हिमाचल: कांगड़ा का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही पुरानी लोगों की आभूषण और परिधान शैली…

कांगड़ा का इतिहास जितना पुराना है उतनी ही पुरानी यहां की लोक संस्कृति और कला भी है। उतने ही प्राचीन यहां के लोगों की आभूषण और परिधान शैली भी है। कला पक्ष में राजाओं के राज्य काल से ही कांगड़ा क्षेत्र की रियासतें चित्रकला, संगीत कला, एवं साहित्य में आगे रहीं हैं। परिधानों और आभूषणों का स्वरूप जो किसी समय प्रचलित था कालान्तर में उसमें बदलाव आया। इसके साथ ही पहरावे और आभूषणों में लोक-संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज़ भी विशेष प्रभावी रहे हैं। चित्रकारी, हस्तकला, भित्ति कला, अलपना, चौंक डालना, मेलों के समय शारीरिक परिधान की सजावट, विवाह, मंगल संस्कारोत्सवों में पहरावे और आभूषणों की सुन्दरता में वेशभूषा और परिधान का स्वरूप प्रकट होता है।

कांगड़ा जनपद में कलात्मक वेशभूषा एवं आभूषण की परम्परा शाश्वत एवं परिवर्तनशील रही है। अर्थव्यवस्था का आधार शिल्प, हस्तकला, कृषि आदि रहे हैं। कला को इसमें अधिमान दिया गया है। उपजीविका भार को वहन करते हुए अर्थव्यवस्था को जुटाने में व्यक्ति और समाज लगा रहा। ऐसी अर्थव्यवस्था के अधीन ही आभूषण, विवाह, भूमि क्रय और मकान तथा परिधान में संचित निधि का उपयोग होता रहा है। मानवीय गुणों के अनुरूप ही इन वस्तुओं पर व्यय, धन का प्रयोग अनुकरणीय, मितव्ययी होते हुए अन्य दुर्गुणों पर व्यय की अपेक्षा आभूषण, परिधान, कृषि भूमि तथा आवास पर व्यय जीवन की सार्थकता और कर्मण्यता का द्योतक है। वेशभूषा, परिधान और आभूषणों का सीधा सम्बन्ध जनपद की लोक-संस्कृति पर आधारित रहता है। पुरुष और स्त्रियों के पहरावे में कांगड़ा की इस वेशभूषा में भी परिवर्तन हुए है।

स्त्रियों के परिधान

 जिस प्रकार हमारे खान-पान में बदलाव आया है उस प्रकार से वस्त्रों और आभूषणों में भी तबदीली आई है। कांगड़ा जनपद में स्त्रियों के पहरावे में भी परिवर्तन हुआ है। पुराने समय में चोलियों का रिवाज रहा। चोली के साथ घमरी प्रधान इस क्षेत्र में प्राचीन काल में थे। कालान्तर में चोली का स्थान कुर्ती ने ले लिया और घघरी की जगह सलवार प्रयुक्त होने लगी। किन्तु घघरी का प्रचलन भी साथ में रहा।

स्त्रियों के परिधान में सिर वस्त्र: चादर, चादरू, दुपट्टा, रीढ़ा।

चादर : चादर स्त्रियों का सिर का पहरावा है। पुराने समय में मलमल की चादरें होती थीं। स्त्रियां स्वयं इन्हें रंगती या माया आदि लगाती थीं (कभी ललारी से भी रंगवाती थीं)। विधवाएं मलमल की सफेद चादर ओढती थीं। सौभाग्यवती कदापि श्वेत चादर नहीं ओढ़ती। चादर को पैनक, गोटा, सितारे आदि भी लगाती थीं। कालान्तर में मलमल की चादर का स्थान जॉरजट ने ले लिया है। पुनः जॉरजट के स्थान पर बम्बर के दुपट्टे प्रचलित हुए। आज भी ये प्रचलित हैं।

चादरू : छोटी कन्याएँ चादरू सिर पर ओढ़ती हैं। कोई भी महिला नंगे सिर नहीं मिलती। यह स्त्रियों का अनिवार्य वस्त्र है।

रीढ़ा : विवाह में वधु को जो सिरो वस्त्र (ओढनी) दी जाती है उसे रीढ़ा कहते हैं। यह सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। भगवती के दरबार में भी दुर्गा को रीढ़ा चढ़ाने की परम्परा है। रीढ़े का रंग प्रायः लाल, गहरा लाल होता है। जिसमें गोटे की कई जड़तरे जड़ी होती हैं। सितारे भी लगे होते हैं। अब तो रीढ़े बने बनाए आते हैं। पुराने समय में लाल कपड़ा लेकर उसे सिलकर और स्वयं हाथ से गोटा सितारे लगाकर गृहणियां विवाह के समय (वर-पक्ष) तैयार करती थी।

