लौट आओ प्यारी गौरैया…हमारे घर-आंगन में आती वो.., चीं-चीं कर घर-आंगन को महकाती थी वो ” नन्हीं चिड़ियाँ”

गौरैया का लुप्त होना चिन्ता का विषय

आधुनिक युग में रहन-सहन और वातावरण में आए बदलावों के कारण आज गौरैया पर मंडरा रहे हैं कई ख़तरे

मनुष्य की बदलती जीवन शैली ने गौरैया के आवास, भोजन व घोंसले, बनाने वाले स्थानों को कर दिया है नष्ट

भारत ही नहीं, यूरोप के बड़े हिस्सों में कभी सामान्य रूप से दिखाई देने वाली गौरैया अब रह गई हैं  काफी कम

दिल्ली सरकार ने किया है गौरैया को राजपक्षी घोषित

हमारे घर-आंगन में आती चिड़ियाँ
बच्चों बुढ़ों को लुभाती चिड़ियाँ
सुबह-सुबह चौगा लेकर, उड़ जाती चिड़ियाँ
पंख फैलाकर शाम को फिर, चीं चीं चीं कर आती चिड़ियाँ
सबके मन को भाती चिडिय़ा
पेड़-पौधों पर बैठ खुब गुनगुनाती चिड़ियाँ
चीं चीं कर घर आंगन को महकाती चिड़ियाँ
हमारे घर-आंगन में गुनगुनाती चिड़ियाँ

गौरैया का लुप्त होना चिन्ता का विषय

गौरैया का लुप्त होना चिन्ता का विषय

कभी ऐसा वक्त भी था जब गांव और शहरों में पक्षियों की चहचाहट से सुबह होती थी और शाम ढलती थी। घरों को अपनी चीं-चीं से चहकाने वाली चिड़िया (गौरैया) अब दिखाई नहीं देती। इस छोटे से खूबसूरत पक्षी का कभी इंसान के घरों में बसेरा हुआ करता था और बच्चे बचपन से इस चिड़िया को देखते बड़े हुआ करते थे। घर, आंगन में गौरैया का चहचहाना किसे अच्छा नहीं लगता। बड़े और बुर्जूग चिडियों को चौगा देना पुण्य का काम समझते थे। लेकिन अब ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है। मनुष्य की व्यस्तता ने सब कुछ गुम सा कर दिया है। वहीं अब इस पक्षी की चहचहाट भी कम ही देखने व सुनने को मिलती है। जाने घर आंगन में चहकती चिड़िया कहां गुम हो गयी है। बच्चे अब चिड़िया को सिर्फ किताबों में ही देखते हैं। वास्तविकता में लोग चिड़ियों की चहचाहट, उसकी नटखट अठखेलियों से कहीं दूर से हो गए हैं और अब यह चिड़िया वास्तविकता से परे होती नजर आ रही है। कहीं दूर-दूर तक घर आंगन में चिड़ियों की गूंज ही नहीं सुनाई देती। कहां पहले बच्चे झुंड बनाकर चिड़ियों के बच्चों को देखने के लिए पेड़ों पर चढ़ जाते थे। घर से दाना चुराकर उन्हें चौगा खिलाते थे तो कहां बच्चे अब चिड़ियों की कहानी सिर्फ किताबों में ही पढ़ पाते हैं। गौरैया के अस्तित्व पर छाए संकट के बादलों ने इसकी संख्या काफी कम कर दी है और कहीं-कहीं तो अब यह बिल्कुल दिखाई नहीं देती। चिडिय़ा का चहचहाना किसे अच्छा नहीं लगता, लेकिन घरों में उनके लिए कोई जगह नहीं होने के कारण आधुनिकीकरण की इस अंधी दौड़ ने इस प्यारे से पक्षी के अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है। मनुष्य की बदलती जीवन शैली ने गौरैया के आवास, भोजन व घोंसलें, बनाने वाले स्थानों को नष्ट कर दिया है। आज बदलते वक्त के साथ-साथ जहां सब कुछ बदल सा गया है वहीं कभी सर्वत्र दिखाई देने वाली, हमारे घर-आंगन में फुदकती प्यारी सी चिडिय़ा जाने कहां अब गायब सी हो गई है।

