अपने रंगों और अद्वितीय डिजाइनों के लिए प्रसिद्ध “कुल्लू पट्टू”

कुल्लू का पारंपरिक पहनावा पट्टू

हिमाचल प्रदेश अपनी धर्म-संस्कृति, पर्यटन,इतिहास, खान-पान, आभूषण और पारम्परिक परिधानों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी एक खास पहचान बनाए हुए है। हम आपको समय-समय पर हिमाचल के हर पहलू से रूबरू कराने में प्रयासरत रहते हैं। आज हम आपको जानकारी देने जा रहे हैं रंगों और अद्वितीय डिजाइनों के लिए विश्व प्रसिद्ध “कुल्लू पट्टू” की। हालांकि कुल्लू का पट्टू ही नहीं प्रदेश में बहुत से जिलों में पट्टू को बुना जाता है लेकिन खास पहचान अगर पट्टू को मिली है तो वो है कुल्लू पट्टू । कुल्लू का पट्टू अपने रंगों और अद्वितीय डिजाइनों के लिए बहुत प्रसिद्ध है।

ठंड और बारिश-बर्फबारी के दिनों में पट्टू का लोग करते हैं खूब इस्तेमाल 

अगर हम पुराने समय में की बात करें तो हमारे लोग ऊन को हाथों से कातकर पट्टू तैयार करते थे। उसके कुछ समय बाद चरखे को ऊन कातने का माध्यम बनाया और पट्टू बनाए गए जिसे ओढ़ने और बिछाने के लिए प्रयोग किया जाता था। कड़ाके की ठंड में लोग अपने हाथों से तैयार किए गए पट्टू को ही इस्तेमाल करते थे,  जो कि आज तक अपनी विशेष पहचान बनाए हुए है और अब पट्टू हथकरघा में बुना जाता है। लेकिन आज भी हमारे गाँव में नहीं अपितु शहरों में भी ऊन के पट्टू की मांग बरकरार है । ठंड और बारिश-बर्फबारी के दिनों में पट्टू का लोग खूब इस्तेमाल करते हैं।  क्योंकि इन्हें बहुत गर्म और आरामदायक माना जाता है।

ऊनी कपड़े को विभिन्न पैटर्न और रंग योजना में बुना जाता है

किसी स्थान की जलवायु मूल निवासी के रहन-सहन, उनके भोजन और उनके पहनावे को प्रभावित करती है। लगभग पूरे साल सर्द मौसम के कारण कुल्लू घाटी में गर्म कपड़ों का ज्यादा इस्तेमाल होता है। वर्तमान में भी कुल्लू के कुछ क्षेत्रों में लोग पारंपरिक पोशाक ही पहनते हैं। पट्टू कुल्लू, मनाली, चंबा, किन्नौर और शिमला की स्थानीय महिलाओं की पारंपरिक पोशाक है। इस ऊनी कपड़े को विभिन्न पैटर्न और रंग योजना में बुना जाता है। यह शॉल से भारी होता है और इसे बनाने के लिए गहरे रंगों का उपयोग किया जाता है। कुल्लू की पोशाक हिमाचल प्रदेश की सबसे प्रसिद्ध पारंपरिक पोशाक में से एक है। साल भर ठंडी जलवायु के कारण कुल्लू घाटी में गर्म ऊनी कपड़ों का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक कुल्लू पोशाक में पुरुष चोल, डोरा, टोपी और लोई तथा महिलाएं पट्टू, ढाटू और शॉल पहनती हैं।

अपने रंगों और अद्वितीय डिजाइनों के लिए बहुत प्रसिद्ध है पट्टू

आज का प्रचलित पट्टू 1940 के दशक में अस्तित्व में आया, जब किन्नौर और बुशहर (शिमला) के बुनकर कुल्लू घाटी में आए

पट्टू हिमाचल का पारंपरिक पहनावा है जो आमतौर पर सर्दियों के महीनों में पहना जाता है। पट्टू, जिसे केवल हथकरघा में बुना जाता है,  अपने रंगों और अद्वितीय डिजाइनों के लिए बहुत प्रसिद्ध है। पट्टुओं में फूल और डिज़ाइन डालने की परम्परा बहुत प्राचीन नहीं है, परन्तु यह स्पष्ट है कि इन फूलों-डिज़ाइनों का मूलाधार झीकड़ की दोंदड़ी और वष्पोई धारी है। झीकड़ में नवीनता लाने की दृष्टि से किसी समय एक काली ऊन और एक सफेद ऊन की दो नालियां साथ-साथ चलाने की परम्परा पड़ी। इसमें दों टांगे एक साथ चलती थी। एक बार दोनों बीच की दो पाउलियों पर, दूसरी बार दोनों बाहर की पाउलियों पर। इससे काले और सफेद रंग की सीधी पंक्तियां बनती है, क्योंकि वे दांत की तरह सीधी आगे को चलती थी, इसीलिए इन्हें दोंदड़ी कहा गया। परन्तु जब इन दो रंगों की नालियों को चारों पाउलियों पर चलाया जाता है तो पंक्ति आमने सामने बनती है। कुल्लू पट्टू को किन्नौरी पट्टू के नाम से भी जाना जाता है। कुल्लू पट्टू का डिजाइन किन्नौरी से उत्पन्न हुआ हैआज का प्रचलित पट्टू 1940 के दशक में अस्तित्व में आया, जब किन्नौर और बुशहर (शिमला) के बुनकर कुल्लू घाटी में आए।