घघरी : स्त्रियां विवाह के पश्चात् घघरी अधोवस्त्र के रूप में पहनती थीं। यह यहां की विवाहित स्त्रियों का पारम्परिक परिधान रहा है। इसका आकार घघरानुमा, फेरदार और ऊपर से सिकुड़ने डाले हुए तंग घागरा सा है। कुआरी लड़कियां इसे नहीं पहनती। जो कन्याएं विवाहित होती हैं वे भी अपने ससुराल में ही पहनती हैं।

स्त्रियों के आभूषण

बालियां : बालियां आकार में कई प्रकार की होती हैं। छोटी, बड़ी कईयों के मध्य में तार लिपटी होती है, बीच में लाल मोती पिरोया होता है। कई सादी ही होती हैं।

कांटे : यह लम्बे लटके हुए पतरीनुमा (कोई डिज़ाइन बना) होते हैं। भारी होने पर जंजीर से कान पर लटका लिये जाते हैं। यह वज़न में 6 माशे से डेढ़ तोला तक होते हैं।

झुमके : कुण्डी लगे स्वर्ण जंजीर से कानों पर लटकाए जाते हैं। ये कुण्डी के साथ ही आकार में छत्रनुमा लटकते, कान की शोभा होते हैं। वजन 2 से 3 तोले होता है।

कानफूल : छोटेफूल के आकार के बीच में नग जड़े और कुलफ या पेच के साथ कर्ण छिद्रों में चिपकाये जाते है। इनका वजन 6 माशे से 1 तोला तक होता है।

टॉपस : यह भी इसी आकृति के होते हैं किन्तु आकार में कान फूल से छोटे होते हैं। वजन में 3 से 6 माशे तक होते हैं।

डोडके : डोडे की आकृति के सोने के बने कुलफ कान में चिपके होते हैं। वजन में 6 से 9 माशे या तोले तक होते हैं।

कडुएं : इन्हें प्रायः लड़कियां पहनती है। जब कान बींधे जाते हैं तो कान के छिद्रों को कायम रखने के लिए सोने की तार गोलाकार में होती है। कभी लाल मोती भी बीच में पिरो देते हैं। कर्णभेद संस्कार में लड़कों को भी पहनाए जाते हैं। वजन में 3 से 6 माशे तक होते हैं।

कंगणू या सुनंगण : मोटे आकार के सोने के 3 से 5 तोले तक होते हैं इन्हें सुनंगण भी कहते हैं।

गोखरू : कंगन की आकृति के होते हैं किन्तु जहां जोड़ होता है वहां गौ के खुर के समान आकृति होती है। यह चांदी सोने के 5 तोले तक वजन के होते हैं।

चाक: विवाहिता को यथाशक्ति सोने या चांदी का चाक दिया जाता है। आकार में प्यालीनुमा नीचे से खुला और ऊपर से बंद होता है। इसके सिर पर नग जड़े कलश की भांति डंडी होती है। इससे (सिर) बालों का श्रृंगार होता है

चिड़ी : प्रायः निम्नवर्ग में चांदी की चिड़ी लगाने का रिवाज है। यह चिड़ी बड़े आकार में गोल और चौड़ी होती है। मध्य में मीनाकारी होती है। कोई आकृति भी बनाते हैं। सुनार कुशल हाथों से इसमें कलात्मक रूप से बोर इत्यादि लगाते हैं। वजन में 2 या 3 तोले होती है। यह सिर के तालू पर लगाया जाता है।

मानटिक्का : यह सोने का, चिड़ी के आकार का ही छोटा, माथे पर शोभायमान होता है। इस पर भी सोने की छोटी पत्तियां होती है और बेलकारी, फूल इत्यादि बने होते हैं। वज़न में 1 से 2 तोले तक होता है।

टोके : चांदी के मोटे पत्तरे के डेढ़ ईंच से 11/3 ईंच चौड़े होते हैं, ऊपर कोई आकृति या डिज़ाईन होता है। यह वजन में 5 से 10 तोले तक होते हैं।

