पुरानी पहाड़ी रियासत के आपसी संबंध और सीमा विवाद "बुशैहर"

हिमाचल इतिहास: पुरानी पहाड़ी रियासत के आपसी संबंध और सीमा विवाद “बुशैहर”

शिमला की पहाड़ी रियासतों में सबसे बड़ी रियासत बुशैहर ”बशहर”

शिमला की पहाड़ी रियासतों में सबसे बड़ी रियासत बुशैहर ''बशहर''

हिमाचल प्रदेश का अपना प्राचीन इतिहास रहा है। वहीं अगर पुरानी पहाड़ी रियासतों  के आपसी संबंध और सीमा विवाद की बात की जाए तो वो भी अपने आप में विशेष रहा है। जिसके लिए कई अपने वशं क्रम में सबसे शक्तिशाली योद्धाओं की अपनी खास विशेषता और कहानी है। आज हम जानकारी देने जा रहे हैं  आपको शिमला की पहाड़ी रियासतों में बशहर यानि “बुशैहर” की। जिसे प्राचीन समय में बशहर के नाम से जाना जाता था और वर्तमान में “बुशैहर” के नाम से विख्यात है।

शिमला की पहाड़ी रियासतों में बशहर “बुशैहर” सबसे बड़ी रियासत

राजवंश छोटे-छोटे ठाकुराईन के मुख्य के रूप में शक्ति में आया

शिमला की पहाड़ी रियासतों में बशहर “बुशैहर”जो सबसे बड़ी है। इसके उत्तर में स्पीति, पूर्व में तिब्बत दक्षिण टिहरी गढ़वाल, पश्चिम में जुब्बल, कोटखाई, कुमारसैन, कोटगढ़ और कुल्लू के छोटे-बड़े राज्य हैं। यह क्षेत्र सतलुज का पात्र है। दो पर्वत श्रेणीयों का पानी सतलुज में आता है। जिनकी चोटियों की ऊंचाई 16 हजार फुट से 22 हजार फुट तक की है। इसमें 8 हजार फीट बसपा घाटी है। दो मुख्य नदियां सतुलज और पवार इसमें बहती है। बसपा बहुत सुंदर रमणीय घाटी है। बशहर के ऊपर के भाग को कनावर कहते हैं। शेष कोचि कहलाता है। इसकी तीन तहसीलें हैं चीनी, रामपुर, रोहड़ू हैं। चीनी वर्षा बहुत कम होती है।

राजवंश छोटे-छोटे ठाकुराईन के मुख्य के रूप में शक्ति में आया । राजा चतुर सिंह ने जो प्रद्युम्न से 110 वीं पीढी में हुआ आज की समुचित रियासत को गठित किया। उस समय शिमला की तीन पहाड़ी रियासतों बिलासपुर, सिरमौर और बशहर में बशहर के राजा चतुर सिंह अधिक शक्तिशाली थे।

जहां भी केहरी सिंह जाता था एक छोटे बादल की टुकड़ी छत्र के रूप मेें सूर्य की किरणों से उसकी रक्षा के लिए साथ चलती थी

राजा केहरी सिंह: प्रद्युम्न से 113वीं पीढ़ी में केहरी सिंह हुआ। यह अपने वशं क्रम में सबसे शक्तिशाली योद्धा था। इसके बारे में कई कहानियां प्रसिद्ध हैं। उसे अजानुवाकू कहते थे। क्योंकि वह खड़ी अवस्था में अपने हाथों से अपने जानुओं को छू सकता था। कहते हैं। एक मुंगल बादशाह ने पहाड़ी राजाओं का दरबार लगाया। उसमें राजा केहरी सिंह भी उपस्थित था। लोगों ने विस्मय देखा कि जहां भी केहरी सिंह जाता था एक छोटे बादल की टुकड़ी छत्र के रूप मेें सूर्य की किरणों से उसकी रक्षा के लिए साथ चलती थी। बादशाह ने भी यह बात सुनी और राजा ने बतलाया कि यह अपने राज्य के देवी-देवताओं की उस पर कृपा दृष्टि के कारण है। बादशाह बड़ा प्रसन्न हुआ और कहा ओ राजा साहिब आपको खुदा के घर से छत्र मिला है इस लिए आपको छत्रपति खिताब दिया जाता है। राजा को खिल्लत दी।

