“शिक्षा का अधिकार अधिनियम”…ताकि हर बच्चा हो शिक्षित
बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिनियम 1 अप्रैल 2010 को पूर्ण रूप से देश में लागू हुआ। इस अधिनियम के तहत छह
अधिवक्ता – रोहन सिंह चौहान
से लेकर चौदह वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा को पूर्णतः मुफ्त एवं अनिवार्य कर दिया गया। अब यह केंद्र तथा राज्यों के लिए कानूनी बाध्यता है कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा सभी को सुलभ हो सके।शिक्षा किसी भी व्यक्ति एवं समाज के समग्र विकास तथा सशक्तीकरण के लिए आधारभूत मानव मौलिक अधिकार है। यूनेस्को की शिक्षा के लिए वैश्विक मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2010 के मुताबिक, लगभग 135 देशों ने अपने संविधान में शिक्षा को अनिवार्य कर दिया है तथा मुफ्त एवं भेदभाव रहित शिक्षा सबको देने का प्रावधान किया है। भारत ने 1950 में 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए मुफ्त तथा अनिवार्य शिक्षा देने के लिए संविधान में प्रतिबद्धता का प्रावधान किया था। इसे अनुच्छेद 45 के तहत राज्यों के नीति निर्देशक सिद्धातों में शामिल किया गया है।
जी हाँ इस बार आपको कानून व्यवस्था में “”शिक्षा का अधिकार अधिनियम” क्या है ” के बारे में शिमला के अधिवक्ता रोहन सिंह चौहान विस्तार से जानकारी देने जा रहे हैं।
12 दिसंबर 2002 को संविधान में 86वां संशोधन किया गया और इसके अनुच्छेद 21ए को संशोधित करके शिक्षा को मौलिक अधिकार बना दिया गया है।
बच्चों के लिए मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिनियम 1 अप्रैल 2010 को पूर्ण रूप से लागू हुआ। इस अधिनियम के तहत छह से लेकर चौदह वर्ष के सभी बच्चों के लिए शिक्षा को पूर्णतः मुफ्त एवं अनिवार्य कर दिया गया है। अब यह केंद्र तथा राज्यों के लिए कानूनी बाध्यता है कि मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा सभी को सुलभ हो सके।
अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं:
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छह से चौदह वर्ष तक के हर बच्चे के लिए नजदीकी विद्यालय में मुफ्त आधारभूत शिक्षा अनिवार्य है।
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इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बच्चों से किसी भी प्रकार का कोई शुल्क नहीं लिया जाएगा और न ही उन्हें शुल्क अथवा किसी खर्च की वजह से आधारभूत शिक्षा लेने से रोका जा सकेगा।
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यदि छह वर्ष के अधिक उम्र का कोई भी बच्चा किन्हीं कारणों से विद्यालय नहीं जा पाता है तो उसे शिक्षा के लिए उसकी उम्र के अनुसार उचित कक्षा में प्रवेश दिलवाया जाएगा।
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इस अधिनियम के प्रावधानों को कियान्वित करने के लिए संबंधित सरकार तथा स्थानीय प्रशासन को यदि आवश्यक हुआ तो विद्यालय भी खोलना होगा। अधिनियम के तहत यदि किसी क्षेत्र में विद्यालय नहीं है तो वहां पर तीन वर्षों की तय अवधि में विद्यालय का निर्माण करवाया जाना आवश्यक है।
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इस अधिनियम के प्रावधानों को अमल में लाने की जिम्मेदारी केंद्र एवं राज्य सरकार दोनों की है तथा इसके लिए होने वाला धन खर्च भी इनकी समवर्ती जिम्मेदारी रहेगी।
यह अधिनियम माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा तथा बच्चों तक शिक्षा को पहुंचाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है। इस अधिनियम का सर्वाधिक लाभ श्रमिकों के बच्चे, बाल मजदूर, प्रवासी, विशेष आवश्यकता वाले बच्चे या फिर ऐसे बच्चे जो सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, भाषाई अथवा लिंग कारकों की वजह से शिक्षा से वंचित बच्चों को मिलेगा। इस अधिनियम के कार्यान्वयन के साथ ही यह उम्मीद भी है कि इससे विद्यालय छोड़ने वाले तथा विद्यालय न जाने वाले बच्चों को अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा, प्रशिक्षित शिक्षकों के माध्यम से दी जा सकेगी।
भारत सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार अधिनियम बनाने का कदम ऐतिहासिक कहा जा सकता है तथा इससे यह भी तय हो गया है कि हमारा देश सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (एमजीडी) तथा सभी के लिए शिक्षा (ईएफए) के नजदीक पहुंच रहा है।
क्या है यह अधिनियम?
