कांगड़ा में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ “श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर”

कांगड़ा का सशक्त शक्ति मंदिर “श्री ब्रजेश्वरी देवी”

ऐतिहासिक घटनाओं, तन्त्र-मन्त्र सिद्धियों, ज्योतिष विद्याओं, देव परम्पराओं व धार्मिक विश्वासों का प्रतीक

मंदिर में मकर संक्रांति मनाने की अनोखी परम्परा

मक्खन को घाव, फोड़े-फिंसियों पर लगाने से होता है उपचार

श्री ब्रजेश्वरी देवी मन्दिर की प्रतिष्ठा के सम्बंध में पुराणों में वर्णित गाथाओं के अनुसार यहां सती वज्र रूप में अवतरित हुई

श्री ब्रजेश्वरी देवी मन्दिर की प्रतिष्ठा के सम्बंध में पुराणों में वर्णित गाथाओं के अनुसार यहां सती वज्र रूप में अवतरित हुई

हिमाचल में जहां लोगों की देवी-देवताओं के प्रति गहरी आस्था है वहीं देवी-देवताओं की भी अपने भक्तों पर अपार कृपा बनी रहती है। देश के साथ-साथ विश्वभर से यहां के देवी-देवताओं के दर्शनों के लिए हजारों की संख्या में हर वर्ष श्रद्धालु नतमस्तक होने यहां के प्रसिद्ध मन्दिरों में पहुंचते हैं। ऐसा ही आस्था का एक केंद्र है हिमाचल के कांगड़ा में प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक “श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर”।  जोकि ऐतिहासिक घटनाओं, तन्त्र-मन्त्र सिद्धियों, ज्योतिष विद्याओं, देव परम्पराओं व धार्मिक विश्वासों का प्रतीक है।

 बाणगंगा और मांझी नदी के आंचल में बसा कांगड़ा का सशक्त शक्ति स्थल ब्रजेश्वरी मंदिर रियासतीकाल से ऐतिहासिक घटनाओं, तन्त्र-मन्त्र, सिद्धियों, ज्योतिष विद्याओं, तन्त्रोक्त शक्तियों, देव परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों और धर्मावलम्बियों का अभेद्य अखाड़ा रहा है। जालन्धर पीठ के अग्रगण्य मन्दिरों में ब्रजेश्वरी मंदिर की अलग पहचान रही है।

यह मंदिर मध्यकालीन मिश्रित वास्तुशिल्प का सन्दरतम उदाहरण है। इस मंदिर का प्रवेशद्वार चांदी की परत के साथ मढ़ा हुआ है जिस पर विभिन्न देवी-देवताओं का संजीव चित्रण हुआ है। इसी द्वार के दोनों ओर गंगा और यमुना की सातवीं शताब्दी की मूर्तियां है। इस मंदिर के गर्भगृह पर बना कलश शिखर शिल्प का दर्शाता है। सभामण्डप अनेक स्तम्भों से सुसज्जित है। इस मंदिर के अग्रभाग में प्रवेश द्वार से जुड़े मुखमण्डप और सभामण्डप के शीर्ष भाग पर बने छोटे-छोटे गुम्बद, शिखर, कलश और मंदिर के स्तम्भ समूह पर मुगल और राजपूतकालीन शिल्प का प्रभाव दिख पड़ता है। यह स्तम्भ घट पल्लव शैली में बने हैं।

ब्रजेश्वरी मंदिर में प्राचीनकाल से तांत्रिक विधि से होती थी देवी की पूजा

चैत्र, आश्विन नवरात्रों व श्रावण मास में मेलों को मनाने की प्रथा का अनूठा प्रचलन

ब्रजेश्वरी मंदिर में देवी की पूजा प्राचीनकाल से तांत्रिक विधि से होती थी। वर्तमान में ब्रजेश्वरी मंदिर में पूजा ब्रह्ममुहूर्त में स्नान व श्रृंगार के साथ की जाती है और पंच मेवा का भोग लगाया जाता है तथा इसके पश्चात आरती होती है। मध्याह्न चावल और दाल का भोग लगाकर आरती होती है। सायंकालीन आरती पर दूध, चने और मिठाई का भोग लगाया जाता है। यहां चैत्र और आश्विन नवरात्रों तथा श्रावण मास में मेलों को मनाने की प्रथा का अनूठा प्रचलन है। चैत्र मास के नवरात्रों में तो वज्रभूमि वृंदावन के श्रद्धालु पीत वस्त्र पहनकर माता के मंदिर में शीश नवाने आते हैं। वह ध्यानु भक्त को अपने कुल का वंशज मानते हैं तथा ब्रजेश्वरी को कुलीष्ट मानते हैं।

