हिमाचल की प्राचीनता… प्रदेश के इतिहास की परम्परा हिमालय के दूसरे क्षेत्रों की तुलना में अदभुत और अद्वितीय
हिमाचल की प्राचीनता… प्रदेश के इतिहास की परम्परा हिमालय के दूसरे क्षेत्रों की तुलना में अदभुत और अद्वितीय
(तीसरा भाग)…..
उत्खनन से प्राप्त सामग्री से यह प्रकट हुआ है कि वानगंगा घाटी (कांगड़ा), सिरसा घाटी (नालागढ़) मारकण्डा घाटी (सिरमौर) में 20 लाख वर्ष पूर्व मानव का पास रहा है। वहां गत्या के हथियार, गंडसा, कुल्हाडी आदि बहुत सी साम्रगी मिली। ये औजार स्फटक की चट्टानों से प्राप्त पत्थर से बने हैं। अन्य स्थार्ना जैसे कांगड़ा जिला में देहरा, ढलियारा, गुलेर में, बिलासपुर, नालागढ़, सुकेती में भी ऐसी सामग्री मिली है। इस प्रकार मानव का वास लाखों वर्ष पूर्व हिमालय की उपत्यकाओं में रहा है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना का आरम्भ ब्रह्मवर्त से किया जो हिमालय की तराई में उपस्थित है। जल प्रलय में सारी देव-सृष्टि जल मग्न हो आदि मानव मनु ने जल विप्लव से बचे देव-सन्तानों को लेकर हिमालय के शिखर से उतर कर सरस्वती के किनारे सारस्वत प्रदेश में सृष्टि की रचना की। यह वृतान्त वेद संहिता में मिलता है।
प्राचीन इतिहास की झलक पुराणों की गाथाओं अथवा जनश्रुती में उपलब्ध
इस युग के पश्चात ऋग्वेद में कुछ प्राचीन जातियों का उल्लेख आता है:- असुर, देव, दस्यु, निषाद पुनश्च किन्नर, नाग, यक्ष तत्पश्चात् कोल, मुण्डा जातियों का हिमालय की पर्वत श्रेणियों उपत्यकाओं में निवास का वर्णन है। हिमालय प्रदेश के इतिहास की परम्परा मानव सभ्यता के प्रारम्भिक काल से मानी जाती है। हिमाचल प्रदेश इतिहास की परम्परा हिमालय के दूसरे क्षेत्रों की तुलना में अदभुत और अद्वितीय है। हड़प्पन सभ्यता-संस्कृति का विस्तार-प्रसार, —शास्त्रों का निर्माण सरस्वती नदी के तट पर हुआ जिसका उद्गम और प्रवाह बाचल प्रदेश के भूभाग में हुआ। इन बातों का अन्वेषण हुआ है और यह क्रम जारी है। अनेक घटनाओं पर प्रकाश पड़ा है और आगे भी होने वाला है। प्राचीन इतिहास की झलक पुराणों की गाथाओं अथवा जनश्रुती में उपलब्ध होती है। हिमाचल का महत्वपूर्ण क्षेत्र कांगडा, चम्बा, मण्डी, हमीरपुर, ऊना जिले हैं जो संस्कृत साहित्य और इतिहास में त्रिगर्त के नाम से जाना जाता है इसका वर्णन महाभारत, स्कन्ध पुराण, विष्णु पुराण, हेम कोश, राजतंरगिणी में बार बार आता है। महाभारत में वर्णन है कि त्रिगर्त का राजा सुशर्मा कौरवों का पक्षपाती था और उसने उनके कहने पर मत्स्य राजा विराट पर आक्रमण किया, पांडव राजा विराट के पास शरण लिए हुए थे। इस देश की राजधानी पहले मुल्तान (मूल स्थान) थी। महाभारत युद्ध के पश्चात पराजय में मुल्तान की भूमि हाथ से निकल गई और यह जलन्धर आ गए और नगर कोट बनाया। पौराणिक गाया है कि चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को देवी के पसीने से अर्द्ध रात्री में एक महामानव का प्रादुर्भाव हुआ जिसका नाम भूमि चन्द्र पड़ा। इसी भूमि चन्द्र का 234वीं पीढ़ी में महाभारत कालीन सुशर्म चन्द्र हुआ। इसी श्रृंखला में 489वीं पीढ़ी में राजा संसारचन्द हुआ। अंग्रेज इतिहासज्ञ ग्रिफिन के अनुसार- कांगडा के राजाओं की वंशावली दुनिया के अन्य राजवंशों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है, अटूट है। कनिंघम के शब्दों में:- “राजवंश के प्रथम पुरूष भूमि चन्द्र हुए हैं, यही कथित रूप में ज्वालामुखी मन्दिर के निर्माता हुए हैं। महाभारत कालीन राजा सुशर्मचन्द्र ने कांगड़ा दुर्ग की स्थापना की।”
इतिहासकार हेमचन्द्र ने जालन्धर और त्रिगर्त को समानार्थ कहा है। पद्मपुराण के उत्तराखण्ड में इस प्रकार वर्णन हैः- जलन्धर की उत्पत्ति पर पृथ्वी कांपने लगी और रो पड़ी, तीनों लोकों में बड़ी भयंकर गर्जना हुई। ब्रहम की समाधि टूट गई, पृथ्वी को भयभीत देख, हंस पर सवार हो समुद्र की ओर गया। ब्रह्मा ने पूछा ! “रे समुद्र ! व्यर्थ में इतना भयंकर और डरावना शोर क्यों कर रहे हो? समुद्र ने उत्तर दिया, “हे देवाधि देव! मैं नहीं हूं, यह मेरा शक्तिशाली पुत्र है जो गरज रहा है।” जब ब्रह्मा ने समुद्र के अद्भुत पुत्र को देखा तो वह आश्चर्यचकित रह गये। बालक ने ब्रह्मा को दाढ़ी से पकड़ लिया। जब बालक से ब्रह्मा अपने को न छुड़ा सके तो समुद्र ने छुड़ाया। ब्रह्मा ने बालक की शक्ति की बड़ी प्रंशसा की। उसका नाम जलन्धर रखा और बड़े प्यार से वर दिया कि वह तीनों भवनों का भोग करेगा। जब वह बालक बड़ा हुआ तो दैत्यों के गुरू शुक्र आए और समुद्र को कहा कि वह जम्बू द्वीप से हट जाए और जलन्धर के रहते योग्य धरती अपनी लहरों से खाली कर दे। शुक्र के इतना कहने पर समुद्र ने अपनी लहरें हटा ली और तीन सौ कोस धरती खाली शुष्क रहने दी जिसका नाम पवित्र जलन्धर पड़ा। वास्तव में यह पौराणिक कथा इस तथ्य का एक रूपक है कि सिन्धु गंगा का यह सारा मैदानी भूभाग पहले समुद्र था। जलन्धर की समतल भूमिका सन्धि बिन्दु था।
जलन्धर की कथा इस भौतिक यथार्थता का परम्परागत् स्मरण मात्र है। जलन्धर नगर का नाम जलन्धर पीठ था। यह प्रदेश व्यास नदी के उत्तर में है, मुख्य स्थान ज्वालामुखी है, पीठ जलन्धर के नीचे है, पीव मुल्तान में है, शेष शरीर सतलुज व्यास नदी घाटी में है। वास्तव में यह पौराणिक गाथा एक अद्भुत भौतिक सत्य है। गंगा सिन्धु मैदान समुद्र रहा है। समुद्र हट जाने पर यह विशाल भूभाग समतल भूमि के रूप में हिमालय की तराई में उभर कर अस्तित्व में आया। इस हड़प्पन गंगा-सिन्धु मैदानी क्षेत्र का जलन्धर केन्द्र बिन्दु रहा है। वैवस्वत मनु की प्रलय की कथा और हिमाचल की चोटी पर बास नई सृष्टि बसाने की कथा इसी कथा का दूसरा रूप है।