राजा केहरी सिंह ने सिरमौर, गढ़वाल, मंडी और सुकेत के राजाओं को कर देने पर मजबूर किया। और क्यूंथल, कोटखाई, कुमारसैन, बालसन, थ्योग, दरकोटी आदि के छोटे-छोटे राजाओं को परास्त किया। और तिब्बत के शासक को व्यापारी संधि के लिए बाध्य किया जो अभी तक प्रचलित थी।

राजा राम सिंह-यह वंशक्रम में 116वां राजा था। इसने अपनी राजधानी रामपुर को बनाया। उसके काल में कुल्लू के साथ विनाशकारी युद्ध आरंभ हुआ। इसके और दो राजाओं के काल में बशहर के हाथों से राजा केहरी सिंह द्वारा विजित इलाके हाथ से निकल गए।

1803-1815 तक बशहर के बड़े भाग पर गौरखों ने किया कब्जा

गोरखा आक्रमण: 1803-1815 तक बशहर के बड़े भाग पर गौरखों ने कब्जा कर लिया। उन्होंने हट्टूधार के साथ किलों की एक पंक्ति खड़ी कर दी। हट्ट, कुरान, बघाडे, नावगढ़, बाहली व रामपुर आदि को लूट लिया और राज्य के सभी पुरालेख और कागज़ात नष्ट कर दिए। आक्रमणकारी कनावर पर अधिकार नहीं कर सके। उनको राजग्राओं परगना में रात के हमले में कनवारियों के हाथों मार खानी पड़ी। फतहेराम वज़ीर ने भी उनके साथ एक चाल चली, पत्थरों से भरकर संदूक खज़ाना बतलाकर उन्हें टरका दिया।

 अंग्रेज कंपनी ने 6 नवंबर, 1815 को राजा महेद्र सिंह जो अभी अव्यसक था, सनद देकर उसके सारे इलाका, सिवाय राविन और कोटगढ़ के राजा की उपाधि की पुष्टि कर दी

1814 के अंत में अंग्रेजों ने गोरखों के विरूद्ध युद्ध घोषित किया। पहाड़ के लोगों का भी गोरखों को निकालने का उत्साह बढ़ गया। गोरखा सेना का सेनापति कीर्तिराणा था। अंग्रेजी सेना और पहाड़ी रियासतों के सैनिक टुकडिय़ों के विश्वघात से उसे समर्पण करना पड़ा। राईनगढ़ का किला सेनापति रंजूर थापा था। बशहर के और जुब्बल के सैनिकों ने गोरखों को घेर लिया। अंग्रेज सैनिक टुकड़ी का कमांडऱ फरेजर भी पहुंच गया। यहां उसे एक ऐसा यंत्र-विन्यास जो बशहर से आया था, लकड़ी और रस्सियों से बना था, जिसे सौ-दो सौ आदमी खींचकर चलाते थे, देखने को मिला। उसके द्वारा बड़े-बड़े पत्थर दूर तक शत्रु पर फैंके जा सकते थे, बशहर में इसका प्रयोग घेरा ड़ालने के लिए कई वर्षों से होता था। इसे ढि़ंग कहते थे। बशहरी सेना 3000 सैनिकों की जो तोड़ेदार बंदूकों और तीरकमान से युक्त थी।, ने गोरखों को निकाला, परास्त किया। अंग्रेज कंपनी ने 6 नवंबर, 1815 को राजा महेद्र सिंह जो अभी अव्यसक था, सनद देकर उसके सारे इलाका, सिवाय राविन और कोटगढ़ के राजा की उपाधि की पुष्टि कर दी। सनद में बशहर का राज्य सौंपने के साथ 15000 रूपये लगान देने की शर्तें लगाई। राईनगढ़, राईन परगना ब्रिटिश राज्य में शामिल कर लिए गए। कोटगढ़ और कुमारसेन स्वतंत्र घोषित किए गए और बशहर पर शर्त लगाई कि उसे युद्ध की स्थिति में अंग्रेजी सेना की सहायता करनी होगी।

