हिमाचल: किन्नौर जनपद की विवाह परंपरा, शादी में न तो मंडप बनाया जाता है, और न ही अग्नि के लिए जाते हैं फेरे
हिमाचल: किन्नौर जनपद की विवाह परंपरा, शादी में न तो मंडप बनाया जाता है, और न ही अग्नि के लिए जाते हैं फेरे
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निचले किन्नौर में जब बारात तोरण द्वार (गेट) के पास पहुँचती है तो वहाँ उसका स्वागत करने के लिए लड़कियाँ फूल इत्यादि लेकर खड़ी रहती हैं। उस समय एक खड्डू (मेढ़े) की बलि दी जाती है। उस पर जल छिड़कर बाद में छोड़ दिया जाता है।
‘माज़ोमी’ लड़की का हाथ पकड़कर सबसे आगे चलता है। घर के मुख्य द्वार पर दूल्हे की माँ अपने किसी रिश्तेदार के साथ दुल्हन का स्वागत करने व गृह प्रवेश कराने के लिए खड़ी होती है। उसके हाथ में गेहूँ या जौ के दाने से भरी एक थाली होती है, जिनके बीच में प्रज्वलित दीया सजा होता है। वह दुल्हन की आरती उतारती है और थाली को उसके घुटनों के नीचे चारों ओर घुमाती है। उसके पश्चात् वे दोनों थाली को पकड़कर घर में प्रवेश करती हैं।
निचले किन्नौर में ‘रिश्ता बदलना’ जबकि ऊपरी किन्नौर में ‘बीतोगिरजा’ कहते हैं
पूह मंडल में जब दरवाज़े के पास लामा पूजा करके हट जाता है तो ‘फक्ठिदा’ (साथी) दुल्हन को अपनी पीठ पर उठा लेता है। दुल्हन को इस समय लाल शाल पहनाई जाती है। जब दुल्हन को पीठ पर उठाया जाता है तो वह दरवाज़े के ऊपर तीन अलग-अलग जगहों पर जौ का आटा लगाती है। यदि वह आटा अगले दिन तक टिका रहे तो इसे सौभाग्यशाली माना जाता है। स्पीति के सीमावर्ती गाँवों में जो पाँच लोग माज़ोमी होते हैं, वही दुल्हन को अंदर लेकर जाते हैं और उसे बैठक में बैठी उसकी सास के साथ बिठाते हैं। अंदर आकर जब सभी लोगों को चाय-पानी दे दिया जाता है तो दुल्हन द्वारा एक रस्म निभाई जाती है, जिसे निचले किन्नौर में ‘रिश्ता बदलना’ कहा जाता है, जबकि ऊपरी किन्नौर में इसे ‘बीतोगिरजा’ कहते हैं।
सर्वप्रथम लड़के को मामा बाँधता है पाग (पगड़ी), तदुपरांत अन्य सगे-संबंधी तथा गाँव के लोग देते हैं शगुन
जिस दिन दुल्हन को ब्याह कर लाया जाता है, उस दिन पूरी रात गाना-बजाना चला रहता है। दूसरे दिन एक रस्म निभाई जाती है, जिसे निचले किन्नौर में ‘बैल्डङ्’ और ऊपरी किन्नौर में ‘धोदू’ कहते हैं। इसके साथ-साथ एक रस्म और होती है, जिसे ‘बीतोपोनो’ कहते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि बीतोपोनो की रस्म छोटी शादी में भी निभाई जाती है। ‘बैल्डङ्’ में लोग दूल्हे को रुपये, उपहार, कपड़े आदि देते हैं। इसके लिए एक खुले स्थान पर वर-वधू, दूल्हे के माता-पिता व सगे-संबंधी बैठते हैं। ‘बैल्डङ्’ रस्म प्रायः दोपहर के बाद होती है। निचले किन्नौर में लड़के को सर्वप्रथम उसका मामा पाग (पगड़ी) बाँधता है और पैसे देता है। तदुपरांत अन्य सगे-संबंधी तथा गाँव के लोग शगुन देते हैं।
स्पीति के सीमावर्ती गाँवों में मामा नहीं बाँधता पाग
हार अथवा हारी किन्नौर में प्रचलित शादी