मंदिर में मकर संक्रांति मनाने की अनोखी परम्परा

मंदिर में मकर संक्रांति मनाने की अनोखी परम्परा

मंदिर के गर्भगृह में भद्रकाली, एकादशी व ब्रजेश्वरी स्वरूपा तीन पिण्डियों की होती है पूजा

इस मन्दिर में है जालन्धर दैत्य का संहार करती देवी को रौद्र मुद्रा में दर्शाती एक पुरातन मूर्ति

ब्रजेश्वरी मंदिर के गर्भगृह में भद्रकाली, एकादशी और ब्रजेश्वरी स्वरूपा तीन पिण्डियों की पूजा की जाती है। यहां पिण्डी के साथ अष्टधातु का बना एक पुरातन त्रिशूल भी है जिस पर दस महाविद्याओं के दस यंत्र अंकित हैं। इसी त्रिशूल के अधोभाग पर दुर्गा सप्तशती कवच उत्कीर्ण है। जनश्रुति है कि इस पर चढ़ाए गए जल को आसन्नप्रसू स्त्री को पिलाने से शीघ्र प्रसव हो जाता है। यही जल जिन्दगी और मौत के भंवर में फंसे व्यक्ति को मुक्ति की लालसा से अविलम्ब सद्गति दे देता है। इस मन्दिर में जालन्धर दैत्य का संहार करती देवी को रौद्र मुद्रा में दर्शाती एक पुरातन मूर्ति है। इसमें देवी द्वारा दानव को चरणों के नीचे दबोचा हुआ दिखाया है। इस मन्दिर परिसर में शिव, शक्ति, राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, सूर्य, अन्नपूर्णा, तारादेवी, भैरव और सनातनी आस्था के प्रतीक असंख्य देवी-देवताओं की पुरातन कला-कृतियां देखी जा सकती हैं। इस मन्दिर में प्रवेश द्वार के सम्मुख पीतल की धातु में बने युगल शार्दुल भी शोभनीय दिख पड़ते हैं।

मंदिर में मकर संक्रांति मनाने की अनोखी परम्परा

पांच मन देसी घी चढ़ाया जाता है माता की पिंडी पर  

मक्खन को घाव, फोड़े-फिंसियों पर लगाने से होता है उपचार

इस मंदिर में मकर संक्रांति को मनाने की विशिष्ट परम्परा है। जनश्रुति है कि वज्रमय जालन्धर दैत्य का संहार करने पर माता की कोमल देह पर अनेक चोटें आ गई थी। इसका उपचार देवताओं ने जख्मों पर घृत लगाकर किया था। आज भी उसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुए संक्रांति को माता की पिण्डी पर पांच मन देसी घी, एक सौ बार शीतल कुंए के जल से धोकर मक्खन चढ़ाया जाता है उसी के ऊपर मेवे और फलों को रखा जाता है। यह भोग लगाने का सिलसिला सात दिन तक चलता है। माता के मंदिर में चढ़े इस भोग को प्रतिदिन श्रद्धालुओं में प्रसाद स्वरूप बांट दिया जाता है। यह भी लोक आस्था है कि इस मक्खन को घाव, फोड़े-फिंसियों पर लगाने से उसका उपचार हो जाता है। यहां श्रावण मास के प्रथम मंगलवार को मिंजर मेला आरम्भ होता है। इसी दिन गोटे की मिंजर बनाकर माता के छतर पर रख दी जाती है और दूसरे मंगलवार को इस गोट को पालकी में रखकर बाणगंगा की ओर शोभायात्रा निकाली जाती है। मिंजर बाणगंगा में प्रवाहित कर दी जाती है। इन मेलों के अतिरिक्त यहां होली, शिवरात्रि, कृष्ण जन्माष्टमी, सायर आदि सभी त्यौहार परम्परागत ढंग से मनाए जाते हैं।