चिड़िया यानि गौरैया (स्पैरो) आज एक संकटग्रस्त पक्षी है, जो पूरे विश्व में तेज़ी से दुर्लभ हो रही है । एक-दो दशकों पहले तक गौरैया के झुंड हमारे घरों, सार्वजनिक स्थलों, खिड़कियों, चबूतरों, यहां तक कि कमरों के अंदर भी देखे जा सकते थे। उसका फुदकना और चहचहाना हर किसी का मन मोह लेता, उसको दाना चुगते देखना अच्छा लगता। हमारे बचपन की बहुत सी यादें इस नन्हीं सी चिडिय़ों की अठखेलियों से जुड़ी होंगी। घरेलू गौरैया एक बुद्धिमान चिडिय़ा है, जिसने अपने को आश्रय परिस्थितियों के अनुकूल बनाया। यही कारण रहा कि यह विश्व में सबसे ज़्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिडिय़ा बन गई थी, परंतु आज यह संकट में है। इसकी संख्या तेज़ी से कम हो रही है और निकट भविष्य में इसके विलुप्त होने का खतरा है। भारत ही नहीं, यूरोप के बड़े हिस्सों में कभी सामान्य रूप से दिखाई देने वाली गौरैया अब काफी कम रह गई हैं। नीदरलैंड में तो घरेलू गौरैया को दुर्लभ प्रजाति के वर्ग में रखा है। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चेक गणराज्य, इटली, फिनलैंड और बेल्जियम में भी इसकी संख्या तेज़ी से गिरी है।
आधुनिक युग में रहन-सहन और वातावरण में आए बदलावों के कारण आज गौरैया पर कई ख़तरे मंडरा रहे हैं। सबसे प्रमुख ख़तरा उसके आवास स्थलों का उजडऩा है। आज हमारे घरों में आंगन होते ही कहां हैं, फिर बेचारी गौरैया घोंसला बनाए कहां? आधुनिक युग में पक्के मकानों की बढ़ती संख्या एवं लुप्त होते बाग-बगीचे भी उसके आवास स्थल को छीन रहे हैं। इसके अलावा भोजन की कमी भी गौरैया के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती है। भारत में गौरैया के कई नाम हैं, जैसे गौरा और चटक।

खाद्य श्रृंखला में गौरैया की भूमिका भी महत्वपूर्ण

खाद्य श्रृंखला में गौरैया की भूमिका भी महत्वपूर्ण

हिमाचल में गौरैया को चिड़िया और चिड़ी के नाम से जाना जाता है तो वहीं तमिलनाडु और केरल में यह कूरूवी नाम से जानी जाती है, जबकि जम्मू-कश्मीर में इसे चेर, पश्चिम बंगाल में चराई पाखी और उड़ीसा में घरचटिया कहते हैं। तेलुगु में इसे पिच्चूका, कन्नड़ में गुब्बाच्ची, गुजराती में चकली, मराठी में चिमानी, पंजाबी में चिड़ी, उर्दू में चिडिय़ा और सिंधी में झिरकी कहा जाता है।

घरेलू गौरैया पासेराडेई परिवार की सदस्य है। कुछ लोग इसे वीवर फिंच परिवार से संबंधित मानते हैं। नर गौरैया को सीने के रंग के आधार पर पहचाना जा सकता है। इसकी लंबाई 14 से 16 सेमी होती है। इसके पंखों का फैलाव 19 से 25 सेमी तक होता है। इसका भार केवल 26 से 32 ग्राम होता है। नर गौरैया का सिर, गाल और अंदर का भाग धूसर होता है तथा सीने के ऊपर, गला, चोंच एवं आंखों के बीच का भाग काला होता है। गर्मी में गौरैया की चोंच का रंग नीला-काला और पैर का रंग भूरा हो जाता है। सर्दी में इसकी चोंच का रंग पीला-भूरा हो जाता है. एक प्रजनन अवधि में इसके कम से कम तीन बच्चे होते हैं। इनके अंडे अलग-अलग आकार के होते हैं। अंडों को सेहने का काम मादा गौरैया के जिम्मे होता है। गौरैया 10-12 दिनों तक अंडे सहती है। गौरैया की प्रजनन सफलता उम्र बढऩे के साथ-साथ बढ़ती जाती है।

गौरैया का घोंसला…

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