महाभारत के इतिहास से जुड़ा खेल, नृत्य व नाट्य का सम्मिश्रण ठोडा

हिमाचल: महाभारत के इतिहास से जुड़ा “ठोडा” खेल

कौरवों व पांडवों की यादें पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक रची-बसी

कौरवों व पांडवों की यादें पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक रची-बसी

कौरवों व पांडवों की यादें पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक रची-बसी

दुनिया में तीरंदाजी की कितनी ही शैलियां हैं मगर हिमाचल व उत्तराखंड की पर्वतावलियों के बाशिंदों की यह तीरकमानी अद्भुत व निराली है। माना जाता है कि कौरवों व पांडवों की यादें इन पर्वतीय क्षेत्रों में अभी तक रची-बसी हैं। ठोडा योद्धाओं में एक दल पाशी (पाश्ड, पाठा, पाठडे) यानी पांच पांडवों का है और दूसरा शाठी (शाठड, शाठा, शठडे) यानी कौरवों का। जनश्रुतियों के अनुसार कौरव साठ थे सो शाठड (साठ) कहे जाते हैं। कभी कबीलों में रह चुके यह दल अपने को कौरवों व पांडवों के समर्थन में लड़े योद्धाओं का वशंज मानते हैं।

इसके लिए धनुर्धारी कमर से नीचे मोटे कपडे, बोरी या ऊन का घेरेदार वस्त्र लपेटते हैं या फिर चूडीदार वस्त्र (सूथन) पहनते हैं। मोटे-मोटे बूट, कहीं-कहीं भैंस के चमडे से बनाए गए घुटनों तक के जूते साधारण कमीज व जैकेट धारण होता है। पहाड़ी संस्कृति के विद्वान बताते हैं कि ठोडा का धणु (धनुष) डेढ़ से दो मीटर लंबा होता है और चांबा नामक एक विशेष लकड़ी से बनाया जाता है। शरी (तीर) धनुष के अनुपात में एक से डेढ़ मीटर का होता है और स्थानीय बांस की बीच से खोखली लकड़ी नरगली या फिरल का बनाया जाता है, जिसके एक तरफ खुले मुंह में अनुमानत दस बारह सेंटीमीटर की लकड़ी का एक टुकड़ा फिक्स किया जाता है जो एक तरफ से चपटा व दूसरी तरफ से पतला व तीखा होता है और नरगली के छेद से गुजारा जाता है। चपटा जानबूझ कर रखा जाता है ताकि प्रतिद्वंद्वी की टांग पर प्रहार के समय लगने पर ज्यादा चोट न पहुंचे।

दिलचस्प यह है कि इस लकड़ी को ही ठोडा कहते हैं। इस खेल युद्ध में घुटने से नीचे तीर सफलता से लगने पर खिलाड़ी को विशेष अंक दिए जाते हैं। वहीं घुटने से ऊपर वार न करने का सख्त नियम है। जो करता है उसे फाउल करार दिया जाता है। ठोडा में अपने चुने हुए प्रतिद्वंद्वी की पिंडली पर निशाना साधा जाता है, दूसरे प्रतिद्वंद्वी पर नहीं। जिस व्यक्ति पर वार किया जाता है वह हाथ में डांगरा लिए नृत्य करते हुए वार को बेकार करने का प्रयास करता है। बच जाता है तो वह प्रतिद्वंद्वी का मजाक उड़ाता है, मसखरी करता है। इस तरह खेल-खेल में मनोरंजन हो जाता है और ठोडा खेलने वालों का जोश भी बरकरार रहता है। फिर दूसरा खिलाड़ी निशाना साधता है। लगातार जोश का माहौल बनाने वाले लोक संगीत के साथ-साथ खेल यूं ही आगे बढता रहता है। कई बार खेलने वाले जख्मी हो जाते हैं मगर ठोडा के मैदान में कोई पीठ नहीं दिखाता। खेल की समयावधि सूर्य डूबने तक निश्चित होती है। शाम उतरती है तो थकावट चढ़ती है और रात मनोरंजन चाहती है। स्वादिष्ट स्थानीय खाद्यों के साथ मांस, शराब पेश की जाती है और नाच-गाना होता है। अगले दिन फिर ठोडा आयोजित किया जाता है।