मार्कण्डेय पुराण में वर्तमान चम्बा का वर्णन ब्रह्मपुर नाम से
मार्कण्डेय पुराण में वर्तमान चम्बा का वर्णन ब्रह्मपुर नाम से है। पाणिनी कालीन भारत में हिमाचल जनपदों की दो प्रमुख इकाइयों में त्रिगर्त संघ में कोण्डो, परथ दाण्डकी, श्रेष्टकी, जालमीन, जानकी तथा ब्रह्मगुप्त का उल्लेख है। इसी क्षेत्र के लिए पाणिनीकाल में गाब्दिशब्द का प्रचलन उस काल में था जो आज गद्दी का पर्यायवाची समझा जा सकता है। आज भी इस क्षेत्र को गद्देरन संज्ञा देकर गद्दियों से इसको जोड़ते हैं।
त्रिगर्त अर्थात तीन नदियों रावी, व्यास और सतलुज के बीच का देश
हिमाचल की ऊंची पर्वत श्रेणियों के पार लाहौल, स्पीति, किन्नौर में वास करने वाली जातियां चमंड, डमंग, भोट किरात थी। इनके आकार मंगोलियन- तिब्बती अधिक हैं। व्यास और यमुना के बीच के क्षेत्र पर एक शक्तिशाली राजा शम्बर रहे हैं, इस क्षेत्र में राजा शम्बर ने 99 दुर्गा का निर्माण कर राज्य को शक्तिशाली बनाया।
त्रिगर्त अर्थात तीन नदियों का देश-रावी, व्यास और सतलुज के बीच का देश। बाद में त्रिगर्त व्यास की निचली घाटी पहाड़ी क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होता रहा और मैदानी भाग को जलन्धर नाम दिया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक कांगडा का नाम त्रिगढ़ था। प्राचीन साहित्य में त्रिगर्त ही है।
राजपूत परिवारों में कटोच भी सबसे प्राचीन
कांगड़ा राजर्पोरवार की प्राचीनता निस्संदिग्ध है। राजपूत परिवारों में कटोच भी सबसे प्राचीन है। राजतरंगिणी में और ह्यूनत्सांग के यात्रा प्रसगों में जो वर्णन पाए जाते हैं उनसे यह स्पष्ट है कि सैकड़ों वर्षों तक यह स्वतंत्र राज्य था। राजतंरगिणी में जलन्धर और त्रिगर्त का बार बार उल्लेख है, पांचवी शताब्दी के अन्त में उल्लेख है। फिर सातवीं शताब्दी में हह्यूनत्सांग ने विस्तार से वर्णन किया। उसके अनुसार त्रिगर्त की राजधानी नगरकोट थी। त्रिगर्त में कांगड़ा, चम्बा, मण्डी, बिलासपुर, सुकेत शताद्रि शामिल थे। मुस्लिम इतिहासकार अलबरूनी ने भी नगर कोट का वर्णन किया है-1027-31। चम्बा के ताम्रपत्रों-1050-60 में भी दसवीं शताब्दी की घटनाओं का उल्लेख है जब कीरा कबीले ने जम्मू और बल्लौर (बसोहली) की सहायता से चम्बा पर आक्रमण किया। चम्बा की सहायता में त्रिगर्त और कुल्लूट (कुल्लू) के राजा आए थे। सम्भवतः सारा पहाड़ी क्षेत्र रावी तक प्राचीन समय में जलन्धर अथवा त्रिगर्त राज्य का भाग था। कांगड़ा के राजाओं के प्रति आधुनिक काल में कटोच प्रत्यय प्रयुक्त होता है।