जहां-जहां सती के अंग गिरे वही स्थल शक्तिपीठ कहलाए

यहां गिरा था सती का बायां वक्षस्थल

स मन्दिर की प्रतिष्ठा के सम्बंध में पुराणों में वर्णित गाथाओं के अनुसार यहां सती वज्र रूप में अवतरित हुई है। दक्ष प्रजापति यज्ञ में जब सती अपने

सम्पन्नता और समृद्धता का पर्याय श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर

सम्पन्नता और समृद्धता का पर्याय श्री ब्रजेश्वरी देवी मंदिर

पति को अपमानित होते देखकर देह त्याग हुई थी तो क्रोध में व्याकुल शिव सती के शव को हिमालय पर्वत की ओर ले जाते हैं। योगमाया के बल से सती का एक-एक अंग धरती पर गिरता जा रहा था। जहां-जहां सती के अंग गिरे वही स्थल शक्तिपीठ कहलाए जाने लगे। इस भूभाग पर सती का बायां स्तन भाग अर्थात बायां वक्षस्थल गिरा था। इसलिए इसे स्तनपीठ भी कहा गया है और स्तनपीठ भी अधिष्ठात्री ब्रजेश्वरी देवी है। स्तनभाग गिरने पर वह शक्ति जिस रूप में प्रकट हुई वह ब्रजेश्वरी कहलाई।

इस मंदिर में श्रद्धालु मनोरथ सिद्ध होने पर अपार धन-सम्पति चढ़ाते थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि देवी का मूल मंदिर कांगड़ा जिला में था लेकिन प्रमाण के अभाव में यह तथ्य सही नहीं है। यह मत भी है कि देवी मंदिर की धन सम्पदा किले के कोषागार में रहती थीं। ऐसे भी प्रसंग मिलते हैं कि सुरक्षा की दृष्टि से उपयुक्त स्थान होने के कारण काबुल आदि देशों के शासक अपनी धन सम्पति को कांगड़ा किला में रखते थे।

सन् 1009 ई. को गजनी के शासक महमूद गजनवी ने चौथे भारत आक्रमण पर सिन्धु नदी के तट पर विशाल हिन्दू सेना को पराजित कर मैदानी क्षेत्रों की ओर आगे बढ़ते हुए नगरकोट आ पहुंचे। यहां उसकी सेना ने एकदम किलाबन्दी कर दी। महमूद के सचिव और इतिहासकार उतबी ने लिखा है कि लूटपाट के दमनचक्र में यहां की बहुमूल्य सम्पदा को ढोने के लिए ऊंट भी कम पड़ गए थे, बर्तनों का अभाव हो गया था और लेखाकार के हाथ भी धन सम्पति का ब्यौरा तैयार करते हुए थक गए थे। सन् 1043 ई. को कांगड़ा किला महमूद के नियन्त्रण से छूट गया। इतिहासकार फरिश्ता के अनुसार दिल्ली के तोमरवंशीय राजा महिपाल को ब्रजेश्वरी देवी ने स्वपन में दर्शन देकर कहा कि वह शीघ्र ही गजनी से लौटकर वापस नगरकोट आएगी। महिपाल ने जब इस रहस्यमयी तथ्य का बखान अन्य राजाओं और प्रजा के साथ किया तो भारी संख्या में हिंदू, राजा की सेना में शामिल हुए। राजा महिपाल ने चौथे मास किला का घेराव कर महमूद की सेना को बाहर निकाला। उस विजय रात्रि को मंदिर के बाग में देवी की वही प्रतिमा अवतरित हुई जो महमूद चुराकर गजनी ले गया था। उसी मूर्ति को दूसरी सुबह ब्रह्मा की शक्ति योगमाया के नाम से मंदिर में पुन: स्थापित किया। देवी की माया से राजा महिपाल ने मंदिर को यवनों के नियंत्रण से मुक्त करवाया।

Pages: 1 2

सम्बंधित समाचार

अपने सुझाव दें

Your email address will not be published. Required fields are marked *