हिमाचल के प्राचीन मदिंरों में से प्रसिद्ध सोलन शूलिनी माता मन्दिर
हिमाचल के प्राचीन मदिंरों में से प्रसिद्ध सोलन शूलिनी माता मन्दिर
गुम्बदनुमा शैली में कंकरीट का बना है शूलिनी माता का मन्दिर
मन्दिर की पूज सज्जा में शिरगुल तथा माल्ली देवताओं की मूर्ति के मध्य छह देवियों की मूर्तियां विराजमान
सोलन शहर के दक्षिण में शूलिनी माता का दो मंजिला मन्दिर है। यह मन्दिर आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व गुम्बदनुमा शैली में कंकरीट का बना है। इससे पूर्व यहां भगवती शूलिनी का एक मंजिला प्राचीन मन्दिर टीन की छत्त का बना था। वर्तमान मन्दिर के गर्भगृह में माता शूलिनी की दो मुख्य मूर्तियों के साथ देवी की अन्य चार मूर्तियां है। एक लोकमतानुसार यह चारों देवियां शूलिनों की बहनें है जिन्हें जनमानस में हिंगलाज, जेठी ज्वाला, लगासन देवी और नैना देवी नाम दिए गए है। यहां इन मूर्तियों के साथ शिरगुल देवता और माल्ली देवता की मूर्तियां भी है। यह सभी मूर्तियां पीतल की धातु में बनी है। इस मन्दिर की पूज सज्जा में शिरगुल देवता की मूर्ति दाईं ओर तथा माल्ली देवता की मूर्ति बाईं ओर है। जबकि इन दोनों देवताओं के मध्य छह देवियों की मूर्तियां विराजमान हैं।
बघाट रियासत की राजधानी रही है सोलन
सोलन मूलतः बघाट रियासत की राजधानी रही है। इस रियासत की नींव धारानगरी (मध्य प्रदेश) से आए पंवार राजपूत बसंतपाल ने रखी। उसने स्थानीय मावी जागीरदारों पर कब्जा कर जौणाजी के समीप बसन्तपुर (बस्सी) नामक स्थान पर राजधानी स्थापित की। यहां इस शासक ने चतुर्भुजी विष्णु का मन्दिर बनवाया। यहां से एक किलोमीटर की दूरी पर राजवंश कुलेश्वरी लगासन देवी का मन्दिर बनवाया। जौणाजी में प्रतिवर्ष कृष्ण जन्म अष्टमी के अवसर पर मेला लगता था जिसमें राजपरिवार का कोई सदस्य या फिर प्रतिनिधि भाग लेता था।
बसन्तपाल के बाद सोलहवीं पीढ़ी में राणा इन्द्रपाल ने बसाल परगना पर कब्जा जमाया तथा रियासत का नाम भी बघाट रखा। राणा रघुनाथ पाल के बाद उनके पुत्र दलील सिंह के हाथ में रियासत की बागडोर आई। उसने अपने नाम के साथ पाल उपनाम को हटा कर “सिंह” जोड़ दिया। सन् 1814-15 ई० में ब्रिटिश सरकार ने राणा महेन्द्र सिंह से रियासत के आठ परगनों में से पांच परगने एक लाख तीस हजार रुपये पर महाराजा पटियाला को दे दिए। सन् 1863 ई० को ब्रिटिश सैन्य अधिकारी इन्नस ने बघाट रियासत के सोलन के बहुत बड़े रकबा का मालिकाना अधिकार खरीद कर इसे ब्रिटिश सीमान्त क्षेत्र बना दिया था। ब्रिटिश सरकार ने सोलन छावनी का यह क्षेत्र र 500/- वार्षिक खिराज पर अधिग्रहण कर लिया था। उस समय रियासत के भावी शासक राणा दलीप सिंह केवल तीन वर्ष के थे। सन् 1876 ई० में जनरल इन्स की मृत्यु के बाद राणा दलीप सिंह ने सोलन के तमाम भूभाग के मालिकाना अधिकार पैतीस हजार देकर ब्रिटिश सरकार के महाप्रबन्धक से वापस ले लिए थे।
राणा दलीप सिंह के शासनकाल में ही राजवंश के शासकों को सोलन में स्थायित्व मिल पाया
राणा दलीप सिंह रियासत के लोकप्रिय शासक थे। वह जनकल्याण की भावना से प्रजा के लिए नेक कार्य करते थे। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में सम्भवतः उसी शासक के शासनकाल में राजवंश की वृद्धि, समृद्धि, अखण्ड कीर्ति तथा प्रजा की सुख-शान्ति के लिए सोलन में भगवती शूलिनी के लघु मन्दिर की स्थापना सोलन गांव में हुई प्रतीत होती है क्योंकि जौणाजी के पश्चात् बघाट वंशज की राजधानी दीर्घकाल तक बौछ (बोहच) में रही। तदन्तर राजनैतिक उथल-पुथल का दौर रहा। राणा दलीप सिंह के शासनकाल में ही राजवंश के शासकों को सोलन में स्थायित्व मिल पाया। बघाट राजवंश की कुलीष्ट देवी को रियासती काल से महली, घरोट, बसाल, बैर, बैर-की-सैर, दधोग, नांदल, कुंडला, घड़ासर और वुडो गांव के ग्रामवासी भी कुलदेवी के रूप में पूजते रहे हैं। इसलिए इन गांव के पुरुषों को देवी के कल्याणै पुकारा जाता है।