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6 से 14 साल की उम्र के हरेक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। संविधान के 86वें संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाया गया है।
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सरकारी स्कूल सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करायेंगे और स्कूलों का प्रबंधन स्कूल प्रबंध समितियों (एसएमसी) द्वारा किया जायेगा। निजी स्कूल न्यूनतम 25 प्रतिशत बच्चों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे।
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गुणवत्ता समेत प्रारंभिक शिक्षा के सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए प्रारंभिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया जायेगा।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की मुख्य विशेषताएं
अधिनियम का इतिहास
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दिसंबर 2002- अनुच्छेद 21 ए (भाग 3) के माध्यम से 86वें संशोधन विधेयक में 6 से 14 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार माना गया।
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अक्तूबर 2003- उपरोक्त अनुच्छेद में वर्णित कानून, मसलन बच्चों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2003 का पहला मसौदा तैयार कर अक्तूबर 2003 में इसे वेबसाइट पर डाला गया और आम लोगों से इस पर राय और सुझाव आमंत्रित किये गये।
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2004- मसौदे पर प्राप्त सुझावों के मद्देनजर मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा विधेयक 2004 का संशोधित प्रारूप तैयार कर http://education.nic.in वेबसाइट पर डाला गया।
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जून 2005- केंद्रीय शिक्षा सलाहकार पर्षद समिति ने शिक्षा के अधिकार विधेयक का प्रारूप तैयार किया और उसे मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सौंपा। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने इसे नैक के पास भेजा, जिसकी अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी हैं। नैक ने इस विधेयक को प्रधानमंत्री के ध्यानार्थ भेजा।
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14 जुलाई, 2006- वित्त समिति और योजना आयोग ने विधेयक को कोष के अभाव का कारण बताते हुए नामंजूर कर दिया और एक मॉडल विधेयक तैयार कर आवश्यक व्यवस्था करने के लिए राज्यों को भेजा। (76वें संशोधन के बाद राज्यों ने राज्य स्तर पर कोष की कमी की बात कही थी।)
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19 जुलाई 2006- सीएसीएल, एसएएफई, एनएएफआरई और केब ने आईएलपी तथा अन्य संगठनों को योजना बनाने, बैठक करने तथा संसद की कार्यवाही के प्रभाव पर विचार करने व भावी रणनीति तय करने और जिला तथा ग्राम स्तर पर उठाये जानेवाले कदमों पर विचार के लिए आमंत्रित किया।
विधेयक महत्वपूर्ण क्यों :
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यह विधेयक महत्वपूर्ण है क्योंकि संवैधानिक संशोधन लागू करने की दिशा में सरकार की सक्रिय भूमिका का यह पहला कदम है और यह विधेयक इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि-
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इसमें निःशुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक तथा माध्यमिक शिक्षा का कानूनी प्रावधान है।
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प्रत्येक इलाके में एक स्कूल का प्रावधान है।
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इसके अंतर्गत एक स्कूल निगरानी समिति के गठन प्रावधान है जो समुदाय के निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से स्कूल की कार्यप्रणाली की निगरानी करेगी।