कांगड़ा को तीन भागों में बांटा जा सकता है- कांगड़ा नगर के इर्द गिर्द जिसे कोट भी कहा जाता है। दूसरा चंगर जो पालम के दक्षिण में टूटा फूटा पहाड़ी क्षेत्र और पालम जो कांगड़ा और बैजनाथ के बीच है। कांगड़ा या नगरकोट समस्त भारत में प्रसिद्ध था। बैजनाथ मन्दिर के प्रशस्ति-पत्र में जलन्धर और त्रिगर्त एक ही देश के दो नाम हैं। किरग्राम या बैजनाथ के राजंक-जयचन्द्र को जलन्धर का उच्चतम राजा कहा गया है। कटोच राजाओं को अपने मूल उद्गम बारे जानकारी नहीं है। कटोच मूल से अन्य रियासतों का उद्गम हुआ-जसवां गुलेर, सिब्बा, दातारपुर पाणिनी के अनुसार त्रिगर्त में छः जनपदों का एक संघ था जो त्रिगर्त शष्ठ के नाम से प्रसिद्ध था। ये जनपद कौण्ड़ो, पार्थ, दण्डक, कुरीष्टकी, जलनी, जलमन्ती ब्रह्मगुप्त, जानकी थे। ब्रह्मगुप्त की पहचान या आज का भरमौर की जा सकती है। त्रिगर्त का राज्य इतना शक्तिशाली था कि विश्व विजेता बने सिकन्दर की सेना ने व्यास से आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। हिमालय के इस क्षेत्र के प्राचीन नामों में युगान्धर भी है, यह यमुना की घाटी का क्षेत्र है जिसमें सिरमौर रियास्त भी आती है। इतिहासकार अग्रवाल के अनुसार युगान्धर को सरस्वती और अप्पर यमुना के बीच अम्बाला जिला भी माना जाता है। आज के शिमला, सोलन जिले और कालका को मिलाकर कुनिन्द जनपद रहा होगा। जो सिक्के प्राप्त हुए हैं उनसे प्रकट होता है कि ऊपरी सतलुज और व्यास के बीच का क्षेत्र कुनिन्दा जनपद था। ये सिक्के ब्रह्मी और खरोष्टी निर्मा में अंकित हैं और शिव के चित्र अंकित हैं। अरकी तहसील में चान्दी के सिक्के मिले हैं जिन पर ब्रह्मी और खरोष्टी लिपी में निम्न अंकित है-
“राजन कुनिन्दन्य अमोघ भूतिस्य महाराजस्य।”
कुनिन्द राजा अमोध मूर्ति ने हिन्दू-यूनानी राज्य के खण्ड पर ईसा से पहली शताब्दी में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया। इन सिक्कों पर हिरण, स्वस्तिका, लक्ष्मी, नन्दीपाद के चित्र अंकित हैं। इन सिक्कों से पूर्ण सत्यता प्रकट नहीं होती क्योंकि यूनानियों का साम्राज्य इस क्षेत्र तक तो था ही नहीं। छत्रेश्वर सिक्के दूसरी शताब्दी के हैं जब कुशन साम्राज्य का अन्त हुआ था।
औदुम्बरा-कांगड़ा जिला का पूर्वी भाग, हुश्यारपुर (आज का ऊना जिलाधी) गुरदासपुर जिले कभी औदुम्बरा जनपद और बस्ती रही है। ब्रह्मी खरोष्टी में जो सिक्के मिले हैं उन पर ‘भगवतो महादेवस्य राजस्य‘ अंकित है। औदुम्बरा के लोग प्रसिद्ध व्यापारी थे जिन का व्यापार मध्य एशिया के राज्यों से था। हर एक राज्य की अपनी शासन पद्धति थी, स्थानीय बोली और स्थानीय देवता थे। राजनीतिक संस्थाओं और धर्म, रीति रिवाजों का गहरा सम्बन्ध था। ये जनपद केवल भौगोलिक इकाई मात्र नहीं थे, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक इकाई भी थे। पहाड़ी लोगों के स्थानीय देवता भी यही प्रकट करते हैं। राजा भी उन्हीं देवताओं के नाम पर राज्य करते थे जिन पर उस राज्य के लोगों की निष्ठा होती थी। बशहर में भीम काली के आदेश पर शासन चलता था। इसी प्रकार कुमार सेन में प्रभुता ईश्वर महादेव के नाम पर थी। यह समझा जाता था कि वही देवता राजा को राजसिंहासन पर बिठाता है। ठकुराई या रणोहतों के नाम पर युद्ध किए जाते थे।