…जब माता शूलिनी रुष्ट हो गई सुर सोलन पर टूट पड़ा महामारी का प्रकोप
जनश्रुति है कि रियासतीकाल में सोलन तथा आसपास के क्षेत्रों में महामारी फैल गई थी। आम जनता महामारी से भयभीत होकर सोलन से पलायन करने लगी। इस संकट से उभरने के लिए राजा और प्रजा ने भगवती शूलिनी के मन्दिर में जाकर भूल-चूक के लिए क्षमा याचना करते हुए एक सूत्र में रहने का वचन दिया। उसी समय भगवती शूलिनों के गूर ने आवेश में आकर माता का वचन पालन न करने की बात कहीं। आखिर तथ्यों की तह तक जाने से ज्ञात हुआ कि मेला आयोजकों ने शूलिनी मेला का आयोजन स्थल गंज बाजार से ठोडो मैदान माता की आज्ञा के बिना ही बदल डाला। इस पर माता शूलिनी रुष्ट हो गई तथा सोलन पर महामारी का प्रकोप टूट पड़ा। इस महामारी से मुक्ति पाने के लिए राजा और प्रजा को एक ही वर्ष में दूसरी बार मां शूलिनी की अनुमति से पुरातन मर्यादाओं का निर्वहन करते हुए दशहरा के अवसर पर शूलिनी मेला का आयोजन करना पड़ा था।
महामारी, भूखमरी, बाढ़, अन्नावृष्टि से रक्षा करती रही है भगवती शुलिनी
किंवदन्ति है कि बघाट रियासत के शासक कुलदेवी को प्रसन्न करने के लिए पुरातन परम्परा से हर वर्ष आषाढ़ मास के दूसरे रविवार को मेले का आयोजन करते थे। लोक विश्वास है कि भगवती शुलिनी के इस मेले को मनाए जान से देवी क्षेत्र के लोगों की प्राकृतिक आपदाओं जैसे महामारी, भूखमरी, बाढ़, अन्नावृष्टि आदि से रक्षा करती रही है। यह मेला पहले-पहले तो एक ही दिन में किया जाता था लेकिन जब से यह मेला राजयस्तरीय घोषित हुआ है उसके पश्चात् इसे तीन दिन मनाया जाता है। यहाँ का मुख्य आकर्षण ठोडा खेल होता है।
शोभायात्रा के दौरान दुर्गा की पिण्डी के पास अन्न के दानों पर रखी जाती हैं शूलिनी माता की मूर्तियां
शूलिनी माता की अनुमति के बिना किया गया मेला विघ्नकारी
एक परिपाटी के अनुसार मेले का शुभारम्भ भगवती शुलिनी की शोभायात्रा से होता है। इस उपलक्ष पर शूलिनी मन्दिर से दोपहर लगभग दो बजे माता की पालकी ढोल नगाड़ों की दुंदुभि के साथ निकलती है। इस रथयात्रा च समस्त शहरवासी विशाल जनसमूह में एकत्र होकर माता की पालकी से सोलन बाजार प्रदक्षिणा पूरी करवाते हैं। तदोपरान्त पालकी गंज बाजार के दुर्गा मन्दिर में लौट आती है। इस मन्दिर में शूलिनी की मूर्तियां दुर्गा की पिण्डी के पास अन्न के दानों पर रखी जाती है। यहां दुर्गा मन्दिर का पुजारी ही शूलिनी की मूर्तियों को दो दिन तक पूजता है क्योंकि माता इस मन्दिर में दो दिन अर्थात् शुक्रवार और शनिवार को ठहरती है। भगवती शूलिनी की पालकी तीसरे दिन साज-सज्जा के साथ वापस मूल मन्दिर को लौटती है। यहां यह प्रगाढ़ लोक मान्यता है कि मेला का आरम्भ तथा समापन देवी का गूर आशीर्वचन देकर करता है। शूलिनी माता की अनुमति के बिना किया गया मेला विघ्नकारी माना जाता है। इस मेले के अतिरिक्त यहां नवरात्रों में भी श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है।
इस मन्दिर में राजसी शासन में हर माह की संक्रान्ति को पूजा की जाती थी। लेकिन अब द्विकाल पूजा प्रातः और सांय न्यास के पुजारियों द्वारा की जाती है। इस मन्दिर का प्रबन्ध सन् 2005 ई० से सरकार द्वारा गठित मन्दिर न्यास द्वारा चलाया जा रहा है। सोलन से शिमला 42 किलोमीटर, चण्डीगढ़ 68 किलोमीटर, देहरादून 180 किलोमीटर की दूरी पर है। यहां से मैदानी क्षेत्रों तक पहुंचना सहज है क्योकि ( यह शहर राष्ट्रीय उच्चमार्ग (जो अब एक्सप्रेस वे बन रहा है) पर है।