“बुनाई” प्राचीन कला व परम्परा
बांस की छड़ें, पेड़ों की टहनियां, घास, खजूर के पत्ते बुनने में प्रयोग
बुनने में आज भी ग्रामीण लोगों की अद्भुत कला
बांस की छड़ें, पेड़ों की टहनियां, घास, खजूर के पत्ते बुनने में प्रयोग
आज का युग आधुनिकता युग भले ही हो लेकिन आज भी हमारे देश व प्रदेश में “बुनाई” का विशेष महत्व है। हाथ से बुनी टोकरियाँ, किल्टे, घीघटा, छाबड़ा, छाबड़ी या छाबड़, सोपा, सूप, सूपली, ओड़ी, करण्डू या करड़ा हत्थे और ढक्कन वाला बर्तन, खजूर के पत्तों से बने पंखे व चटाइयां ग्रामीण क्षेत्रों में प्रयोग होने वाली ऐसी वस्तुएं हैं जो सभी लोगों की रोज की जरूरत है। कहने को भले ही यह कहा जाता है कि हाथ से बनी इन चीजों का उतना महत्व नहीं क्योंकि अब स्टील, प्लास्टिक व रबड़ से भी बनी बनाई ये वस्तुएं मिल जाती हैं। लेकिन हाथ से बनी इन वस्तुओं की पकड़, मजबूती व लोगों की मेहनत से ये सब चीजें और ज्यादा बेहतर और खास हो जाती हैं।
बुनने में आज भी ग्रामीण लोगों की अद्भुत कला
हमें इन वस्तुओं के इस्तेमाल को तव्वजो देनी चाहिए। क्योंकि इसमें जहाँ बुनकरों की कड़ी मेहनत है वहीं उनके रोजी-रोटी का व्यवसाय भी यही है। वहीं पहाड़ों में टोकरियां व अन्य वस्तुएं बुनना एक प्राचीन कला और परम्परा रही है। आज भी ग्रामीण लोगों की यह अद्भुत कला है। इसके लिए किन्हीं विशेष औजारों की आवश्यकता नहीं होती है। कुछ बड़े किस्म के चाकू (दरात की तरह) और दराती आदि ही इसके लिए काफी होते हैं जिनसे काटने व छीलने का काम किया जाता है। प्राचीन समय से मानव समाज को तरह-तरह की आवश्यक्ताएं दैनिक जीवन में पड़ती रही है। उसे घरों की छतों को बनाने, अनाज आदि रखने के लिए आसान व सुलभ वस्तुओं के लिए कुछ नई-नई खोज करनी पड़ी और टोकरियां बनाने का विकास भी इसी आशय से अस्तित्व में आया। बुनने में बांस की छड़ें, पेड़ों की टहनियां, घास, खजूर के पत्ते आदि प्रयोग किए जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश में टोकरियां आदि बुनने का काम रेहड़ा (भंजाड़ा) लोगों द्वारा किया जाता है। इनके किल्टा, घीघटा, पीला आदि पहाड़ी बांस से तैयार किए जाते हैं। यह नगाल या तुंग से बनते हैं। किल्टा आदि लम्बोतर आकार के होते हैं जिन्हें झरनों आदि से पानी से भरे बर्तन ढोने, खाद को खेतों तक पहुंचाने, जंगल से लकड़ी लाने और सेब, आलू तथा अन्य कृषि उपजों को ढोने के लिए पहाड़ों में इस्तेमाल किया जाता है।
बुनने में आज भी ग्रामीण लोगों की अद्भुत कला
छाबड़ी या छाबड़ रोटियां रखने, पूजा सामाग्री व शादी-विवाह में लाई जाती है उपयोग
खजूर के पत्तों से बनते हैं पंखे, चटाइयां व सटड़े
छाबड़ी या छाबड़ रोटियां रखने, पूजा सामाग्री व शादी-विवाह में लाई जाती है उपयोग
टोकरी को बागवानी और कृषि के कामों में प्रयोग में लाया जाता है। छाबड़ा, छाबड़ी या छाबड़ को घरों में रोटियां रखने के लिए या पूजा सामाग्री, शादी-विवाह के दौरान उपयोग में लाया जाता है। सोपा, सूप, सूपली और ओड़ी अंग्रेज के वी अक्षरी के आकार का बर्तन होता है। करण्डू या करड़ा हत्थे और ढक्कन वाला बर्तन होता है। इसे सब्जियों, वस्तुओं और ऊन आदि रखने में प्रयुक्त किया जाता है। पेडू़ या पच्छोली एक बड़ा बर्तन होता है जिसमें अनाज सुरक्षित रहता है तथा उसमें कीड़ा आदि नहीं लगता। इसका आकार काफी बड़ा होता है, अत: इसे प्राय: उसी कमरे में बुना जाता है जहां इसे रखा जाता है। चटेरा, छिकड़ों या झबेरा कप की भांति गोल आकार का होता है जिसे खेतों में हल चलाते समय बैलों के मुंह पर लगाकर गले में बांध दिया जाता है। इसी तरह खजूर के पत्तों से पंखे, चटाइयां व सटड़े आदि बनाए जाते हैं। इन्हें घरों में महिलाएं बड़े सुन्दर डिजाइनों से तैयार करती हैं। यह नरम और सुविधापूर्वक इस्तेमाल किए जाने वाले होते हैं।
धान की पराली या पराल से बनाई जाती है मंजरी
पांगी और लाहौल में घास की पूलाह
टोकरी को बागवानी और कृषि के कामों में प्रयोग में लाया जाता है।
टोकरियां आदि बुनने के अतिरिक्त चटाइयां बुनने, रस्सियां बनाने और पूलाह बनाने का काम भी प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर होता है। चटाई को स्थानीय भाषा में मंजरी कहा जाता है। इसे धान की पराली या पराल से बनाया जाता है। इसे फर्श पर बिछाया जाता है। यह बड़ी गर्म और मुलायम होती है। रस्सियों को बीऊल नामक पेड़ की टहनियों से निकले रेशे, जिन्हें शैल कहते हैं तथा मुंज नामक घास आदि से बनाया जाता है। बीऊल के रेशे भी इस्तेमाल किए जाते हैं। पूलाह के लिए पण्डी प्रसिद्ध है। चम्बा, कुल्लू और किन्नौर में भी इसका प्रचलन है। चम्बा जिला के चुराह क्षेत्र में महिण्डा पेड़ के रेशों से जूते बनाए जाते हैं। इसी तरह पांगी और लाहौल में घास की पूलाह बनाई व पहनी जाती है। चमड़े से बनने वाली चप्पलें चम्बा में बड़े सुन्दर डिजाइनों में बनती हैं।
साभार : हिमाचल प्रदेश एक-बहु-आयामी परिचय