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6 से 14 साल के आयुवर्ग के किसी भी बच्चे को नौकरी में नहीं रखने का प्रावधान है।
उपरोक्त प्रावधान एक सामान्य स्कूल प्रणाली के विकास की नींव रखने की दिशा में प्रभावी कदम है। इससे सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दी जा सकेगी और इस
“शिक्षा का अधिकार अधिनियम”…ताकि हर बच्चा हो शिक्षित
प्रकार सामाजिक तथा आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को अलग-थलग करने में रोक लग सकेगी।
6 से 14 साल के आयु वर्ग को चुनने का उद्देश्य : विधेयक में सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से प्रारंभिक से माध्यमिक स्कूल तक की शिक्षा देने पर जोर दिया गया है और
इस आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा देने से उनके भविष्य का आधार तैयार हो सकेगा।
कानून महत्वपूर्ण : मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून 2009 का पास होना भारत के बच्चों के लिए ऐतिहासिक क्षण है।
यह कानून सुनिश्चित करता है कि हरेक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार प्राप्त हो और यह इसे राज्य, परिवार और समुदाय की सहायता से पूरा करता है।
‘मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा : 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को अपने पड़ोस के स्कूलों में मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलेगा।
इसके लिए बच्चे या उनके अभिभावकों से प्राथमिक शिक्षा हासिल करने के लिए कोई भी प्रत्यक्ष फीस (स्कूल फीस) या अप्रत्यक्ष मूल्य (यूनीफॉर्म, पाठ्य-पुस्तकें, मध्या भोजन, परिवहन) नहीं लिया जाएगा। सरकार बच्चे को निःशुल्क स्कूलिंग उपलब्ध करवाएगी जब तक कि उसकी प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं हो जाती।
आरटीई को सुनिश्चित करने के लिए समुदाय और अभिभावकों की भूमिका: मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून 2009 का पास होना भारत के बच्चों के लिए ऐतिहासिक क्षण है। भारत के इतिहास में पहली बार बच्चों को गुणवत्तापूर्ण प्राथमिक शिक्षा का अधिकार दिया गया है जिसे राज्य द्वारा परिवार और समुदायों की सहायता से किया जाएगा।
विश्व के कुछ ही देशों में सभी बच्चों को अपनी क्षमताएं विकसित करने में सहायता के लिए मुफ्त और बच्चे पर केन्द्रित तथा मित्रवत शिक्षा दोनों को सुनिश्चित करने का राष्ट्रीय प्रावधान मौजूद है। यह एक अनुमान है कि 2009 में भारत में 6 से 14 साल के आयु वर्ग के ऐसे 80 लाख बच्चे हैं जो स्कूल नहीं जाते थे। विश्व, भारत के बगैर 2015 तक हरेक बच्चे को प्राथमिक शिक्षा पूरी कराने के अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता।
स्कूल स्थानीय अधिकरण, अधिकारियों, माता-पिता, अभिभावकों और शिक्षकों को मिलाकर स्कूल प्रबंधन समितियां (एसएमसी) बनाएंगे। ये एसएमसी स्कूल के विकास के लिए योजनाएं बनाएंगी और सरकार द्वारा दिए गए अनुदान का इस्तेमाल करेगी और पूरे स्कूल के वातावरण को नियंत्रित करेंगी।
आरटीई में यह घोषित है कि एसएमसी में वंचित तबकों से आने वाले बच्चों के माता-पिता और 50 फीसदी महिलाएं होनी चाहिए। इस तरह के समुदायों की भागीदारी
लड़कियों और लड़कों के लिए अलग-अलग शौचालय सुविधाओं, स्वास्य, जल, स्वच्छ्ता जैसे मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान के जरिए पूरे स्कूल के वातावरण को बाल मित्रवत बनाने को सुनिश्चित करने हेतु महत्वपूर्ण होंगी।
1936 में जब महात्मा गांधी ने एक समान शिक्षा की बात उठायी थी, तब उन्हें भी लागत जैसे मुद्दे, जो आज भी जीवित हैं, का सामना करना पड़ा था। संविधान ने इसे एक अस्पष्ट अवधारणा के रूप में छोड़ दिया था, जिसमें 14 साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की जवाबदेही राज्यों पर छोड़ दी गयी थी।
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