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ढालपुर मैदान में अद्भुत एवं अनूठे देवी-देवताओं का मिलन देखकर भावविभोर हो उठता है मन
श्री रघुनाथ जी की मूर्तियों को शिविर में रखा जाता है। देवता पुन: भगवान जी की वंदना कर अपने-अपने शिविरों को चले जाते हैं। ढालपुर मैदान का दृश्य देव-सम्मेलन की भांति प्रतीत होता है। देवी-देवताओं का आपस में मिलना, धूमल नाग का उग्र रुप तथा लोगों की उमड़ती भीड़ को नियंत्रित करना अपने आप में अद्भुत एवं अनूठा उदाहरण है। चौथे पहर में भगवान जी की आरती कर लोगों के दर्शनार्थ रखा जाता है। इन सात दिनों में पूजा का समय एवं विधि मंदिर की भांति ही रहती है। वादक इस समय वाद्य-यंत्रों में विशेष ताल बजाते हैं। इसमें विशेषता यह है कि प्रत्येक देवता के वाद्य-यंत्रों की धुन भिन्न-भिन्न होती हैं। कुल्लू शहर का समूचा वातावरण संगीतमय हो जाता है।
शोभायात्रा आने पर वाद्य-यंत्रों की मधुर ध्वनियों से गूंज उठता है मंदिर प्रांगण
श्री रघुनाथ जी के शिविर में संध्या आरती के समय रासलीला होती है। कान्हा और गोपियों की वेशभूषा में पुरुष पात्र ही रहते हैं। तत्पश्चात् नोपत और शहनाई की धुन पर लोगों के मनोरंजन के लिए चंद्राउली नृत्य रासलीला होती है। दोपहर के बाद राजा सुखपाल में बैठकर कुछ देवताओं के साथ ढालपुर मैदान की परिक्रमा करता है, जिसे ‘जलेव’ कहते हैं। स्वतंत्रता से पहले प्रतिवर्ष इन सात दिनों में एक दिन रघुनाथ जी की अध्यक्षता में देवताओं का सम्मेलन ‘जगती-पूच्छ’ के नाम से होता था। देवताओं के कारदार तथा गूर घौण्डी-धड़छ (पंजा की घंटी तथा धूप रखने का बर्तन) लेकर इस सम्मेलन में भाग लेते थे। वर्ष की सामूहिक समस्याओं पर विचार किया जाता था परंतु अब कभी-कभी ऐसा आयोजन किया जाता है। छठे दिन दोपहर के बाद ‘देव-दरबार’ का आयोजन होता है। शंखनाद, छने, शहनाई और नोपत वाद्य-यंत्र बजाए जाते हैं। पुजारी तथा राजा उस देवी रुप शक्ति की पूजा करते हैं। सातवें दिन का मेला लंका के नाम से प्रसिद्ध है। इस दिन की देव कार्यवाही देवी हिडिंबा के पहुंचने पर ही आरंभ होती है। देवी-देवता की पालकियां रघुनाथ जी के रथ के पास एकत्रित हो जाती हैं। सीता जी की मूर्ति को छोडक़र सभी मूर्तियां रथ में रख दी जाती हैं। पुन: रथ को खींच कर मैदान के अन्तिम छोर तक बड़े जोश में लाया जाता है। वाद्य-यंत्रों पर युद्ध में जाते समय उतेजित करने वाली धुन बजाई जाती है।
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उत्सव का मुख्य आकर्षण ‘कुल्लुवी नाटी’