पूह मंडल में ‘योद्’ की रस्म आँगन या घर की छत पर निभाई जाती है। सबसे पहले दूल्हे का मामा उसे पगड़ी पहनाता है। उसके बाद बहन शगुन लगाती है और फिर अन्य लोग। स्पीति के सीमावर्ती गाँवों में मामा द्वारा पाग नहीं बाँधी जाती है, शेष कार्य एक समान ही हैं। पुराने समय में इस प्रकार की शादी होती थी अब बहुत ही कम या न के बराबर इस प्रकार की शादी होती है। हार अथवा हारी किन्नौर में प्रचलित शादियों में यह एक अपनी ही तरह की शादी है, जिसमें यदि किसी लड़की के माँ-बाप ने उसकी शादी किसी ऐसे लड़के के साथ कर दी, जो उसे पसंद न हो और बाद में उसे कोई दूसरा लड़का पसंद आ जाए तो वह उससे शादी कर लेती है। इसकी सूचना वह पहले ही अपने पूर्व पति को दे देती है। इसमें लड़की जिस दूसरे लड़के के साथ शादी करती है, वह पहले वाले पति को उसकी शादी पर खर्च हुई सारी राशि को अदा करता है। इस शादी को भी पूरा सम्मान दिया जाता है।
बौद्ध धर्म का प्रभाव ऊपरी किन्नौर में अधिक
उल्लेखनीय है कि यहाँ के लोग भेड़-बकरी पालन व्यवसाय के संबंध में हिमाचल तथा तिब्बत के क्षेत्रों में आते-जाते रहे हैं, जिस कारण यहाँ के आदिम रीति-रिवाजों और विवाह आदि संस्कारों पर हिंदू तथा बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ता गया, जिसका वर्णन निम्न प्रकार से है :-
हिंदू धर्म का प्रभाव : प्राचीन समय में किन्नर क्षेत्र की महिलाएँ अपने माथे पर न तो किसी प्रकार की बिंदी लगाती थीं और न ही सिंदूर का तिलक, परंतु वर्तमान समय में निचले किन्नौर में इनका प्रचलन आरंभ हो गया है। साथ ही महिलाएँ वर्तमान में माँग भरने लगी हैं। ऊपरी किन्नौर में यह प्रथा नाममात्र की है।
वर्तमान समय में शादी के अवसर पर दुल्हन हाथ और पाँव में मेहंदी लगाती है, जो हिंदू धर्म का ही प्रभाव है। कहीं-कहीं दूल्हा भी शादी के अवसर पर मेहंदी लगाता है। निचले किन्नौर में विवाह के अवसर पर दूल्हा अब सेहरा लगाता है, जो हिंदू धर्म का ही प्रभाव है, जबकि यहाँ पहले पगड़ी बाँधी जाती थी। शादी के अवसर पर दूल्हा पारंपरिक पोशाक पहनता था, लेकिन वर्तमान समय में निचले किन्नौर में कुछ जगहों पर पेंट-कोट का प्रचलन आरंभ हो गया है। बौद्ध धर्म का प्रभाव ऊपरी किन्नौर में अधिक है। निचले किन्नौर में इसका प्रभाव नाममात्र का ही है। ऊपरी किन्नौर में विवाह के अवसर पर बौद्ध धर्म के जो प्रभाव देखने को मिलते हैं, वे इस प्रकार से हैं:-
जैसा कि अन्यत्र कहा गया है विवाह का मुहूर्त लामा निकालता है और वही यह भी बताता है कि दूल्हे के लिए किस रंग का घोड़ा होना चाहिए। वह बारात के साथ जाता है। यदि बारात घोड़ों पर जा रही हो तो सबसे पहले घोड़े पर लामा ही चढ़ता है और सबसे आगे भी वही होता है। रास्ते में देवता के थान पर पूजा भी लामा ही करता है।
विवाह संबंधी कुछ अन्य सांस्कृतिक शब्दावली लिए किस रंग का घोड़ा होना चाहिए। यदि बारात घोड़ों पर जा रही हो तो सबसे पहले घोड़े पर लामा ही चढ़ता है। रास्ते में देवता के थान पर पूजा भी लामा ही करता है।
