प्रागैतिहासिक एवं ऐतिहासिक हिमाचल; पृष्ठभूमि (भाग 1)

वर्तमान में जो राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था है उसे ठीक से समझने के लिए उसके अतीत अर्थात इतिहास की जानकारी आवश्यक है

‘इतिहास’ का अर्थ है ‘ऐसा ही था’ अर्थात अतीत में जो, जैसा हुआ उसका यथासंभव प्रामाणिक वर्णन इतिहास

भारतीय परम्परा में इसीलिए ‘इतिहास-पुराण’ शब्द का प्रयोग एकसाथ होता आया है

मानव जाति के अभ्युदय में सहायक और पतन से बचने के लिए जिन बातों को उपयोगी माना गया उन्हें पुराणों में वर्णित किया गया

‘इतिहास’ का अर्थ है ‘ऐसा ही था’ अर्थात अतीत में जो, जैसा हुआ उसका यथासंभव प्रामाणिक वर्णन इतिहास है। अतीत में जो कुछ हुआ उसको पूरी तरह अंकित कर पाना संभव नहीं इसलिए अतीत में जो कुछ मानव की प्रगति में सहायक हुआ उसका व्यौरा लिखा जाने लगा। प्रगति में जो बाधक हुआ और आगे भी हो सकता था उसका वर्णन भी इतिहास में होने लगा। भारतीय परम्परा में इसीलिए ‘इतिहास-पुराण’ शब्द का प्रयोग एकसाथ होता आया है। मानव जाति के अभ्युदय में सहायक और पतन से बचने के लिए जिन बातों को उपयोगी माना गया उन्हें पुराणों में वर्णित किया गया। पुराणकार आदर्शवादी थे और उपदेश-प्रधान शैली में लिखते थे इसलिए अनेक स्थलों पर बढ़ा-चढ़ाकर बातें लिखीं ताकि पाठक और श्रोता पर अधिक प्रभाव पड़े और वे सद्मार्ग पर चलें। इस प्रकार भारतीय परम्परा में इतिहास, पुराण का अंग बनकर चला जिसमें ऐतिहासिक तथ्यों के साथ-साथ मानव हित की कामना बलवती रही।

वैज्ञानिक सोच के लोगों ने भारत *संपूर्ण वैदिक पौराणिक साहित्य को तर्क-विरूद्ध कोरी कल्पना सिद्ध करने का प्रयास किया

किसी स्थान का इतिहास बताता है कि वहां संगठित सामाजिक जीवन कब और कैसे प्रारम्भ हुआ

इतिहास से पता चलता हैं कि वहां के लोगों के जीवन को राजनीतिक व सामाजिक जीवन में किन सोपानों को पार करते हुए आगे बढ़ना पड़ा

वर्तमान में जो राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था है उसे ठीक से समझने के लिए उसके अतीत अर्थात इतिहास की जानकारी आवश्यक है

पुराणों की अतिशयोक्तिपूर्ण शैली, कालान्तर में उन्हें कपोल कल्पित सिद्ध करते सहायक हुई और तथाकथित वैज्ञानिक सोच के लोगों ने भारत *संपूर्ण वैदिक पौराणिक साहित्य को तर्क-विरूद्ध कोरी कल्पना सिद्ध करने का प्रयास किया। इस प्रकार भारतीय इतिहास लेखन के प्राचीन स्रोतों की भारत में उपेक्षा हुई और उन्हें अप्रमाणिक कहकर छोड़ दिया गया। आदिमानव के गुफा चित्रों, अवशेषों, जीवाश्मों, हथियारों, मि‌ट्टी के बर्तनों आदि के रूप में जो सामग्री उपलब्ध हुई उससे भी इतिहास की रचना की जाती है। संक्षेप में कहें तो किसी प्रदेश-विशेष के इतिहास को लिखने के लिए भू-वैज्ञानियों, नृ-वैज्ञानियों, भाषाविज्ञानियों और इतिहासकारों के सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। भू-वैज्ञानिक बताता है कि उस क्षेत्र में भौगोलिक परिवर्तनों का स्वरूप क्या रहा और उसका मनुष्य, जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों पर क्या प्रभाव पड़ा होगा। नृ-वैज्ञानिक बताता है कि प्राचीन काल से उस क्षेत्र विशेष में कौन-कौन सी जातियों का आगमन हुआ, वे किस प्रकार विकसित हुई और वर्तमान में जो लोग वहां रह रहे है वे किन जातियों के रक्त-मिश्रण का परिणाम हैं और उन जातियों के कौन से गुण-अवगुण उनमें आज भी देखे जा सकते हैं। भाषा वैज्ञानिक बताता है कि वर्तमान में जो बोलियां या भाषाएं इस क्षेत्र के लोग बोलते हैं, उनका विकास उस क्षेत्र में क्यों और कैसे हुआ। किसी स्थान का इतिहास बताता है कि वहां संगठित सामाजिक जीवन कब और कैसे प्रारम्भ हुआ। इतिहास से पता चलता हैं कि वहां के लोगों के जीवन को राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन में किन सोपानों को पार करते हुए आगे बढ़ना पड़ा। संक्षेप में कह सकते हैं कि वर्तमान में जो राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था है उसे ठीक से समझने के लिए उसके अतीत अर्थात इतिहास की जानकारी आवश्यक है। इतिहास लेखन से पूर्व के समय को प्रागैतिहासिक कहा जा सकता है जिसका लिखित इतिहास नहीं होता। भू-वैज्ञानिक, नृतत्व शास्त्रीय तथा पौराणिक गाथाओं के आधार पर पागैतिहासिक काल के जीवन की कल्पना की जाती है। सच यह है कि इतिहास अतीत होकर व्यतीत नहीं हो जाता वह निरन्तर हमारे संस्कारों, विचारों और आचरण में झलकता है इसलिए उसका अध्ययन आवश्यक है।