पाशी और शाठी दोनों की परंपरागत खुन्नस शाश्वत मानी जाती है मगर खुशी गम और जरूरत के मौसम में वे मिलते-जुलते हैं और

पाशी और शाठी दोनों की परंपरागत खुन्नस शाश्वत मानी जाती है

पाशी और शाठी दोनों की परंपरागत खुन्नस शाश्वत मानी जाती है

एक दूसरे के काम आते हैं। उनमें आपस में रिश्तेदारियां भी हैं। जब बिशु (बैसाख का पहला दिन) आता है तो पुरानी नफरत थोड़ी सी जवान होती है, गांव-गांव में युद्ध की तैयारियां शुरू हो जाती हैं जिसे किसी वर्ष शाठी आयोजित करते हैं तो कभी पाशी। कबीले का मुखिया बिशु आयोजन के दिन प्रात: कुलदेवता की पूजा करता है और अपने सहयोगियों के साथ ठोडा खेलने आ रहे लोगों के आतिथ्य और अपनी जीत के लिए मंत्रणा करता है।

युद्ध प्रशिक्षण का अवशेष माने जाने वाले ठोडा में खेल, नृत्य व नाट्य का सम्मिश्रण है। धनुष बाजी का खेल, वाद्यों की झंकार में नृत्यमय हो उठता हैं। खिलाड़ी व नाट्य वीर रस में डूबे इसलिए होते हैं क्योंकि यह महाभारत के महायुद्ध से प्रेरित है। भारतीय संस्कृति के मातम के मौसम में पहाड़ वासियों ने लुप्त हो रही सांस्कृतिक परंपरा को जैसे-तैसे करके जीवित रखा है। कौशल, व्यायाम व मनोरंजन के पर्याय ठोडा को हमारी लोक संस्कृति के कितने ही उत्सवों में जगह मिलती है जहां पर्यटक भी होते हैं और स्थानीय लोग भी। ठोडा आम तौर पर हर साल बैसाखी के दो दिनों- 13 व 14 अप्रैल को होता है। शिमला जिले के ठियोग डिवीजन, नारकंडा ब्लॉक, चौपाल डिवीजन, सिरमौर व सोलन में कहीं भी इसका आनंद लिया जा सकता है।

महाभारतकालीन खेल ठोडा नृत्य

सिरमौर के जनपदों में योद्धा जाति खुंदों द्वारा किया जाने वाला ठोडा खेल यह एक प्रकार का युद्ध है। यह बिशु के अवसर पर किया जाता

 बिशु के अवसर पर किया जाता है। ठोडा

बिशु के अवसर पर किया जाता है ठोडा

है। ठोडा हिमाचल प्रदेश के कुछ जिलों में विशेष अवसरों पर खेला जाने वाला संगीतमय खेल है। तीर कमान के प्रदर्शन के इस खेल को महाभारत काल से जोड़कर भी देखा जाता है। माना जाता है कि ठोडा की उत्पति महाभारत काल में हुई थी। इसे पांडवों और कौरवों के मध्य हुए युद्ध के रूप में देखा जाता है। ठोडा लोगों के मनोरंजन का मुख्य आकर्षण रहता है। यदि ठोडा खेल का जिक्र किया जाए तो ठोडा प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है। हिमाचल प्रदेश में ठोडा ऊपरी शिमला तथा सिरमौर जिला में खेला जाता है। प्राचीन संस्कृति पर आधारित यह खेल महाभारत काल की याद को ताजा करता है। जाहिर तौर पर दो दलों के बीच खेले जाने वाला तीर कमान का यह खेल ऊपरी शिमला में खासी लोकप्रियता हासिल किए हुए है। ठोडा खेल में दो दल आपस में कौरव व पांडव बनकर एक दूसरे पर तीरों से प्रहार करते हैं। प्रदेश के गांव में होने वाले मेलों में ठोडा दलों को प्रदर्शन के लिए बुलाया जाता है। दल एक विशेष प्रकार की सफ़ेद पोशाक पहनता है। गौरतलब है कि ठोडा एक ऐतिहासिक व साहसिक खेल है।

