अनमोल प्राकृतिक सम्पदा के लिये विख्यात “भंगाल”

धरती पर प्रकृति का स्वर्ग “हिमाचल का भंगाल”

हिमाचल की हसीन वादियों को निहारने पर्यटक दूर-दूर से हैं आते

हिमाचल की हसीन वादियों को निहारने पर्यटक दूर-दूर से हैं आते

हिमाचल की हसीन वादियों को निहारने पर्यटक दूर-दूर से आते हैं। ये भी सच है कि जो एक बार आता है वो बार-बार यहां आना चाहता है। हिमाचल के बहुत से खूबसूरत प्राकृतिक  स्थल हैं। यहां  की अनुपम प्रकृति की सौन्दर्य छटा सबको लुभाती है। यही वजह है कि 12 महीने यहां पर्यटकों का आगमन होता है।  वहीं उनमें से एक धौलाधार की हिमखण्डित पर्वत श्रृंखलाओं से घिरे कांगड़ा जिले का एक सुरम्य स्थल है- भंगाल। जो न केवल अपनी खूबसूरत हसीन वादियों के लिए जाना जाता है, बल्कि “भंगाल” हिमशिखरों पर बने देवालयों, भोले-भाले लोगों, अनूठी धार्मिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अनमोल प्राकृतिक सम्पदा के लिये भी मुख्य रूप से विख्यात है।

समुद्र तल से आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित रावी नदी के किनारे बसा भंगाल धरती पर प्रकृति का स्वर्ग कहा जा सकता है। तोष, देवदार और कैल के गगन चुम्बी पेड़ों से सुशोभित इस स्थल में प्रकृति झूमती, गाती, इठलाती प्रतीत होती है। सर्दियों के दिनों में भंगाल कई-कई फीट बर्फ से ढक जाता है। इन दिनों यहां के अधिकतर वाशिंदे बीड और बैजनाथ क्षेत्र में आ बसते हैं। कुछ लोग चम्बा चले जाते हैं। यहां इन्होंने अपने घर बनाये हैं और कृषि योग्य भूमि भी खरीद रखी है। भंगाल चूंकि सड़क मार्ग से नहीं जुड़ा है, अतः घुमक्कड और सैलानी ही यहां के नैसर्गिक सौन्दर्य को आत्मसात कर सकते हैं। भंगाल तालुके का आधा भाग छोटा भंगाल कहा जाता है जो धौलाधार के दक्षिण की ओर 10,000 फीट ऊंची एक पर्वत श्रेणी द्वारा दो हिस्सों में बांट दी जाती है। यह पर्वत श्रेणी बीड और कोमन्द के ऊपर से फताकाल होती मण्डी की ओर जाती है। इस पर्वत श्रेणी के पूर्व के भू-भाग को कोठीसोवार अथवा अन्दरला और बाहिरला बाढ गढ़ कहते हैं। इसी में अहल नदी का स्रोत है। इस इलाके में कनैत आदि लोगों के 18-19 गांव हैं जो निचले भाग में बिखरे हुए हैं। इसकी ढलानें बहुत तीखी हैं।

भंगाल की भौगोलिक स्थिति भी बड़ी दिलचस्प है। इसके उत्तर में लाहौल-स्पीति, उत्तर-पश्चिम में चम्बा और उत्तर पूर्व में कुल्लू जिला स्थित है। यहां तक पहुंचने के भी तीन रास्ते हैं। अगर कांगड़ा जिले के बीड से जाना हो तो 71 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। रास्ते में 15546 फीट ऊंचा थमसर दर्रा भी तय करना पड़ता है। दूसरा रास्ता चम्बा होते हुए है और 45 किलोमीटर का पैदल सफर है। तीसरा रास्ता कुल्लू जिले के पतलीकुहल से है। रास्ते में कालीहनी दर्रा लांघना पड़ता है। इतना कठिन और दुर्गम सफर तय करने के बाद जब सैलानी भंगाल पहुंचता है तो उसे प्रकृति का एक बिल्कुल नया और अछूता रूप दिखता है। सारी थकावट पल भर में छूमन्तर हो जाती है। ढलानों पर बने यहां के लोगों के रैन-बसेरे और जड़ी-बूटियों की महक सैलानी को किसी स्वप्नलोक में ले जाती है।

दुर्गम परिस्थितियों के बाद जब रावी नदी के किनारे पर बसे घाटी से बड़ा भंगाल गांव के सौंदर्य को देखने पर ऐसा लगता है मानो  जैसे

दुर्गम परिस्थितियों के बाद जब रावी नदी के किनारे पर बसे घाटी के बड़ा भंगाल

दुर्गम परिस्थितियों के बाद जब रावी नदी के किनारे पर बसे घाटी के बड़ा भंगाल

किसी आलौकिक दुनिया में कदम रख दिया हो। यह वहीं गांव है, जिससे कुछ फासले पर ही प्रसिद्ध रावी नदी का भी उद्गम स्थान है। यह गांव दो हिस्सों में बंटा हुआ है। इसमें एक हिस्सा पहाड़ी पर तो दूसरा हिस्सा रावी नदी के किनारे पर। आबादी करीब छह सौ। यहां के लोग बेहद सादा जीवन व्यतीत करते है। साल के छह माह तक इस गांव की आवाजाही बर्फ पड़ जाने से पूरी तरह से बंद हो जाती है। इस दौरान गांव के अधिकतर लोग बैजनाथ के बीड़ गांव में पलायन कर जाते हैं तथा उस दौरान बर्फ से घिरे इस गांव में महज 20-30 लोग ही रहते हैं। इनमें सबसे अधिक आंकड़ा उन बुजुर्ग लोगों का होता है, जो सड़क सुविधा न होने के कारण पैदल नहीं चल सकते। इस गांव में पिछले कुछ वर्षों से कुछ विकास तो हुआ है, लेकिन सड़क के बिना यह गांव आज भी अधूरा है। गावं के अधिकतर बुजुर्ग कभी इस घाटी से बाहर ही नहीं निकले हैं कई दशकों से वह इसी घाटी में रह रहे है। उनके लिए यहीं एक दुनिया है और वो इसी दुनिया में खुश है।