हिमाचल में मिले औज़ार कम से कम 40,000 वर्ष पुराने हैं

कुल्हाड़ियां और धारदार पत्थरों से इस क्षेत्र में मनुष्य के निवास को पुष्टि होती है

 हिमाचल का इतिहास और इसकी परम्पराएं मानव सभ्यता के प्राचीनतम काल से जुड़ी हैं। निसंदेह लगभग बीस लाख वर्ष कांगड़ा की बंगाना व्यास घाटी में नालागढ़-बिलासपुर की सिरसा घाटी में तथा सिरमौर की मारकण्डा घाटी में किसी न किसी के मनुष्य का वास रहा है। भूशास्त्रीय दृष्टि से यह क्षेत्र शिवालिक शिवालिक की तलहटी में स्थित व्यास घाटी में कांगड़ा, गुलेर और बलियारा में, बिलासपुर, नालागढ़ की सिरसा सतलुज घाटी में साथ सिरमौर की मारकण्डा घाटी के सुकेती में बिखरी हुई बजरी, पर के आकार के विशालकाय पत्थरों में गड़े पत्थर के औजारों जैसे कुल्हाड़ियां और धारदार पत्थरों से इस क्षेत्र में मनुष्य के निवास को पुष्टि होती है। इन औज़ारों को बनाने में बिल्लौरी पत्थरों का प्रयोग किया गया है। सबसे रोचक औज़ार बारीक बिल्लौरी पत्थर से बना दुधारा खुर्चना है जो अण्डाकार है। इन औज़ारों में उन्नत प्रस्तर काल के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। भारत के अन्य क्षेत्रों से प्राप्त ऐसे औजारों से तुलना कर यह कहा जा सकता है कि हिमाचल में मिले औज़ार कम से कम 40,000 वर्ष पुराने हैं।

आदिमानव टीलों पर अपना निवास बनाना पसन्द करता था

 शिकार के लिए हथियार बनाने हेतु नदी से पत्थर सहज उपलब्ध थे

आसानी से मिलने वाले पानी, वनस्पतियों और जीव-जन्तुओं ने इस क्षेत्र को मानव का निवास बनाने में सहायता दी। आदिमानव टीलों पर अपना निवास बनाना पसन्द करता था। शिकार के लिए हथियार बनाने हेतु नदी से पत्थर सहज उपलब्ध थे। प्रारम्भिक दौर में वह शिकारी और जंगली फल इक‌ट्ठा करने वाला ही था। अभी धातुओं का ज्ञान उसे न था इसलिए पत्थर से ही सारा सामान बनाता था। पत्थर के हथियारों से वह बड़े शिकार नहीं मार सकता था। इसके लिए उसने बड़े पशुओं को ऊँची चट्टानों से नीचे गिराकर मारने अथवा दलदलों में फंसाकर मारने की कला सीखी। मृत पशु का मांस खाने के लिए और खाल पहनने के लिए प्राप्त करने हेतु वह पत्थर के धारदार छुरों और खुर्चनों का प्रयोग करता था। ये औज़ार हिमाचल में मानव सभ्यता के आदिकाल के सूचक हैं।