महिलाओं की पारंपरिक पोशाक

पट्टू- यह स्थानीय महिलाओं की पारंपरिक पोशाक है। यह तेज और चमकीले रंगों के साथ शॉल से अधिक मोटा और भारी होता है। महिलाएं अपने कपड़ों के ऊपर पट्टू पहनती हैं। वे इसके दोनों सिरों को बुमनीनामक स्थानीय चांदी के ब्रोच के साथ पिन करते हैं और एक लंबी सजावटी श्रृंखला के साथ जोड़ते हैं। यह पूरे शरीर को ढकता है। कमर के चारों ओर गच्ची (बेल्ट) नामक कपड़े का एक टुकड़ा बांधा जाता है। मूल रूप से कुल्लू की महिलाएं पट्टू को अपने दैनिक वस्त्र के रूप में उपयोग करती हैं। एक पट्टू की कीमत डिजाइन, रंग संयोजन और ऊन की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। अपने सिर को महिलाएं “ढाटू या थिपू” या फिर टोपी से ढक लेती हैं। महिलाएं पूरी पोशाक को पूरक करने के लिए “चंद्रहार” नामक एक लंबा चांदी का हार पहनती हैं, जिससे यह पोशाक अधिक प्रामाणिक और सुंदर हो जाती है।

पुरुषों की पोशाक चोल, लोई, डोरा और टोपी

पुरुष ‘चोल’ नामक प्लीट्स के साथ एक लंबा ऊनी कोट पहनते हैं और इसे कमर पर ‘डोरा’ नामक कपड़े से कस दिया जाता है, जो एक बेल्ट के रूप में कार्य करता है। यह ‘चोल’ तंग पैंट के साथ है जिसे ‘सुथन’ कहा जाता है। उनके कंधे ‘लच्छो’ या ‘लोई’ नामक एक कंबल से ढके होते हैं, जो ज्यादातर भूरे, सफेद, रंग के होते हैं। सिर को ऊन से बनी टोपी से ढका जाता है और इसके चारों ओर एक रंगीन डिज़ाइन किया गया बैंड होता है, और यह टोपी “कुल्लुवी टोपी” के नाम से प्रसिद्ध है।

 पट्टू का मूल और पुराना नाम ‘झीकड़’

कुल्लू क्षेत्र की महिलाओं का परिधान सदियों पुराना है। उसमें किसी तरह का अंतर नहीं आया है। परिवर्तन के नाम पर आजकल के पट्टू अधिक हल्के और अधिक रंगीन हो गए हैं। पट्टू का मूल और पुराना नाम झीकड़ है। आजकल भी बिस्तर पर बिछानें और ओढऩें के पट्टू को झीकड़ ही कहा जाता है। जब किसी पट्टू को पहनने के साथ-साथ बिछाने या ओढऩे के दोहर काम में लाया जाता है तो उसे दोहड़ू कहते हैं। आरम्भिक चरणों में यह लगभग सवा तीन मीटर लम्बा और डेढ़ मीटर चौड़ा साधारण कम्बल होता था। इसकी चौड़ाई मूलत: पहनने वाली महिला की लम्बाई पर निर्भर करती है। स्त्री-विशेष की कंधे के ऊपर से लेकर पिंडली तक जितनी लम्बाई होती है, झीकड़ की उतनी चौड़ाई होती है। झीकड़ का वहीं रंग होता था जो ऊन का रंग होता था। उसे रंगने की परम्परा नहीं थी। इसकी सुन्दरता झीकड़ के दोनों किनारों की झालरों पर निर्भर करती थी जिन्हें महिलाएं बड़े कलात्मक ढंग से गांठती और संवारती थीं, इन्हें गुणें कहते हैं। पुराने गुणों की कला कोई नहीं जानता, पुराना झीकड़ सर्वदा (और आज भी ऊनी पट्टू) दो पट्टों को बीच में सिलाने से बनता था। एक ताना-बाने के एक ही बार दो पट्टे एक ही लम्बाई-चौड़ाई के दो पट्टे बुने जाते हैं और बुनने पर उन्हें सिलाकर जोड़ दिया जाता है। ग्रामीण महिलाएं आज भी इस तरह बीच से जोड़े पट्टुओं को पसंद करती हैं, क्योंकि इस तरह के पट्टू बीच से जल्दी नहीं फटते।

पट्टू पहनना भी है एक कला

पट्टू पहनना भी एक कला है। अनजान पट्टू नहीं पहन सकता। महिला पहले पट्टू के झालरों वाले एक किनारे को बायें कंधे से लटका देती है और उसे एक हाथ से पकड़े रखती है। तब पट्टू के दूसरे भाग को पीठ के ऊपर से ओढ़ कर दाएं बाजू के नीचे से छाती के ऊपर और बाएं बाजू के नीचे से गुजार कर पहले किनारे के ऊपर तथा पीठ की ओर की पहली परत के ऊपर से दूसरे किनारे को दाएं कंधे पर से आती है। तब इन दोनों किनारों को छाती के ऊपर से गुजारते हुए पट्टू के किनारों के साथ दोनों ओर बुमणी से जोड़ देती है। फिर उसे कमर के साथ पट्कू द्वारा बांध देती है। पट्टू द्वारा दोनों बाजुओं को छोडक़र नीचे टांग की पिंडली तक साड़ी की तरह सारा शरीर ढक जाता है। पट्टू के नीचे महिला पूरे बाजू की कालर-सहित कमीज पहनती हैं और टांगों में चूड़ीदार पायजामा। आजकल सलवार कमीज का सामान्य रिवाज़ हो गया है। पुराने समय में पैरों में पूलें पहनी जाती थीं। अब बूट और चप्पलें पहनी जाती हैं।

 

 

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