12 साल में एक बार मनाया जाता है हिमाचल का प्राचीन व रोचक उत्सव "भुण्डा"

हिमाचल का प्राचीन व रोचक उत्सव “भुण्डा”

12 साल में एक बार मनाया जाता है “भुण्डा”

स्थानीय लोगों में अपनी धर्म-संस्कृति,परम्परा व रीति-रिवाजों के प्रति बहुत आदर-भाव

हिमाचल प्रदेश में जहां देवी-देवताओं को बहुत ही श्रद्धा से पूजा जाता है तो वहीं पौराणिक रीति-रिवाजों, परंपराओं को भी बहुत अहमियत दी जाती है। प्रदेश के कोने-कोने में रहने वाले स्थानीय लोगों में अपनी परम्परा, रीति-रिवाजों के प्रति बहुत आदर-भाव देखने को मिलता है। हिमाचल प्रदेश की परम्पराएं, रीति-रिवाज,

 "भुण्डा" का पहाड़ों में हरिद्वार अथवा प्रयाग के कुम्भ जितना ही महत्व

“भुण्डा” का पहाड़ों में हरिद्वार अथवा प्रयाग के कुम्भ जितना ही महत्व

मेले-त्यौहार, पूरे विश्वभर में अपने एक खास पहचान लिए है।

आज हम आपको अपने धर्म-त्यौहार कॉलम में हिमाचल प्रदेश के बहुत प्राचीन, रोचक त्यौहार भुण्डा के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी देने जा रहे हैं। हिमाचल के कुछ त्यौहार ऐसे हैं जो अन्य त्यौहारों से बिल्कुल विपरीत तो हैं ही, लेकिन रोचक भी हैं। जी हां! इन रोचक त्यौहारों में से एक त्यौहारभुण्डा” है। लेकिन भुण्डा”  के साथ-साथ प्रदेश के रोचक त्यौहारों मेंशांद” और “भोज” भी है जिनकी अपनी विशेष महत्ता है। खैर इस बार हम आपकोभुण्डा” त्यौहार से अवगत कराने जा रहे हैं। इस त्यौहार की बरसों पुरानी परम्पराएं हैं जिन्हें आज भी पुरे आदर, सम्मान और परम्पराओं से  से निभाया जाता है।

भुण्डा” का पहाड़ों में हरिद्वार अथवा प्रयाग के कुम्भ जितना ही महत्व

भुण्डा”, “शान्द” और “भोज” भी प्रदेश के कुछ रोचक त्यौहार हैं। इन्हें पहाड़ों में हरिद्वार अथवा प्रयाग के कुम्भ जितना ही महत्व दिया जाता है और ये 12 वर्ष के बाद मनाए जाते हैं। “भुण्डा” ब्राह्मणों का, “शान्द” राजपूतों का तथाभोज” कोलियों का त्यौहार है। अन्य जातियों के लोग भी नकदी और पदार्थों से इसमें सहायता करते हैं और इन त्यौहारों में अपनी भूमिका निभाते हैं।

    भगवान परशुराम ने की थी "भुण्डा" यज्ञ की शुरूआतभगवान परशुराम ने की थी “भुण्डा” यज्ञ की शुरूआत

भगवान परशुराम ने की थी “भुण्डा” यज्ञ की शुरूआत

माना जाता है कि “भुण्डा” यज्ञ की शुरूआत परशुराम द्वारा ही की गई। पहले उसे नरमेघ यज्ञ भी कहा जाता था। परशुराम ने निरमण्ड में अपनी कोठी में इस यज्ञ के दौरान यज्ञ में नरमुण्डों की आहुतियां दीं थी। इसी वजह से आज के निरमण्ड गांव का नाम तब नरमुण्ड पड़ा था। कहा जाता है कि हर बारह वर्ष के पश्चात हरिद्वार का कुंभ मेला समाप्त होते ही वेद पाठी ब्राह्मण सीधे निरमण्ड आ जाते थे। तभी से यह परम्परा आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है।

निरमण्ड का भुण्डा सबसे प्रसिद्ध है। इनमें सबसे प्रसिद्ध “भुण्डा” का संबंध परशुराम की पूजा से है यद्यपि कुछ स्थानों पर काली पूजा भी होती है। पहाड़ों में परशुराम पूजा का प्रचलन पांच स्थानों पर हुआ बताया जाता है। ये स्थान हैं मण्डी में काओ और ममेल, कुल्लू में निरमण्ड और नीरथ तथा ऊपरी शिमला में दत्तनगर। यह नरमेध की तरह होता है और पूरी शास्त्रीय विधि से मनाया जाता है। कुछ लोगों का मानना है कि “भुण्डा” शब्द भण्डार शब्द का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है मंदिर का खजाना परन्तु संभावना यही है कि यह उत्सव खसों के आदिवासी कबीलों विशेषकर नागों और बेड़ों पर अधिकार का सूचक है।

70-80 वर्ष पूर्व रस्सी पर फिसल कर नीचे आता था मनुष्य

परन्तु सरकार के प्रतिबंध लगाने के कारण अब पटरे पर बिठाया जाता है बकरा

भुण्डा में निरमण्ड का “भुण्डा” अति प्रसिद्ध है यह नरमेघ यज्ञ की तरह नरबलि का उत्सव है। अपने मूलरूप में इस उत्सव का स्वरूप यह था कि पर्वत की चोटी से लेकर उसके मूल तक एक रस्सा बांध दिया जाता था और उस

काठी पर बैठकर एक व्यक्ति नीचे की ओर फिसलता था। 70-80 वर्ष पूर्व मनुष्य ही रस्सी पर फिसल कर नीचे आता था परन्तु प्रदेश सरकार द्वारा इस पर प्रतिबंध लगाने के कारण अब व्यक्ति के स्थान पर बकरा पटरे पर बिठाकर पहाड़ी से नीचे की ओर धकेला जाता है। उत्सव से पहले सारे स्थानीय देवी-देवताओं को गांव की ओर से आमंत्रित किया जाता है। उत्सव के लिए इलाके के बाकी लोगों से भी अनाज एवं धन इकट्ठा किया जाता है।

जारी……

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