सुशर्मन कांगड़ा के राजाओं के वंशावली में आता है कटोच वंश
महाभारत में त्रिगर्त के राजाओं की बहादुरी के कारनामों का वर्णन हैं। उनके पास बेशुमार धन और जनबल था। एक लम्बे युद्ध के पश्चात ही अर्जुन सुशर्मन को परास्त कर सका था। उसने कई जनपदों को परास्त किया; मत्स्य देश के राजा विराट पर विजय पाई। सुशर्मन कांगड़ा के राजाओं के वंशावली में आता है जो कटोच वंश है। पहाड़ी लोग युध्दकला में निपुण थे। ये समस्त जनपद प्रजातंत्र थे जिनका अधिकार एक बड़ी केन्द्रीय जनसभा को होता था। कार्यकारिणी केन्द्रीय सभा के नियंत्रण में होती थी। ग्रामों के मुखिया तानाशाही परिवारों से होते थे। महाभारत में स्वयं श्री कृष्ण कहते हैं कि वह केन्द्रीय सभा के आधीन है न कि उसके स्वामी। गणसंघ की कार्यकारिणी की निश्चित संख्या होती थी। कार्यकारिणी का प्रधान संघपति होता था। महाभारत तथा अन्य साहित्य का जो विवरण मिलता है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उस समय पहाड़ी राज्य शक्तिशाली और समृद्ध थे। आहिस्ता आहिस्ता ये जनतंत्र खानदानी प्रधानों के हाथों में चले गए, वे सैनिक नेता भी थे। उन्होंने ही अपने लिए राणा, राजा, ठाकुर नाम धारण कर लिए।
रामायण, महाभारत, विष्णुपुराण, राजतरंगिणी में है कुल्लू राज्य का वर्णन
त्रिगर्त के साथ कुलूट या कुल्लू राज्य था जिसका वर्णन रामायण, महाभारत, विष्णुपुराण, राजतरंगिणी में है। इतिहासिक अभिलेखों से इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि कश्मीर और कांगड़ा की भान्ति कुल्लू का इतिहास भी अति प्राचीन है। सबसे प्राचीन इतिहास का रिकार्ड राजा कुल्लू “वरियस” का एक सिक्का है जिस पर ब्रह्मलिपि में इस प्रकाप लिखित है- “राजन कोलुतस्य वीरयसस्य”। एक अक्षर ‘राणा‘ खरोष्ठी में है। यह प्राचीन कुल्लू का सिक्का बहुत महत्वपूर्ण और दिलचस्प है। इससे प्राचीन भारत की रियास्तों की प्राचीनता का पता चलता है। यह सिक्का योरूपियन इतिहासकारों के अनुसार पहली या दूसरी शताब्दी ईसा का है। कांगड़ा घाटी में दो प्राचीनतम शिलालेख ब्रह्मी और खरोष्टी लिपी में मिले हैं, एक कनिहारा-धर्मशाला के पास जिसमें एक गुम्फा अरम की नींव जिसे ‘कृष्णायासस‘ नाम के व्यक्ति ने डाली। उस काल के लद्दाख के शिलालेख भी खरोष्टी में हैं। बाद का दूसरा शिलालेख सलानू जो कुल्लू की सीमा में है। यह चौथी या पांचवी शाताब्दी का है। इसमें लिखा है- महाराजा चन्द्रेश्वर हस्ती पुत्र महाराजा ईश्वर हस्ती, वत्सवंश ने राजिल्लाबल को युद्ध में जीता और नगर का नाम सलीपुरी। कनिहारा और कुल्लू दोनों स्थानों पर ‘यशस‘ नाम के अन्त में आया है, यह विस्मय कारक है।