हिमाचल: लोकप्रिय-नाट्य में बड़ी दक्षता के साथ पिरोए जाते हैं नृत्य और संगीत; पहाड़ी लोक-नाट्यों में “करयाला, बाँठड़ा, झाँकी, स्वाँग, हड्न्तर और भगत” सबसे लोकप्रिय

हिमाचल के ग्रामीणों के लिए सदियों से मनोरंजन का प्रमुख साधन रहा है “करियाला”

लोक-नाट्य हिमाचल में मनोरंजन के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। ये प्रायः सर्द ऋतु में पूरे प्रदेश में आयोजित किए जाते हैं जबकि प्रदेश के लोग फसलों की कटाई और बिजाई की व्यस्तता से मुक्त होते हैं। गाँव के नृत्य, नाट्य एवं मनोरंजन के अन्य साधन लोग मंदिर के प्रांगण में या चौपाल में इकट्ठे होते हैं और पूरी-पूरी देखते हैं। लोकप्रिय लोकगीत तथा साथ किए जाते हैं ताकि कार्यक्रम अधिक मनोरंजक बन सके। पहाड़ी लोक-नाट्यों में सबसे लोकप्रिय हैं-करयाला, बाँठड़ा, झाँकी, स्वाँग, हड्न्तर और भगत। बाँठड़ामण्डी क्षेत्र का लोकप्रिय नाट्य है जबकि झाँकी और हड़न्तर चम्बा के लोक-नाट्य हैं। करयाला पदय अथांग बिलासपुर, सोलन, शिमला हिल्स और सिरमौर के लोगों में लोकप्रिय हैं।

साधु के स्वाँग की भाषा निश्चय ही सधुक्कड़ीहोती है

“करयालाअथवा करियालाशब्द अभी भी शोधार्थियों के लिए शोध का विषय बना हुआ है परन्तु यह निश्चय ही एक विशेष प्रकार के लोक-नाट्य का सूचक है। इस लोक-नाट्य के लिए किसी खेत में चौकोर भूमि पर चार, दो या तीन फुट ऊँचे डण्डे गाड़ कर उन्हें रस्सी में बाँध दिया जाता है और इस प्रकार सादा-सा मंच तैयार हो जाता है। दर्शक करयाला देखने के लिए मंच के चारों ओर बैठते हैं। इस लोक-नाट्य में नटीजो कि नारी पात्र के लिए प्रयुक्त शब्द है का प्रवेश होता है। नटी शब्द पाणिनि की अष्टाध्ययी में भी आया है जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह लोक-नाट्य पाँचवीं इसवी पूर्व से भी पुराना है।

दूसरी ओर इस मंच का धूनी के चारों ओर सजाया जाना तथा अवधूत और सिद्ध जैसे विशिष्ट पात्रों का इसमें आना यह सिद्ध करता है कि इस लोक-नाट्य का संबंध नाथों और सिद्धों के ग्यारहवीं शताब्दी के आन्दोलन से भी रहा है।

साधु के स्वाँग की भाषा निश्चय ही सधुक्कड़ीहोती है जो कि गारख पंथी नाथों और चौरासी सिद्धों द्वारा प्रयुक्त भाषा से मिलती है। जहाँ तक अन्य स्वाँगों का प्रश्न है उनके कथोपकथन स्थानीय भाषा में रहते हैं।

परम्परागत रूप से पहला स्वाँग साधु का होता है

जब वाद्य-यन्त्रों पर बजन्तरी बधाई धुन बजाते हैं, लोक-नाट्य के दो प्रमुख पात्र चन्द्रावलीऔर सिद्धएक पर्दे के पीछे से जिसे दो व्यक्ति तानकर खड़े होते हैं, अखाड़े में प्रवेश करने की तैयारी करते हैं। कुछ छन्दों का गान होता है और पर्दा गिरा दिया जाता है। दोनों पात्र धीरे-धीरे,  शान के साथ भीड़ में से अपना रास्ता बनाते हुए अखाड़े में प्रवेश करते हैं। नटी और सिद्ध जलती आग के चारों ओर नाचते हैं। सिद्ध अखाड़े के चारों ओर रखी या खम्बों पर टैंगो मशालों अथवा मिट्टी के बर्तनों में पड़े पदार्थों को एक-एक करके जलाता है।

