गोवर्धन पूजा: दीपावली के अगले दिन भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर भगवान इन्द्र को पराजित कर उनके गर्व का नाश किया था तथा गोवर्धन पर्वत की पूजा-अर्चना कर गायों का पूजन किया था। इसलिए दीपावली के दूसरे दिन गोवर्धन की पूजा-अर्चना करते हुए भगवान कृष्ण को याद किया जाता है।
साथ ही इसी दिन जब भगवान राम के वनवास से लौटने के बाद उनके दर्शन के लिए अयोध्यावासी उनसे मिलने आये थे और अपने प्रभु को पुन: अयोध्या आने के संदर्भ में एक-दुसरे को बधाई दी थी, इस कारण से इस दिन को रामा-श्यामा का दिन भी कहा जाता है और इस दिन सभी लोग अपने परिचित लोगों से मिलने उनके घर जाते हैं व पुराने पड़ चुके रिश्तों में फिर से जान डालते हैं।
भाईदूज: दिपावली के तीसरे दिन “भाईदूज” का त्यौहार मनाया जाता है और इस दिन बहन अपने भाई के मस्तक पर तिलक लगाकर उसकी सलामती की प्रार्थना करती हैं। यह त्यौहार उत्तर भारत में भी बड़ी आस्था से मनाया जाता है तथा इस त्यौहार को “यम द्वितीया” के नाम से भी जाना जाता है।
कहा जाता है कि यम ने यमुना नदी को इसी दिन अपनी बहन कहा था और यमुना देवी ने इसी दिन यम को तिलक लगा कर यम का पूजन किया था। इसीलिए इस दिन को यम द्वितिया अथवा भाई दूज के नाम से जाना जाता है।
दीपदान: दिपावली के दिन दीपदान का विशेष महत्त्व होता है। नारदपुराण के अनुसार इस दिन मंदिर, घर, नदी, बगीचा, वृक्ष, गौशाला तथा बाजार में दीपदान देना शुभ माना जाता है।
दिपावली का त्यौहार मनाने का प्रमुख कारण भी यही माना जाता है कि इस दिन भगवान राम, चौदह वर्ष का वनवास बिताकर अपने भाई लक्ष्मण और अपनी पत्नी सीता के साथ अयोध्या लौटे थे और अयोध्यावासियों ने इसी खुशी में पूरी अयोध्या को दीपक से प्रकाशिक कर दिया था और तभी से दिवाली पर पूरे घर को दीपकों की रोशनी से जगमगा देने की परम्परा शुरू हुई है जो आज भी जारी है।

दिपावाली पर देवी लक्ष्मी की पूजा
क्यों की जाती हैं दिपावाली पर देवी लक्ष्मी की पूजा ?
इस संदर्भ में भी हिन्दु धर्म शास्त्रओ में एक पौराणिक कथा का उल्लेख मिलता है जिसके अनुसार एक बार सनत्कुमारजी ने सभी महर्षि-मुनियों से कहा-
महानुभाव! कार्तिक की अमावस्या को प्रात:काल स्नान करके भक्तिपूर्वक पितर तथा देव पूजन करना चाहिए। उस दिन रोगी तथा बालक के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। सन्ध्या समय विधिपूर्वक लक्ष्मीजी का मण्डप बनाकर उसे फूल, पत्ते, तोरण, ध्वज और पताका आदि से सुसज्जित करना चाहिए तथा अन्य देवी-देवताओं सहित लक्ष्मी जी का षोडशोपचार पूजन तथा पूजनोपरांत परिक्रमा करनी चाहिए।
मुनिश्वरों ने पूछा- लक्ष्मी-पूजन के साथ अन्य देवी-देवताओं के पूजन का क्या कारण है?
इस पर सनत्कुमारजी बोले- लक्ष्मीजी, समस्त देवी-देवताओं के साथ राजा बलि के यहाँ बंधक थीं और आज ही के दिन भगवान विष्णु ने उन सभी को बंधनमुक्त किया था। बंधनमुक्त होते ही सब देवता लक्ष्मी जी के साथ जाकर क्षीर-सागर में सो गए थे।
इसलिए अब हमें अपने-अपने घरों में उनके शयन का ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि वे क्षीरसागर की ओर न जाकर स्वच्छ स्थान और कोमल शैय्या पाकर यहीं विश्राम करें क्योंकि जो लोग लक्ष्मी जी के स्वागत की उत्साहपूर्वक तैयारियां करते हैं, उनको छोड़कर वे कहीं भी नहीं जातीं।
इसलिए रात्रि के समय लक्ष्मीजी का आह्वान कर उनका विधिपूर्वक पूजन करते हुए नाना प्रकार के मिष्ठान्न का नैवेद्य अर्पण करना चाहिए। दीपक जलाने चाहिए तथा दीपकों को सर्वानिष्ट निवृत्ति हेतु अपने मस्तक पर घुमाकर चौराहे या श्मशान में रखना चाहिए।
इसीलिए पुराणों में यह कहा गया हैं कि दिवाली के दिन घरों में साफ़ सफाई होना चाहिये ताकि देवी लक्ष्मी उस दिन क्षीरसागर न जाकर भक्तों के घरों में ही वास करें और जहां माता लक्ष्मी का वास होता हैं वहाँ दरिद्रता नहीं होती हैं बल्कि ऐन-केन प्रकारेण धन की आवक बनी ही रहती है क्योंकि धन के देवता कुबेर की अधिष्ठात्री देवी माता लक्ष्मी ही हैं और माता लक्ष्मी जिस घर में वास करती हैं, धन के देवता कुबेर का उस घर में लगातार आना-जाना लगा ही रहता है क्योंकि वे माता लक्ष्मी के कोषाध्यक्ष हैं।
इस प्रकार से दीपावली की रात्रि में माता लक्ष्मी की पूजा का महत्व हिन्दुधर्म के पुराणों में मिलता हैं| इसके अलावा कई और कारण भी हैं, जिसकी वजह से दीपावली का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। इनमें से कुछ कारण अग्रानुसार हैं-
नवसंवत का शुभारम्भ: नेपालियों के लिए यह त्यौहार इसलिए भी महत्व पूर्ण है क्योंकि इस दिन से नेपाल संवत में नया वर्ष शुरू होता है। जबकि दिवाली के दिन ही उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राजतिलक हुआ था जिन्होंने विक्रम संवत नाम के भारतीय केलेण्डर का इसी दिन से आरम्भ किया था। इसलिए भारतीय लोगों के लिए भी दीपावली को नववर्ष की शुरूआत माना जाता है। यानी भरत में भी दीपावली को नए वर्ष या नवसंवत का शुभारम्भ माना गया है।
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