काम बहुत ही सादा होता है।

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