  • दो भागों में बंटा है भंगाल

भंगाल दो भागों में बंटा है। ऊपर के क्षेत्र को स्थानीय लोग ‘ग्रां’ कहते हैं और नीचे बसा गांव ‘फाली’ कहलाता है। ‘ग्रां’ की प्राचीनता निर्विवाद है। फाली बाद में आबाद हुआ है। क्षेत्र के वयोवृद्ध बताते हैं कि भंगाल का पूरा क्षेत्र 204 वर्गमील है। यहां के सभी वाशिंदे कनैत राजपूत हैं। अलग-अलग आठ खानदानों के ये राजपूत अलग-अलग स्थानों से यहां आकर बसे हैं। भंगालिये राजपूत सबसे पहले बंगाल से यहां आकर बसे। उसके बाद लाहौर से हुदिये राजपूत आये। हिमाचल की कांगड़ा घाटी अपने नैसर्गिक सौन्दर्य के लिये ही नहीं मशहूर है, अपितु हिमशिखरों पर बने देवालयों, भोले-भाले लोगों, अनूठी धार्मिक परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अनमोल प्राकृतिक सम्पदा के लिये भी विख्यात है। यहां एक बार आया सैलानी बार-बार आने को लालायित रहता है। वैसे तो इस घाटी में ऐसे अनेक स्थल हैं जो सैलानियों को मोह लेते हैं लेकिन जहां तक भंगाल घाटी का सवाल है, यहां का सौन्दर्य दैवीय है और यहां एक बार की गई यात्रा की स्मृतियां उम्र भर के लिये मानस पटल पर अंकित हो जाती हैं।

  • बड़ा भंगाल कांगड़ा जिले की सबसे दुर्गम घाटी

भंगाल कांगड़ा जिले की सबसे दुर्गम घाटी है और सरकारी कर्मचारी इसे कालापानी तक कह देते हैं क्योंकि यहां अधिकतर क्षेत्रों में न तो सड़क मार्ग हैं और न ही जीवन की भौतिक सुविधाएं। वैसे भी बर्फबारी के कारण साल में पांच महीने इस घाटी का सम्पर्क शेष दुनिया से कटा रहता है। घाटी में यातायात के साधन नाममात्र के हैं, अतः सैलानियों का सैलाब तो यहां नहीं उमड़ता लेकिन रोमांच प्रेमी पर्यटक, घुमक्कड और पर्वतारोहण के शौकीन यहां अक्सर दस्तक देते रहते हैं।

  • घाटी के दर्शनीय स्थल

भंगाल कांगड़ा जिले की सबसे दुर्गम घाटी

भंगाल कांगड़ा जिले की सबसे दुर्गम घाटी

पोलिंग, रूलिंग, नलौता, राजगुंदा, कुकडगुंदा, बड़ाग्राम और प्लाचक इस घाटी के दर्शनीय स्थल हैं। आकाश का सीना नापते हिमशिखर, झर-झर करते झरने, शीतल हवा के झौंके, तोष, कैल और रई के गगनचुम्बी वृक्ष बरबस ही मन मोह लेते हैं। सभी स्थल छह से दस हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित हैं और यहां का अस्सी फीसदी क्षेत्र जंगल से घिरा है। इन जंगलों से गुजरते हुए भेड़-बकरियों के झुण्ड के साथ गुजरते गडरिये भी मिलेंगे और दूर कहीं से उठती बांसुरी की मधुर तान भी सुनने को मिलेगी। जड़ी-बूटियां और लकड़ी चुनने आई हिमबालाओं के लोकगीतों के बोल भी पल भर के लिये ठिठकने को मजबूर कर देंगे।

  • घाटी के निराले विवाह संस्कार

इस घाटी के विवाह संस्कार निराले हैं। पचास फीसदी विवाह प्रेम-विवाह होते हैं जिन्हे ‘झंझराडा’ कहा जाता है। इस प्रथा के अन्तर्गत प्रेमी अपनी प्रेमिका को घर ले जाता है और घरवालों को इस शादी के लिये मान्यता प्रदान करनी पड़ती है। तयशुदा शादियां भी दूर-दराज नहीं होतीं अपितु साथ लगते गांवों में ही तय हो जाती हैं। आमतौर पर लड़के या लड़की की शादी इक्कीस वर्ष की उम्र तक हो जाती है। बिरले ही ऐसे युवक-युवतियां मिलेंगे जो पच्चीस वर्ष के हो जाने पर कुंवारे बैठे हों।

‘झंझराडा’ के अलावा विवाह की एक प्रथा ‘बट्टा-सट्टा’ नाम से है। इसके अन्तर्गत विवाह में लड़का पत्नी प्राप्त करने के लिये अपनी चचेरी या फुफेरी बहन को अपनी पत्नी के भाई से ब्याहता है। एक अन्य प्रथा ‘चोली-डोरी’ संस्कार है, जिसके अन्तर्गत अपने पति की मृत्यु के बाद विधवा स्त्री अपने जेठ या देवर (अगर वह कुंवारा हो) से विवाह कर लेती है। एक अन्य परम्परा ‘बरमाना विवाह’ है। ऐसे विवाह में कन्या का पिता लड़के से या फिर उसके मां-बाप से कुछ रुपये ले लेता है और निश्चित राशि मिलने पर अपनी कन्या उस घर में ब्याह देता है।

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