महाभारत युद्ध की याद ताजा करती है खेल की शैली

 महाभारतकालीन खेल ठोडा नृत्य

महाभारतकालीन खेल ठोडा नृत्य

पहाड़ी भाषा में कौरव दल को शाठी तथा पांडव दल को पाशी कहा जाता है। ठोडा खेल में दोनों दल आपस में महाभारत युद्ध की तरह एक-दूसरे पर बाणों से तेज प्रहार करते हैं। ठोडा खेल में बाणों से प्रहार करने की सीमा निर्धारित होती है। ठोडा खिलाड़ी इस खेल में बाण एक-दूसरे के घुटने से नीचे ही मार सकते हैं। जाहिर तौर पर इस खेल की शैली महाभारत युद्ध से काफी हद तब मिलती है। ठोडा खेल में कौन किसको बाण से प्रहार करेगा यह दोनों दलों ने पहले से ही तय किया होता है। ठोडा खेल के माहिरों का कहना है कि इस खेल के दौरान नियमों का उल्लंघन करना वर्जित माना जाता है। ठोडा के खिलाड़ी तेज तर्रार बाणों की दर्द से बचने के लिए अपनी टांगों को नृत्य द्वारा हिलाते हैं। पहाड़ी भाषा में लहकारते हुए अपने-अपने विरोधी को कहते हैं कि ये लागा सा ठोडे रा लड़ाना। ठोडा खेलते समय टांगों में बाण लगने से काफी दर्द होता है। ठोडा खेल में खिलाड़ी तब तक बाणों से प्रहार से लगी हुई दर्द सह सकता है, तब तक खेल जारी रहता है। ठोडा खेल के नियमों के अनुसार यदि खिलाड़ी खेलने से इनकार कर देता है तो उस खिलाड़ी को हारने का पुरस्कार दिया जाता है। गौरतलब है कि ठोडा खेल के लिए विशेष पहनावे व विशेष जूते का इस्तेमाल किया जाता है। ऐतिहासिक प्राचीन संस्कृति पर आधारित ठोडा खेल को बढ़ावा देने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने तथा राष्ट्र खेलों में शामिल करने की जरूरत है।

तीन दिन तक चलता है बिस्सू मेला

हिमाचल की सीमा से लगे गांव भुटाणू, टिकोची, मैंजणी, किरोली में यह मेला कुछ निराला ही होता है। तीन दिन तक चलने वाले इस मेले का नाम बिषुवत संक्रांति के नाम से हटकर बिस्सू पड़ गया। हिमाचल प्रदेश के उपरी इलाकों में भी ठियोग, नारकंडा, कोटखाई, चौपाल क्षेत्रों व सिरमौर के राजगढ़ आदि क्षेत्र में मेलों के अवसर पर ठोडा खेल का आयोजन किया जाता है। शूलिनी मेले के पारंपरिक ठोडा नृत्य में महाभारत का बखान बखूबी किया जाता है। ठोडा को ये दल अपने स्तर पर ही जिन्दा रखे हुए है समय के साथ अब ठोडा खेलने वाले दल भी लुप्त होते जा रहे हैं। मेले में धनुष और बाणों से रोमांचकारी युद्ध होता है और यह तथाकथित संग्राम तीन दिन तक चलता है। इसमें रणबांकुरे इन्हीं गांवॊं के लोग होते हैं। उत्साह जोश का यह आलम रहता है कि युवा तो क्या बूढ़े भी अपना कौशल दिखाने में पीछे नहीं रहते। ऐसा लगता है जैसे मेला स्थल रणभूमि में तब्दील हो गया हो। कुछ ऐसे ही तुमुल नाद में बजते हैं रणसिंघे और ढोल-दमाऊ वाद्य-मंत्र।