इस प्रारम्भिक कार्य को अखाड़ा बन्धन कहा जाता है। ये दोनों पात्र तब विश्राम के स्थान पर चले जाते हैं। अब बजन्तरी कोई भिन्न धुन बजाते हैं और पहला स्वाँग अखाड़े में प्रवेश करता है। परम्परागत रूप से पहला स्वाँग साधु का होता है। ऐसा माना जाता है कि इस स्वाँग के बिना अखाड़ा अपवित्र रहता है और देवता नाराज हो जाते हैं। साधु के स्वाँग के पश्चात् अन्य अनेक स्वाँग किए जाते हैं जिनका कोई निश्चित लिखित पाठ नहीं रहता। स्वाँग के लिए समय सीमा भी निर्धारित नहीं होती। करियाला के निर्देशक को करियालद् कहा जाता है। वह कथोपकथनों को संतुलित रखने के लिए हस्तक्षेप करता है। करियालटू की अपनी भी एक भूमिका रहती है। करियाला में कथोपकथन विनोदपूर्ण, व्यंग्यात्मक एवं हास्यप्रद होते हैं। कभी-कभी द्विअर्थी कथोपकथन जो कि अभद्र भी होते हैं उनका प्रयोग भी संकेतों के साथ किया जाता है परन्तु ऐसे शब्द प्रायः स्थानीय बोली से हो लिये जाते हैं। छन्द, पद, श्लोक और लोकगीतों को भी गाया जाता है।

विभिन्न स्वाँगों के बीच के खाली समय में बजन्तरियों को अपनी कला दिखाने का अवसर मिलता है। नटी और सिद्ध के सिवा और किसी पात्र का अखाड़े में प्रवेश करने की विशिष्ट विधि नहीं है। इनकी पोशाक का निर्णय प्रायः करियालटू ही करता है। प्रायः वैसी ही होती है जैसी कि पात्र के अनुकूल हो।

नगाड़ा, ढोल, दमामा, नफीरी, करनाल और नरसिंहा आदि वाद्य-यन्त्र आमतौर पर करियाला में बजाए जाते हैं

हिमाचल के ग्रामीणों के लिए सदियों से मनोरंजन का प्रमुख साधन रहा है “करियाला”

करियालाके मंच को अखाड़ा कहा जाता है। अखाड़ा ऐसे स्थान पर बनाया जाता है जिससे कि चारों ओर ढलानों पर बैठे लोग इसे देवता सकें। अखाड़े के मध्य में बड़ी धूनी जलाई जाती है। हिमाचल प्रदेश का इतिहास, संस्कृति और आर्थिक परिवेश को पवित्र समझा जाता है। मशाले अथवा मिट्टी के बर्तनों में तेल भीगे बनौले डाल कर खम्बों से बाँध दिए जाते है। अखाड़े के दूसरी ओर के एक स्थान को अभिनेताओं की तैयारी के स्थान के रूप में (ग्रीन-रूम) प्रयोग किया जाता है। वास्तविक लोक-नाट्य प्रारम्भ होने से पूर्व बजन्तरी अखाड़े में अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। नगाड़ा, ढोल, दमामा, नफीरी, करनाल और नरसिंहा आदि वाद्य-यन्त्र आमतौर पर करियाला में बजाए जाते हैं।

करियाला एक मनमोहक लोक-नाट्य है जो हिमाचल के सीधे-सादे ग्रामीणों के लिए सदियों से मनोरंजन का प्रमुख साधन रहा है।

करियाला को मण्डी और बिलासपुर में बांठड़ाकहा जाता है। यह ज्योंजक लोक-नाट्य अनेक प्रकार से अद्वितीय है। इसके आयोजन में कोई मुख्य विचारधारा नहीं रहती। दूसरे यह खुले मैदान में कामचलाऊ अखाड़े में खेला जाता है, इसके लिए कहीं पर कोई निश्चित मंच ही बना है। सैद्धान्तिक दृष्टि से करियाला नाटक नहीं है बल्कि यह हुन्छ परम्परागत पात्रों की मनोरंजक नकल होती है जो कि अत्यन्त सांव और यथार्थ के निकट होती है और मनोरंजन के लिए तरसते हिमाचली ग्राम वासियों को आनन्द प्रदान करती है।

करियाला के जन्म की कथा रहस्य में डूबी है। परन्तु ऐसा माना बाता है कि यह एक प्रकार की धार्मिक पूजा के रूप में प्रारम्भ हुआ होगा जिसमें लोगों को सारी रात जागना पड़ता होगा। समय के साथ यह एक स्वतन्त्र विधा और मनोरंजन का लोकप्रिय साधन बन गया। आजकल यह पूरे हिमाचल में सर्दियों में आयोजित किया जाता है जबकि लोग फसलों की कटाई और बुआई के कठोर परिश्रम के पश्चात विश्राम करतते हैं।

