कोई भी अच्छी चीज बुरी बन सकती है और उसके लाभ हानियों में बदल सकते हैं। ऐसा ही कुछ मोबाइल और टी.वी. के साथ भी हुआ है “टेलीविजन” जिसे आम भाषा में हम बुद्धु बक्सा भी कहते हैं। यह एक बुद्धु बक्सा ही तो है जिसके आगे बैठकर हम अपनी पूरी दिनचर्या तक भूल जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने माना है:-कि
- मोबाइल और टी.वी. देखने से स्मरण शक्ति भी होती है कमजोर
अधिक समय तक मोबाइल और टेलीविजन देखने से बच्चों की आंखों पर ही नहीं मस्तिष्क पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, जो लाईलाज है। सैंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ विहेवियरल साईंस के अध्ययनों ने स्पष्ट कर दिया है कि मोबाइल और टी.वी. विकरण से बच्चे का बायीं ओर का मस्तिष्क निष्क्रिय तथा दायीं ओर का मस्तिष्क सक्रिय हो जाता है। मस्तिष्क के इन दोनों भागों में असंतुलन से शरीर में सुस्ती आती है। स्मरण शक्ति कम हो जाती है तथा मस्तिष्क की एकाग्रता व सहनशीलता भी प्रभावित होती है। लगातार मोबाइल और टी.वी. के आगे जमे रहने वाले बच्चों की आंखों पर छोटी उम्र में ही चश्मा चढ़ जाता है इसी चश्में की हीनभावना के कारण कितने ही छात्रों का व्यक्तित्व कुंठित हो कर रह जाता है, क्योंकि वे चश्मूदीन, चश्मीश, और बौड़म जैसे नामों से पुकारे जाते हैं। चेहरे की सुंदरता तो प्रभावित होती ही है, वे खेल प्रतियोगिताओं में भी खुलकर हिस्सा नहीं ले पाते क्योंकि उन्हें सदा अपने चश्में के टूटने या गिरने का भय बना रहता है। हालांकि चश्में का एक विकल्प है कांटेक्ट लैंस किंतु इसके प्रयोग में भी काफी सावधानी बरतनी पड़ती है।
ज्यदातर बढ़ता मोटापा टीवी और मोबाइल की देन
टीवी और मोबाइल के आगे बैठने वाले बच्चों को भूख महसूस ही नहीं होती क्योंकि दिन भर बैठे रहने से उर्जा का क्षय नहीं होता और वे भूख न होने पर भी टीवी और मोबाइल के आगे बैठे-बैठे चिप्स, चॉकलेट, बिस्कुट व नमकीन आदि वस्तुएं खाते रहते हैं। एक सर्वेक्षण से पता चला है कि स्कूलों में 18 फीसदी छात्र व 16 फीसदी छात्राएं असामान्य वजन की हैं। बढ़ता मोटापा इसी टीवी और मोबाइल की देन ही तो है। चटपटे विज्ञापनों में दिखाए गए खाद्य पदार्थों के पीछे दीवाने होकर बच्चे सादे भोजन को नकार देते हैं और शरीर पर बढ़ती चर्बी अनेक रोगों को जन्म देती है।
जो बच्चा स्कूल से आने के बाद लगातार टीवी से चिपका रहेगा। उसके स्वास्थ्य के विषय में क्या चर्चा करें। पार्क, गली-मुहल्ले में खेलने वाले बच्चों का प्रतिशत दिन व दिन घटता जा रहा है। किसी लोकप्रिय फिल्म या धारावाहिक के समय प्राय: पार्क व गलियां सुनसान दिखाई देते हैं। टीवी से बचा समय मोबाइल,कंप्यूटर व नेट ले लेता है। इस तरह यह पोटैटो काउच स्वस्थ शरीर की परिभाषा भूलकर आलस की प्रतिमूर्ति बन जाते हैं।
परिवार के बीच बीतने वाले हंसी-खुशी के पलों को टी.वी. के साथ गुजरता है। जब दोपहर या रात के भोजन के समय पूरा परिवार एकत्र होता है तो खाना खाते समय सबकी नजरें टी.वी. या फिर मोबाइल पर गड़ी रहती हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार परिवार के लिए आपस में दिन भर की घटनाओं पर चर्चा करने का रात के खाने के वक्तका समय सबसे उपयुक्त समय है परंतु बात अब हैलो-हाय से आगे नहीं बढ़ पाती। जिन घरों में सबके शयनकक्षों में टी.वी. है वहां तो हालात और भी बदतर है।
टी.वी. देखने वाले बच्चे अपनी-अपनी रूचि के अनुसार कार्यक्रम देखते हैं व उनसे प्रेरणा लेते हैं। अब इसे प्ररेणा कहें या कुछ और….?