लोक कला और नृत्य शैली का रूप ठोडा

यह युद्ध असल नहीं है। यह एक लोक कला का रूप है और नृत्य शैली में किया जाता है। यहां की बोली में इस युद्ध को ‘ठोडा कहते हैं। खिलाड़ियों को ठोडोरी कहा जाता है। धनुष-तीर के साथ यह नृत्यमय युद्ध बिना रुके चलता रहता है। दर्शक उत्साह बढ़ाते रहते हैं। नगाड़े

लोक कला और नृत्य शैली का रूप ठोडा

लोक कला और नृत्य शैली का रूप ठोडा

बजाते रहते हैं। लयबद्ध ताल पर ढोल-दमाऊ के स्वर खनकते रहते हैं। ताल बदलते ही युद्ध नृत्य का अंदाज भी बदलता रहता है। युवक-युवतियां मिलकर सामूहिक नृत्य करते हैं।

कुशल और परंपरागत कारीगर तैयार करते हैं ठोडा के धनुष और तीर

ठोडा, हिमाचल प्रदेश के प्रभावशाली मार्शल आर्ट फार्म के सुरम्य घाटियों में रहने वाले, पांडवों और कौरवों के बीच, धनुष और तीर महाकाव्य लड़ाई में इस्तेमाल किया गया। इस खेल के लिए आवश्यक उपकरण धनुष और तीर हैं। धनुष और तीर को कुशल और परंपरागत कारीगरों द्वारा तैयार किया जाता है।

 

एक टीम शाठी तो दूसरी टीम पाशी  

आस पास के गांव के लोगों के साथ-साथ इस खेल को देखने के लिए लोग प्रदेश के अन्य जिलों से भी आते हैं। लगभग कई सैंकड़ों लोग एक जगह पर इकठे होते हैं, जिसे जुबडी, घासणी  कहा जाता है लेकिन उनमें से ज्यादातर लोग अपनी टीम के मनोबल को बढ़ावा देने के लिए साथ आते हैं, जो सिर्फ नाच गाना करते हैं। तीरंदाज प्रतियोगिता में भाग लेते है। एक टीम शाठी और दूसरी टीम पाशी होती है। यह पाशी और शाठी, पांडवों और कौरवों के वंशज माने जाते हैं। इस खेल में तीरंदाज बारी-बारी से एक दूसरे की टांगों पर निशाना साधते हैं जो तीर निशाना साधने में सफल होता है वह ख़ुशी से नाचते हुए अपने प्रतिद्वंदी को अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करता है।

सिरमौर के जनपदों में योद्धा जाति खुंदों द्वारा किया जाने वाला ठोडा खेल यह एक प्रकार का युद्ध है। यह बिशु के अवसर पर किया जाता है। ठोडा हिमाचल प्रदेश के कुछ जिलों में विशेष अवसरों पर खेला जाने वाला संगीतमय खेल है। तीर कमान के प्रदर्शन के इस खेल को महाभारत काल से जोड़कर भी देखा जाता है। माना जाता है कि ठोडा की उत्पति महाभारत काल में हुई थी। इसे पांडवों और कोरवों के मध्य हुए युद्ध के रूप में देखा जाता है। ठोडा लोगों के मनोरंजन का मुख्य आकर्षण रहता है। यदि ठोडा खेल का जिक्र किया जाए तो ठोडा प्राचीन संस्कृति का प्रतीक है। हिमाचल प्रदेश में ठोडा ऊपरी शिमला तथा सिरमौर जिला में खेला जाता है। प्राचीन संस्कृति पर आधारित यह खेल महाभारत काल की याद को ताजा करता है। जाहिर तौर पर दो दलों के बीच खेले जाने वाला तीर कमान का यह खेल ऊपरी शिमला में खासी लोकप्रियता हासिल किए हुए है। ठोडा खेल में दो दल आपस में कौरव व पांडव बनकर एक दूसरे पर तीरों से प्रहार करते हैं। प्रदेश के गांव में होने वाले मेलों में ठोडा दलों को प्रदर्शन के लिए बुलाया जाता है। दल एक विशेष प्रकार की सफ़ेद पोशाक पहनता है। गौरतलब है कि ठोडा एक ऐतिहासिक व साहसिक खेल है।

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