कड़े : कड़े बंगों से बड़े आकार के होते हैं। यह वजन में 2 से 3 तोले तक होते हैं।

बंगां : सामान्य बंगों की तरह ही सोने की चूड़ियां होती हैं, वजन में 2 से 3 तोले । यह चांदी की भी बनाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त शीशे तथा प्लास्टिक /कांच की भी पहनी जाती हैं। ये रंग-बिरंगी होती हैं।

बाजूबंद : यह भी चांदी या सोने के होते हैं। टोकों से पतले और जोड़ने के लिए पेच की तरह चांदी की मेखला होती है। ऊपर पतरे पर डिजाईन होता है।

बालू : प्राचीन काल से ही बालू सौभाग्यवती स्त्रियों का मुख्य आभूषण है। इसे विवाह के समय कन्या को पहनाया जाता है जो सौभाग्य का प्रतीक है। मामे इसे अपनी भानजी को देते हैं। कई नत्थ देते हैं। मुख के अनुरूप स्वर्णडंडी को घेरे में लाकर स्वर्णकार इसे बनाते हैं डंडी पर तीन चार सोने की कलात्मक चित्तियां जड़ी होती हैं। डंडी के साथ टांके से चिपकाते हैं। चित्तियों में नग भी जड़े होते हैं। भारी होने पर स्वर्ण श्रृंखला के साथ केशों में फंसा दी जाती है ताकि नाक अधिक बोझिल न हो। यह वजन में 2 से 12 तोले तक होता है।

नत्थ: समय की गति से बालू का स्थान नत्थ ने ले लिया है। नत्थ फैलाव में कम होती है और केवल कपोल भाग तक ही सीमित रहती है। इसमें बहुत नग जड़ी मीनाकारी और (मंजीरे) पत्तियां होती हैं जिन्हें कभी मोर की शक्ल में कभी किसी और में बना देते हैं। इसका वजन 3 से 6 तोले तक होता है।

मच्छली : मच्छली का रिवाज़ अब कम हो गया है। नाक के नथुने को बींधकर मध्य में यह डाली जाती है। यह मच्छली के आकार में लटकती रहती हैं। इसमें नग जड़े होते हैं। यह पुराना रिवाज़ हो चुका है। इसका वजन 1 से 2 तोले तक होता है।

ब्लॉक : यह भी मच्छली की तरह होता है। किन्तु आकृति में मच्छली के स्थान पर सीपी की तरह सोने की पतरी ही लगी होती है। इसका वज़न 9 माशे से डेढ़ तोले तक होता है।

लौंग : यह कुल्फ के साथ नाक में पहना जाता है। वज़न में 6 माशे से तोला भर होता है।

तिल्ली और कोका यह भी छोटे आकार में लौंग की तरह नाक में पहने जाते हैं।

हार : यह सोने या चांदी का होता है। वजन में 2 से 3 तोले तक होता है।

चन्द्रहार : यह भी सोने या चांदी का होता है। इसमें चार या पांच लड़ियां होती हैं जो टिकड़ियों से किनारे पर टांके से चिपकाई होती है। यह वजन में 8 से 10 तोले तक होता है।

कंठी : कंठी मनकों वाली होती है। इसमें मोटी जंजीर के साथ मनके जड़े होते हैं।

माला : माला छोटे मनकों से बनाई जाती है। वजन में 3 से 6 तोले तक होती है।

मंगलसूत्र : इसमें सोने की जंजीर में काले मनके लगे होते हैं बीच में किसी की आकृति या नाम लगा होता है। वजन 3 तोले तक होता है।

लॉकेट या नेक्लेस : सोने का यह आधुनिक आभूषण है। जो मशीनी कटाई, घड़ाई से कलात्मक रुप में बना होता है। वजन 4 से 6 तोले तक होता है।

कमर का भूषण : पुराने समय में कमर में पेटीनुमा चांदी की कई मालाएं लगी होती थीं। अब इसका रिवाज़ नहीं है।

फुल्लू: पैर की अंगुलियों में अंगूठी की तरह चौड़े पिरोए जाते हैं।

झांजर : झांजर चांदी की ही होती है जिस में बोर लगे होते हैं। इसमें चलते समय आवाज होती है। पैरों के सभी आभूषण चांदी के होते हैं। इनका वजन 10 तोले तक होता है।

पाजेब : यह चांदी की होती है किन्तु इस में बोर या मंजीरें नहीं होतीं। चलते समय इसमें आवाज नहीं होती। इसका वजन 10 तोले से 12 तोले तक होता है।

पैरियां : पाजेब से हलकी होती हैं। आजकल इन का रिवाज़ है। 4 से 5 तोले तक होती हैं।

 पुरुषों का पहनावा

जारी………………….

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