हिमाचली धाम नहीं है आम

नहीं है आम म्हारी… हिमाचली “धाम”

ऊना में सामूहिक भोज को कुछ क्षेत्रों में धाम कहते हैं, कुछ में नहीं। पहले यहां नानकों, मामकों (नाना, मामा की तरफ से) की धाम होती थी। यहां पतलों के साथ दोने भी दिए जाते हैं विशेषकर शक्कर या बूरा परोसने के लिए। यहां चावल, दाल चना, राजमा, दाल माश खिलाए जाते हैं। दालें वगैरह कहीं-कहीं चावलों पर डलती है कहीं अलग से। यहां सलूणा (कढ़ीनुमा खाद्य, इसे बलदा भी कहते हैं) खास लोकप्रिय है। यह हिमाचली इलाका कभी पंजाब से हिमाचल आया था सो यहां पंजाबी खाने-पीने का खासा असर है।

खाने के लिए दिए गए पत्तल

खाने के लिए दिए गए पत्तल

बिलासपुर क्षेत्र में उड़द की धुली दाल, उड़द, काले चने खट्टे, तरी वाले फ्राइ आलू या पालक में बने कचालू, रौंगी (लोबिया), मीठा बदाणा या कद्दू या घिया के मीठे का नियमित प्रचलन है। समृद्घ परिवारों ने खाने में सादे चावल की जगह बासमती, मटर पनीर व सलाद भी खिलाना शुरू किया है। सोलन के बाघल (अर्की) तक बिलासपुरी धाम का रिवाज है। उस क्षेत्र से इधर एकदम बदलाव दिखता है। हलवा-पुरी, पटांडे खूब खाए खिलाए जाते हैं। सब्जियों में आलू गोभी या मौसमी सब्जी होती है। मिक्स दाल और चावल आदि भी परोसे जाते हैं। यहां खाना धोती पहन कर भी नहीं परोसा जाता है।

मण्डी क्षेत्र के खाने की खासियत है सेपू बड़ी, जो बनती है बड़ी मेहनत से और खाई भी बड़े चाव से जाती है। यहां मीठा (मूंगदाल या कद्दू का), छोटे गुलाब जामुन, मटर पनीर, राजमा, काले चने (खट्टे), खट्टी रौंगी (लोबिया) व आलू का मदरा (दही लगा) व झोल (पकौड़े रहित पतली कढ़ी) खाया व खिलाया जाता है। कुल्लू का खाना मंडीनुमा है। यहां मीठा (बदाणा या कद्दू), आलू या कचालू (खट्टे), दाल राजमा, उड़द या उड़द की धुली दाल, लोबिया, सेपू बड़ी, लंबे पकौड़ों वाली कढ़ी व आखिर में मीठे चावल खिलाए जाते हैं।

किन्नौर की दावत में शराब व मांस का होना हर उत्सव में लाजमी है। हालांकि शाकाहारी बढ़ रहे है, इसलिए यहां बकरा कटता ही है। खाने में चावल, पूरी, हलवा, सब्जी (जो उपलब्ध हो) बनाई जाती है। लाहौल-स्पीति का माहौल ज्यादा नहीं बदला। वहां तीन बार मुख्य खाना दिया जाता है। चावल, दाल चना, राजमा, सफेद चना, गोभी आलू मटर की सब्जी और एक समय भेडू (नर भेड़) का मीट कभी फ्रायड मीट या कलिचले। सादा रोटी या पूरी (भटूरे जैसी जिसके लिए रात को आटा गूंथ कर रखते हैं) खाते हैं। परोसने के लिए कांसे की थाली, शीशे या स्टील का गिलास व तरल खाद्य के लिए तीन तरह के प्याले इस्तेमाल होते हैं। नमकीन चाय, सादी चाय व सूप तीनों के लिए अलग से।

धाम तैयार करते बोटिये

धाम तैयार करते बोटिये

सिरमौर प्रदेश भर में अपने पारंपरिक व्यंजनों के लिए मशहूर है। यहां पर दिवाली आदि पर्वों पर ये पकवान बनाए जाते हैं। जिला की विशेष व स्वादिष्ट डिश असकली की बात की जाए तो यह पत्थर के विशेष आकार के सांचे में तैयार की जाती है। इस सांचे को असकली का पत्थर कहा जाता है, जिसमें कटोरी के आकार के सात, पांच या नौ खाने होते हैं।

गेहूं व चावल के आटे का घोल इन सांचों में भरकर पारंपरिक चूल्हे पर पकाया जाता है। इस प्रकार सात या नौ असकली एक ही बार में तैयार हो जाती है, जिसे राजमांश, उड़द की दाल या शहद के साथ खाया जाता है। गिरिपार के सभी क्षेत्रों में यह पकवान बनाया जाता है। पहाड़ी डोसा कहलाने वाला पटांडे भी सिरमौर की विशेष डिश है। इसे बनाने के लिए आटे का पतला घोल तैयार किया जाता है, जिसे बड़े तवे पर सफाई से फैलाकर पकाया जाता है। यह पहाड़ी डोसा पटांडे अकसर दाल व मीठे भोजन दोनों के साथ परोसे जाते हैं। सिरमौर का पारंपरिक व्यंजन धरोटी-भात बहुत ही स्वादिष्ट होता है। इसे भाप में तैयार किया जाता है। उड़द की दाल को भिगोकर उसका छिलका उतारने के बाद उसे सीलबट्टे पर पीसा जाता है फिर उसमें नमक, मिर्च, मसाला, अदरक, लहसुन आदि मिलाया जाता है।

पतली लकडिय़ों से एक बरतन में सांचा तैयार किया जाता है, फिर एक दो धरोटी को पत्ते पर रखकर इस सांचे पर रखा जाता है और भाप में पकाया जाता है। इसे चावल के साथ परोसा जाता है। दिवाली के मौके पर जिला में बिलोई को विशेष रूप से बनाया जाता है। इसे लस्सी व चावलों को उबालकर केले के पत्तों में दाब विधि से तैयार किया जाता है तथा गुड़ के रस के साथ परोसा जाता है। शादी में बकरे का मीट भी लाजमी है। आज के आधुनिक युग में जहां फास्ट फूड का प्रचलन बढ़ चला है, वहीं पुरानी पीढ़ी ने पारंपरिक व्यंजनों को भी सहेज कर रखा है। इस बदलाव के जमाने में जहां हमने अपनी कितनी ही सांस्कृतिक परंपराओं को भुला दिया है, वहीं हिमाचली खानपान की समृद्ध परंपरा बिगड़ते-छूटते भी काफी हद तक बरकरार है।

पंक्ति में बैठकर धाम खाते लोग

पंक्ति में बैठकर धाम खाते लोग

हालांकि आज बहुत सा बदलाव हमारे रीति-रिवाजों, परम्पराओं में भी हुआ है लेकिन आज भी ज्यादातर हिमाचल में धर्म-आस्था, शादी-ब्याह, त्यौहार, उत्सव, अन्य मांगलिक कार्य, लोक संस्कृति मेलों आदि में हमारी परम्पराएं जीवित हैं। ये हमारे बुजुर्गों की पुराणिक परम्पराए, रीति-रिवाज हैं। जो हमेशा से कायम हैं और रहेंगे। इन्हीं से हमारे हिमाचल की ख़ास पहचान है न केवल देशों में अपितु विदेशों में भी।

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