इतिहास: हिमाचल के कांगड़ा राज्य का राजपूती शासन काल…..

नगरकोट मन्दिर की धनराशि और वैभव से आकर्षित होकर महमूद गजनी ने 1009 ई. में कांगड़ा पर किया था आक्रमण 

कटोच राजाओं के पास मौजूद वंशावली में राजाओं के नामों का वर्णन है

हम आपको इस बार राजपूती शासन काल के कांगड़ा (त्रिगर्त) राज्य के बारे में इस लेख में अवगत कराने जा रहे हैं । त्रिगर्त के कटोच राजवंश के आदि पुरूष भूमचन्द हुए। इन्हीं के वंशज महाभारत काल के सुशर्माचन्द्र हुए जिन्होंने कौरवों के पक्ष में युद्ध में भाग लिया था। कटोच राजाओं के पास मौजूद वंशावली में राजाओं के नामों का वर्णन है। इस वंशावली को देख कर ही इतिहासकार कनिंघम ने उल्लेख किया है। पंजाब के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र के कटोच राजवंश का उल्लेख सिकन्दर काल के यूनानी इतिहासकारों, मुस्लिम इतिहासकार फरिश्ता ने भी किया है। कांगड़ा के कटोच वंश से चार स्वतंत्र राज्य जसवां, हरिपुर, सिबा, दातारपुर अलग स्थापित हो गए। अनेक राजपूत परिवार भी कटोच वंश के साथ अपना सम्बन्ध बतलाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सातवीं शताब्दी में और उसके बाद मुस्लिम आक्रमण तक कटोच साम्राज्य रावी-सतलुज के बीच के क्षेत्र के अतिरिक्त जलन्धर द्वाब और सतलुज से आगे शिमला के पश्चिम और दक्षिण में पहाड़ी और मैदानी क्षेत्र तक विस्तृत रहा। चम्बा एक अलग स्वतंत्र रियासत रही जिसकी सीमाएं धौलाधार के दक्षिण में तराई और बंघाल तक फैली थी। कुल्लू, बंघाल, सिराज, बशहर का अलग अस्तित्व था। कांगड़ा की अन्य छोटी रियासतें जसवा, गुलेर, सिबा और दातारपुर कटोच वंश से ही अलग हुई।

नगरकोट मन्दिर की प्रचुर धनराशि और वैभव से आकर्षित होकर महमूद गजनी ने 1009 ई. में कांगड़ा पर आक्रमण किया

अपार सोना चांदी हीरे जवाहारात सैंकड़ों ऊंटों,  घोड़ों पर लादकर गज़नी ले गया

नगरकोट मन्दिर की प्रचुर धनराशि और वैभव से आकर्षित होकर महमूद गजनी ने 1009 ई. में कांगड़ा पर आक्रमण किया और अपार सोना चांदी हीरे जवाहारात सैंकड़ों ऊंटों, घोड़ों पर लादकर गज़नी ले गया। 1044 में दिल्ली शासन के मार्ग दर्शन, नेतृत्व में नगरकोट पर पनुः कटोच राजा का अधिकार हो गया। 1360 ई तक कई उल्लेखनीय इतिहास-वृत्त नहीं है। 1360 ई. में पुनः फिरोज तुगलक ने आक्रमण किए मन्दिर को लूटा, मूर्ति तोड़ कर उसे पैरों तले रौंदने के लिए मक्का भेज दिया। कटाच राज बदस्तूर चलता रहा। कटोच राजा धर्मचन्द के समय 1556 ई. में अकबर ने स्वयं सेना लेकर कांगड़ा पर चढ़ाई की और कांगड़ा पर कब्जा हो गया, अलबत्ता नगर कोट किला पर विजय नहीं पा सका। राजा टोडरमल अकबर के साथ था। उसने कांगड़ा की उपजाऊ भूमि पर अधिकार कर लिया। उसके यह शब्द थे कि उसने उपजाऊ भूमि तो ले ली और बंजर पहाड़ियों को छोड़ दिया। कुछ समय पश्चात कटोच राजा का पुनः अधिकार हो गया। 1615 ई. से 1628 ई. तक पुनः जहांगीर बादशाह को पहाड़ी राजाओं को दबाने के लिए चढ़ाई करनी पड़ी। बड़े लम्बे काल तक घेराव के बाद हो वह नगरकोट के किला को जीत सका। यादगार में कांगड़ा में जहांगीरी दरवाजा बनवाया। मुस्लिम बादशाहों के काल में पहाड़ी रियासतों से उदारता का व्यवहार रहा, वह केवल कर या नजराना लेते, शेष रियासतों पर राजाओं का ही अधिकार रहता और वे परस्पर लड़ते झगड़ते रहते।

 सारे उत्तरी भारत में प्रसिद्ध कांगड़ा के दुर्ग को अजय माना जाता था

1758 में कांगड़ा के कटोच राजा घमण्डचन्द को अहमद शाह दुर्रानी ने पहाड़ी क्षेत्र और जालन्धर द्वाब का गवर्नर नियुक्त किया। कांगड़ा के दुर्ग को जो सारे उत्तरी भारत में प्रसिद्ध था, अजय माना जाता था। इसका अनुमान इस बात से लगया जा सकता है कि दुर्रानी का नियुक्त किलेदार सैफअली, बिना साधनों के अकेला 30 वर्षों तक अपनी स्थिति स्थिर रख सका। राजा संसारचन्द ने किला पर घेरा डाला किन्तु सफल नहीं हुआ। 1778 में सैफअली मर गया। राजा ने सहायता के लिए सरदार जयसिंह कन्हैया को बुलाया जो बटाला और कांगड़ा के पश्चिमी पहाड़ी क्षेत्र के बीच द्वाबा बारी का शासक था। किला तो जीत लिया किन्तु जयसिंह 1784-85 तक उस पर काब्ज रहा। जयसिंह को मोहन सिंह सुकरचकिया ने राजा संसारचन्द की मदद से हराया और कांगड़ा किला को संसार चन्द कटोच को सौंप दिया। इस प्रकार अकबर के दो सौ वर्षों बाद किला कटोच राजाओं के हाथ आया।

बीस वर्षों तक संसार चन्द का एकछत्र राज्य रहा

राजा संसार चन्द बड़े योग्य व महत्वाकांक्षी थे। कठिन स्थितियों में उन्होंने प्रसिद्ध किला को पुनः प्राप्त कर लिया, अपने प्राचीन राज्य की सगुणांता भी हासिल करली, राज्य विवर्धन में सर्वोपरि शक्ति मिल गई। इर्दगिर्द के सभी राजाओं के सिरमौर रूप में कर प्राप्त करना शुरू किया। राजाओं को बाध्य किया कि वह नियुक्त समय पर उसके दरबार में उपस्थित रहे और आवश्यकता पर सेना के साथ उसकी सहायता करें। सारे पर्वतीय क्षेत्र पर बीस वर्षों तक उसका एकछत्र राज्य रहा। ऊंचाइयों तक उनके नाम का डंका बजता रहा जहां तक उनके पूर्वज भी नहीं पहुंचे थे। किन्तु उसके आक्रमिक स्वभाव के कारण उनका टकराव अपने से अधिक शक्तिशाली शक्तियों के साथ हुआ जिससे उसका हास हुआ और उसके वंश पर भी कुप्रभाव हुआ। 1803 में उसने बारीद्वाब पर आक्रमण किया, रणजीत सिंह ने उसे परास्त कर दिया।

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