1850 में राजा शमशेर सिंह, जो उस समय केवल 11 वर्ष का था, गद्दी पर बैठा

महेंद्र सिंह की अल्प व्यसकता काल में राजमाता ने वंशगत वज़ीरों के साथ शासन व्यवस्था देखी। व्यसक होने पर राजा महेंद्र सिंह कमजोर साबित हुआ। 1850 में राजा शमशेर सिंह, जो उस समय केवल 11 वर्ष का था, गद्दी पर बैठा। अल्पव्यसकता में प्रशासन मनसुखदास वजीर ने और शामलाल तहसीलदार नुरपूर ने संभाला।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों ने राजा शामासिंह के व्यवहार को संदेह की दृष्टि से देखा। उसने कोई सहायता भी नहीं दी। लार्ड विलियम जो पहाड़ी रियासतों का एजेंण्ड था, रामपुर को बाध्य करने के लिए सेना भेजना चाहता था, लार्ड लारेन्स ने किसी प्रकार की कार्यवाही न करने का मशवरा दिया।

1859 में राज्य में एक प्रकार का विद्रोह हुआ जिस का नेतृत्व राजा का सरतोड़ा भाई फतेह सिंह कर रहा था। इस विद्रोह का बशहर की भाषा में दूम कहते हैं। यह विशेष शिकायतें कुछ अधिकारों की मांग मनवाने के लिए की जाती हैं। इसका ढंग़ अपने घरबार छोडक़र पहाड़ पर डेरा ड़ाल कर होता था। जब तक उनकी मांगे नहीं मानी जाती थी वापस नहीं आते थे। दुख में भी हिंसा का प्रश्रेय नहीं लेते थे। इस “द्रूम” में नकद मालगुजारी को बंद करने की मांग थी जो मान ली गई।

1887 में शमशेर सिंह को राज्याधिकार अपने पुत्र रघुनाथ सिंह को देने के लिए बाध्य किया गया

1887 में शमशेर सिंह को राज्याधिकार अपने पुत्र रघुनाथ सिंह को देने के लिए बाध्य किया गया। उसने राज्य व्यवस्था अच्छे ढंग से की। टिक्का रघुनाथ सिंह की मृत्यु पर रायसाहिब मंगतराम को मुख्य मंत्री बनाकर भेजा।

1806 की गर्मियों में रोहड़ू तहसील के दोदराव्कार परगना में गड़बड़ हुई। पुलिस की एक टुकड़ी असिस्टेण्ड कामिशनर, शिमला के अधीन भेजी। परंपरागत वजीर रणबहादूर सिंह इसे स्वतंत्र राज्य बनाना चाहता था। उसे गिरफ्तार किया गया और लगान जमा कराने के वचद पर छोड़ दिया, बिना लगान दिए वह मर गया। दोदरा के जमीदार भी अवज्ञा करते रहे, उनके नेताओं को गिरफ्तार किया और उचित व्यवहार करने और लगान ज़मानत पर छोड़ा।

बशहर के माण्डलिक राज्य

एक हज़ार वर्ष कोटखाई, कुमारसेन और नोगरी खड के बीच का सारा इलाका राजा भाम्बू राय के अधीन था