सारा ग्राम-प्रान्त अँधेरे में डूब जाता है और गाँव के लोग आग के चारों ओर मन्त्रमुग्ध-से बैठे रात भर इस लोक-नाट्य को देखते है। भारत में विभिन्न तरह के दिखने वाले साधुओं की नकल उतारना कोयला का लोकप्रिय अंश है। दूसरी लोकप्रिय नकल मेम और गौरव की है तथा लोकप्रियता में इसके निकट ही गाँव के साहूकार ही नकल पड़ती है।एक किनारे पर ढोलक, खंजरी, दमामटा, चिमटा, बांसुरी और नगाडा आदि वाद्ययंत्र लिए बंजतरी बैठ जाते हैं। चंदरौली करियाला का प्रमुख पात्र यह स्त्री वेशभूषा पहने पुरूष ही होती है। बजंतरियों द्वारा बधाई ताल बजते ही चंदरौली प्रवेश करती है। चंदरौली अपना अलाव का पूरा फेरा पूरा करने के उपरांत चारों दिशाओं से तीन-चार साधु अलख जगाते हुए मंच पर आते हैं। इन साधुओं द्वारा समाज के ज्वलंत मुद्दों अंधविश्वासों, ज्ञानी-ध्यानी, मुनि- तपस्वी तथा तंत्र-मंत्र की बातों से लोगों का हास्य व्यंग्यों से मनोरंजन करते हैं।

लोक-नाट्यों की विशेषताएँ

हिमाचल में हिमशिखरों पर बसा लोक (जनता) वास्तव में प्रकृति की दया पर जीता है। उसके सारे क्रिया-कलाप धर्म से जुड़े रहते हैं। कठोर जीवन में आनन्द भरने के लिए मनोरंजन से साधन खोजन स्वाभाविक है परन्तु उनमें भी प्रकृति-पूजा और धार्मिक आस्थाओं विश्वासों का जुड़ना यहां की विशेषता है। लोक-नाट्यों में ईश्वरीष शक्तियों से मनौतियां मांगी जाती हैं। स्थानीय लोक-नाट्यों में करिवाडा या करियाला का वर्णन ऊपर दिया जा चुका है। भगत तथा बाताड़ा भी वैसे ही लोक-नाट्य हैं। सिरमौर तथा महासू क्षेत्र में करियाला बिलासपुर तथा मण्डी क्षेत्र में बांठड़ातथा कांगड़ा, चम्बा में भगततथा किन्नौर हरणयातरलोक-नाट्य प्रचलित है। इन लोक-नाट्यों को कुछ सामान्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(1) लोक-नाट्य का आरम्भ मंगलाचरण से होता है जिसमें त्रिदेव, जंगली वन्य-देवता, सरस्वती आदि की प्रार्थना रहती हैं।

(2) इसके पश्चात् मनसुखा या डंडू‘, कथावस्तु का परिचय देता है। यह विदूषक का काम भी करता है। मन तथा गोपियों का हास-परिहास भगत का मुख्य आक रहता है।

(3) लोक-नाट्यों के कथ्य सामयिक विषयों पर होते है बीच-बीच में रामायण या रामलीला, कृष्णलीला के अथवा ऐतिहासिक आख्यान जोड़ दिए जाते है।

लोकप्रिय नृत्य और संगीत बड़ी दक्षता के साथ-साथ इस लोकप्रिय-नाट्य में पिरोए जाते हैं ताकि यह वैविध्य भरा कार्यक्रम और हिमाचल प्रदेश का इतिहास, संस्कृति और आर्थिक परिवेश अधिक मनोरंजक हो जाए जिसमें पहले से ही विविध विचार-सूत्र हैं। करियाला का केन्द्र हास-परिहास है और यह ठीक भी है कि इसका लक्ष्य लोगों का मनोरंजन मात्र है। यह निश्चय ही अच्छी तरह से लोगों का मनोरंजन करता है।

जारी……………………………………………………..

ये नाटक मिथकों, किंवदंतियों, इतिहास, धर्म, संस्कृति, शिष्टाचार और लोगों के मेल पर आधारित हैं। यद्यपि वर्तमान समय में लोक रंगमंच भी राम लीला और कृष्ण लीला को शामिल करता है, लेकिन पुराने रूप अभी भी अपनी लोकप्रिय को बरकरार….

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