किन्नौर की किसी भी प्रकार की शादी में न तो मंडप बनाया जाता है, और न ही अग्नि के फेरे लिए जाते हैं
विवाह संबंधी कुछ अन्य सांस्कृतिक शब्दावली
दुल्हन की ओर से जो लोग आते हैं, उन्हें ‘जानेया’ कहते हैं।
‘बैल्डङ्’ या ‘थोद्द’ के पश्चात् जब सभी चले जाते हैं तो लड़के के कुछ उस दिन वहीं रहते हैं। इन्हें ‘असपने’ कहा जाता है।
दुल्हन की सखी को निचले किन्नौर में ‘तेम्म कोनेस’ कहते हैं।
पुल पार करने के लिए दुल्हन पक्ष के पुरुष ‘माज़ोमी’ से पैसे लेते हैं, जिन्हें कुछ और पैसे डालकर दुल्हन के ‘उदानङ’ में दिया जाता है।
तीन फेर वाले ‘माला नृत्य’ के समय पूजा की जाती है, जिसे ‘हुरकोरड’ करते हैं।
पुल के पास जो खड्डू (मेढ़ा) काटा जाता है, उसको ‘छमखाच’ कहते हैं। हालांकि अब ये प्रचलन सपाप्त हो चुका है।
दुल्हन जब तोरण लांघती है तो उस समय खड्डू काटते हैं, जिसे ‘जणेश आएस’ कहते हैं।
‘बैल्डङ्’ या ‘थोद्’ के बाद जब दुल्हनन पक्ष के लोग अपने घर वापिस जाते हैं उस रात ‘माज़ोमी’ के घर ठहरते हैं। माज़ोमी जो खाना उन्हें खिलाता है, उसे मयटड जामू’ कहा जाता है। इसका ख़र्च वर पक्ष का होता है। अब यह प्रथा कुछ क्षेत्रों में रह गई है।
‘उदानङ’ का जो पैसा इकट्ठा होता है, वह ‘माज़ोमी’ को दिया जाता है। इस पैसे को ‘माज़ोमी’ एक साल तक ख़र्च कर सकता है। उसके बाद ये पैसे दुल्हन की ससुराल वालों को दिए जाते हैं।
लड़के के घर से लड़की के घर एक कपड़ा जाता है, जिसे ‘पोक्शालिङ’ कहते हैं। यह इसलिए दिया जाता है कि यदि लड़की के माँ-बाप में से कोई मर जाए और वह उनकी अंत्येष्टि से पहले न पहुँच पाए तो इस कपड़े को लड़की की ओर से शव पर डाला जाता है।
जब बारात निकलती है तो भूत-प्रेतों के लिए ‘पोल्टू’ (एक पकवान) आदि ले जाते हैं, जिसे ‘छाकड’ कहते हैं।
यदि दुल्हन को ‘माज़ोमी’ लाता है तो इसे ‘बरमी खुबमो’ कहा जाता है।
किन्नौर की किसी भी प्रकार की शादी में न तो कोई मंडप बनाया जाता है और न ही अग्नि आदि के फेरे लिए जाते हैं।
किन्नौर क्षेत्र में लड़कियों को एक विशेष अधिकार प्राप्त है, जिसे ‘कोरङ् पोलठामो’ कहा जाता है। इसके अंतर्गत यदि किसी लड़की की शादी ऐसे लड़के से तय कर दी जाए, जो उसे पसंद न हो तो वह अपनी सखी की सहायता से लड़के के घर से शगुन के रूप में आए पैसे और ‘कोर’ की बोतल लड़के के घर या ‘माज़ोमी’ के पास वापस पहुँचा देती है और शादी की बात टूट जाती है। इसके पश्चात् इस विषय पर कोई बातचीत नहीं होती।
अंत में यह कहा जा सकता है कि किन्नौर में विवाह संस्कार एक विचित्र एवं भिन्न प्रकार की विशेषताओं से संपन्न है, परंतु आधुनिकता की छाया निचले किन्नौर में प्रविष्ट हो गई है और वह धीरे-धीरे अपने पाँव पसार रही है, जो इस क्षेत्र की संस्कृति को विलुप्त कर रही है। अतः आधुनिकता की प्रगति के साथ-साथ यह आवश्यक है यहाँ की समृद्ध संस्कृति को सहज कर रखा जाए।