खनेती रियास्त यह एक छोटा सा राज्य बाघी और नारकंडा पर्वतमाला के बीच स्थित है। सतलुज और यमुना नदियों में इसके पानी की ढ़ाल होती है। यह रियास्त बशहर को कर देती थी। इसके राजा का संबंध कुमारसेन के राणावंश से था। खनेती कुमारसेन राज्यों की नींव के बारे में एक कहावत प्रचलित है। एक हज़ार वर्ष कोटखाई, कुमारसेन और नोगरी खड के बीच का सारा इलाका एक राजा भाम्बू राय के अधीन था जिसका दुर्ग बाघी से दो मिल पहाड़ी पर था। ऐसे कहा जाता था कि भाम्बूराम प्रात: बीस मील रामपुर के पास सतुलज में स्नान करने के लिए जाता था, फिर वह चालीस मील पर हाटकोटी में पूजा करने के लिए जाता था फिर अन्य 20 मील वापस अपने किला पर प्रात: भोजन करने के लिए पहुंचता था। 11वीं शताब्दी में राणा कीर्ति सिंह गया से वहां पहुंचा। उसने करांगल में भाम्बूराय से कुछ जगह प्राप्त की। कुछ समय पश्चात वह मर गया। उसकी गर्भवती रानी मर गई। सतलुज के किनारे चिता पर गर्भ से बच्चा सतलुज में गिर पड़ा। उसे बचा लिया और करांगल लाया गया। उसका नाम उग्गनचंद रखा।

उग्गनचंद की मृत्यु हुई तो संसारचंद को करांगल का राज्य मिला

सबीरचंद, जयसिंह खनेती आए और मिलकर कुमारसेन, खनेती, कोटगढ़ और कोटखाई पर करने लगे राज्य

सबीरचंद और उसके उत्तराधिकारी ने पांच पीढिय़ों तक किया राज्य

1816 से 1859 तक खनेती और बशहर के संबंधों में गड़बड़ हो गई और खनेती ने स्वतंत्रता की राह ली

भाम्बूराय की मृत्यु के बाद उसे राज गद्दी पर बिठाया गया। उसके तीन पुत्र संसारचंद, सबीरचंद और जयसिंह हुए। जब उग्गनचंद की मृत्यु हुई तो संसारचंद को करांगल का राज्य मिला। सबीरचंद, जयसिंह खनेती आए और मिलकर कुमारसेन, खनेती, कोटगढ़ और कोटखाई पर राज्य करने लगे। सबीर चंद को खनेती , कोटखाई मिल गई और जयसिंह को कुमारसेन मिला। यह बंटवारा उन्होंने एक गवाला के कहने अनुसार किया। सबीरचंद और उसके उत्तराधिकारी ने पांच पीढिय़ों तक राज्य किया। छठी पीढ़ी में दो भाई दुनीचंद और अहिमालचंद ने अपने तौर पर खनेती को और दूसरे ने कोटगढ़, कोटखाई बांट कर अलग-अलग राजा बन गए। अमोघ चंद दुनीचंद से 13वीं पीढ़ी में हुआ। खनेती का भाग्य घटता गया। गोरखा युद्ध के बाद ठाकुर रसालचंद राजा बशहर की शरण में चला गया तो खनेती पर बशहर का दावा बन गया। 1816 में अंग्रेज गवर्नर जनरल ने बशहर के राजा महेंद्र सिंह को सनद दी जिस के अनुसार घुलेटु, करांगल और खनेती की ठकुराई, मालिया, अन्दरूनी, बाहरी मामलों के अधिकार भी प्रदान किया। 1816 से 1859 तक खनेती और बशहर के संबंधों में गड़बड़ हो गई और खनेती ने स्वतंत्रता की राह ली। राजा बशहर ने खनेती पर भारी जुर्माना आदि लगाए। दुर्व्यवस्था की राह ली। दुर्व्यवस्था की स्थिति बनी तो ब्रिटिश सरकार ने मदाखलत की और कुछ निर्णय लिए, खनेती के ठाकुर को लगभग स्वतंत्र कर दिया। किंतु बाद का सारा काल खनेती में गड़बड़ में रहा। एक अन्य नन्हा सा राज डेल्थ का है। जो सतलुज के बाएं किनारे और कोटगढ़ के पूर्व में है जिसका क्षेत्रफल केवल 3-4 वर्ग मील है यद्यपि राजा अपना वंश बहुत प्राचीन बतलाता है।

सौजन्य : हिमाचल प्रदेश का इतिहास

मंगत राम वर्मा

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