सिन्धु घाटी की सभ्यता 3000 से 1750 ई.पू. में विकसित हुई जो कि एक विशाल भूखण्ड में फैली थी

सिन्धु घाटी के बाहर का क्षेत्र मुण्डा भाषी कोल अथवा प्रोटो आस्ट्रालाइड् लोगों का निवास स्थल था

हिमाचल का प्रागैतिहासिक काल भारत के मैदानी क्षेत्रों तथा राष्ट्रों का पालन कहे जाने वाले मध्य एशिया से आने वाले लोगों का काल है। सामान्यतः यह माना जाता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता 3000 कसे 1750 ई.पू. में विकसित हुई जो कि एक विशाल भूखण्ड में फैली थी। पश्चिम में अरब सागर से लेकर पूर्व में गंगा की घाटी तक, उत्तर में पंजाब और हिमालय की तलहटी से लेकर दक्षिण में राजस्थान और गुजरात तक इसका विस्तार था। प्रागैतिहासिक काल में सिन्धु घाटी के बाहर का क्षेत्र मुण्डा भाषी कोल अथवा प्रोटो आस्ट्रालाइड् लोगों का निवास स्थल था। जब सिन्धु घाटी के लोग गंगा के मैदान में आगे बड़े तो उन्होंने कोलों को और आगे ऊपर की ओर धकेल दिया। वे जगलों और घाटियों में जा बसे जहां वे शान्तिपूर्वक रह सकते थे और अपनी जीवन-पद्धति को सुरक्षित रख सकते थे। इस प्रकार वे हिमाचल की घाटियों की ओर आए।

वेदों में उन्हें दास, दस्यू या निषाद कहा गया है, उत्तर वैदिक साहित्य में उन्हें किन्नर, नाग और यक्ष की संज्ञा दी गई है

संभवतः पश्चिमी हिमाचल के कोली, हाली, डूम तथा चनाल और किन्नौर, लाहौल-स्पीति के चमांग-दुमांग उसी प्रजाति के अवशेष हैं

ऋग्वेद के अनुसार उनका सबसे शक्तिशाली राजा शम्बर था जिसके पास ब्यास और यमुना के बीच निन्यानवे (99) मजबूत दुर्ग थे

वेदों में उन्हें दास, दस्यू या निषाद कहा गया है। उत्तर वैदिक साहित्य में उन्हें किन्नर, नाग और यक्ष की संज्ञा दी गई है। भारत के मैदानों से आने वाले इन लोगों से पहले पहाड़ों में कौन रहते थे इसका पता नहीं चलता परन्तु कोल, जिन्हें मुण्डा भी कहते थे संभवतः हिमाचल के प्राचीनतम निवासी हैं। संभवतः पश्चिमी हिमाचल के कोली, हाली, डूम तथा चनाल और किन्नौर, लाहौल-स्पीति के चमांग-दुमांग उसी प्रजाति के अवशेष हैं। ऋग्वैदिक काल में वे पहाड़ों के स्वामी थे। ऋग्वेद के अनुसार उनका सबसे शक्तिशाली राजा शम्बर था जिसके पास ब्यास और यमुना के बीच निन्यानवे (99) मजबूत दुर्ग थे। ऋग्वेद में आर्यों और कोलों का संघर्ष दर्ज है। आर्यों को उन्हें परास्त करने में चालीस वर्ष लगे। आर्यों ने इन्हें ‘शिश्न देवा’ लिंग पूजक, म्लेच्छ और दास भी कहा है। इन्हें ‘कृष्णयोनि’ अर्थात काले तथा ‘अनासाः’ अर्थात चपटी नाक वाले कहा है। कोल नाटे कद के, मजबूत, गालों की उभरी हड्डी वाले, ऊन जैसे बालों वाले और असुंदर कहे गए हैं। निश्चय ही ऋग्वेद का यह वर्णन इन्हें आदिवासी सिद्ध करता है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इन्होंने उत्तर-पूर्वी हिमालयी दरों से भारत में प्रवेश किया था और आर्यों ने इन्हें पहाड़ों में शरण लेने को विवश कर दिया।

ऊपरी हिमालय में कोली अतिनिम्न वर्ग में आते हैं। कुल्लू, चम्बा में भी ऐसा ही है। कांगड़ा में यह वर्ग बिल्कुल निम्न नहीं है और ये विवाहादि में पत्तलें बनाने का काम करते हैं। मुख्यतः ये शिल्पी हैं।

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