हिमाचल प्रदेश में आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी-बूटियों की ख़ास महत्ता…

हिमाचल: रोग निवारण के लिए प्राचीन काल में लोग आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों, लेप, मन्त्रों और ज्योतिषियों पर ही थे निर्भर

जब हम रोगों के निवारण के लिए अपनी आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी बूटियों पर ही निर्भर थे….

आज भले ही हमने चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत ज्यादा महारत हासिल कर ली है। पुराने समय की अगर बात करें तो एक समय ऐसा भी था जब हमारे पूर्वज रोग के निवारण के लिए अपनी आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी बूटियों पर ही निर्भर थे। हिमाचल प्रदेश में आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी-बूटियों की ख़ास महत्ता रही है और आज भी ये महत्ता बनी हुई है। क्योंकि प्रदेश के वनों में जड़ी-बूटियों की बहुमूल्य संपत्ति अब भी पाई जाती है।

आयुर्वेदिक चिकित्सा पर लोगों का विश्वास आज बना हुआ है। लेकिन अब नई चिकित्सा पद्धति ने बहुत सी बीमारियों के आसान से उपाय खोज लिए हैं।  पुराने समय में लोग आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों, लेप, मन्त्रों और ज्योतिषियों पर ही निर्भर थे

 हम आपको बता दें कि उस समय दवा के साथ-साथ लोग मंत्रों का भी प्रयोग किया करते थे। अगर आज के बदलते समय की बात करें तो अब भी कुछ एक क्षेत्रों में इस प्रकार के इलाज पर लोगों का विश्वास आज भी बरकरार है। प्रदेश में आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी बूटियों की पुराने समय में कितनी महत्ता थी, पुराने समय में लोग किस प्रकार इलाज करते थे! इसके बारे में हम आपको आज जानकारी देने जा रहे हैं।

प्राचीन काल में हिमाचल प्रदेश में रोग निवारण के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी-बूटियों का प्राधान्य रहा

प्राचीन काल में हिमाचल प्रदेश में रोग निवारण के लिए आयुर्वेदिक चिकित्सा एवं जड़ी-बूटियों का प्राधान्य रहा है एलोपैथिक सिस्टम और अस्पताल ब्रिटिश शासन की देन है। आयुर्वेदिक दवाइयों के अतिरिक्त लोग बीमारियों के इलाज के लिए देवी-देवताओं, भूत-प्रेतों तथा चेले-चाटों पर निर्भर रहते थे जब कोई रोग असाध्य समझा जाता था तो लोग चेलों से पूछ लेने जाते थे रोग निवारण के लिए झाड़-फूंक करवाते थे प्राचीन धर्म निरपेक्ष की विशेषता के साथ-साथ धार्मिक प्रथाओं को भी सम्मिलित किया था। उन्होंने दवा के साथ-साथ मंत्रों का भी प्रयोग किया। यह पद्धति अभी तक कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है अनेक बीमारियों के लिए देवी-देवताओं को मनाया जाता था, स्वस्थ होने पर सुखण या जात्र दी जाती थी यदि बच्चों को शीतला रोग हो जाए तो झाड़-फूंक करवाते थे नाई पानी अभिमंत्रित करके देते थे और वही इलाज माना जाता था धूनी और खाने को मुनक्का दिया जाता था शीतला मंदिर जाकर संज चढ़ाई जाती थी, इससे रोग शांत हो जाता था

प्राचीन काल में दवाई कोई नहीं दी जाती थी

प्राचीन काल में दवाई कोई नहीं दी जाती थी किन्नौर, लाहौल स्पीति आदि हिमालय पार के क्षेत्रों में चेला वैद आदि का काम लामा करते थे वैद वंशानुगत, शिक्षित अथवा अर्द्ध शिक्षित होते थे, वे स्वयं दवाइयां बनाते थे, या काढ़ा, दुशान्दा देकर इलाज करते थे वृद्ध महिलाएं भी अपने व्यावहारिक ज्ञान से बाल चिकित्सा अथवा दाई का काम करती थी नाई शल्य चिकित्सा का काम करते थे

गठिया रक्त विकार आदि के लिए नस उतारना, सिंग लगाना अथवा जोकों कौन से रक्त चुसवाना आदि इलाज प्रचलित थे जड़ी-बूटियों के लेप लगाए जाते थे, इस इलाज के विशेषज्ञों को वैद कहते थे ज्योतिषी से ग्रह दशा की जांच करवाई जाती और ग्रह शांति का उपाय जप -दान आदि से कराया जाता था

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