हिमाचल: ऋतुओं पर आधारित त्यौहार

नववर्ष का गीत गाते हुए लोग एक गांव से दूसरे गांव तक जाते हैं और मंदिरों में भी गाते-बजाते हैं

म्या के ब्रह्मपुर क्षेत्र में इस त्यौहार को ढोलरू कहा जाता है

यहां का लोकजीवन विक्रम संवत से जुड़ा है। चन्द्र-गणना के आधार पर चैत (मार्च-अप्रैल) का महीना वर्ष का पहला महीना बनता है। लोग इस दिन उत्सव मनाते हैं और मानते हैं कि ऐसा करने से वर्ष खुशियों और समृद्धि से भरा भगवान रघुनाथजी की वंदना से कुल्लू दशहरा उत्सव का आरंभहोगा। इस दिन ढाक या तुरी जाति के लोग नववर्ष का गीत गाते हुए एक गांव से दूसरे गांव तक जाते हैं और मंदिरों में भी गाते-बजाते हैं। यह त्यौहार चतराली या चतरा कहलाता है।

कुल्लू में चतराली, चैत की रातों को कहते हैं जयग कहलाती गांव की औरतें इकट्ठे होकर चरगाहों में नृत्य करती हैं। राम्या के ब्रह्मपुर क्षेत्र में इस त्यौहार को ढोलरू कहा जाता है। यह चैत महीने के प्रथम सप्ताह में मनाया जाता है। चैत, पहाड़ी लोग में इसलिए भी लोकप्रिय है क्योंकि अनेक गीतों का संबंध जैसे कि ढोलरू और चिंग, इससे जुड़ा है।

हिमाचल के ग्रामीण क्षेत्रों में नवरात्रों पर विशेष आयोजन पहले तो नहीं परन्तु अब होने लगे हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में  दुर्गा अष्टमी को विशेष धार्मिक महत्त्व का माना जाता है। इस दिन परिवार का प्रत्येक सदस्य उपवास रखता है और निकटतम दुर्गा-मंदिर में जाता है और वहां लगने वाले मेले में शामिल होता है। संवत चढ़ते ही कांगड़ा, ज्वालामुखी, नयनादेवी तथा चामुंडा, नदीकेश्वर में नवरात्रों के मेले लगते हैं। लाखों की संख्या में जातरूदेवी दर्शनों को आते हैं। इनमें पहाड़ी ऊनी चादरों, बांस की वस्तुओं तथा कटोर उद्योग से बनी वस्तुओं का विक्रय होता है। देवी के विभिन्न रूपों में मनौतियां करते जातरू मां के चरणों में दंडवत प्रणाम करते हैं और भेंटे चढ़ाते हैं। वे भजन-कीर्तन करके चरणामृत और प्रसाद पाते हैं। देवी-मंदिरों में इन दिनों बच्चों के मुंडन तथा यज्ञोपवीत संस्कार करवाने का भी रिवाज है।

वैशाखी

कृषि से जुड़ा सबसे महत्त्वपूर्ण और लोकप्रिय त्यौहार वैशाखी है। शिमला के पहाड़ों में इसे विशु या बिशा, किन्नौर में बीसकांगड़ा में बिसोबा‘, पांगी-चम्बा में लिशूकहा जाता है। यह सामान्यतः वैशाखी के दिन मनाया जाता है परन्तु कहीं-कहीं वैशाखी से दो या तीन दिन पहले भी आरम्भ हो जाता है। इस दिन लोग पवित्र नदियों और झीलों के जल से स्नान करते हैं।

वैशाखी के दिन परिवार के सारे सदस्य स्नान करते हैं। कुछ लोग गिरि-गंगा, शिमला के निकट तत्ता पानी, बिलासपुर में मारकंड़ा, कांगड़ा घाटी में बंगाना, मण्डी में रिवालसर एवं प्राशर झील में स्नान करने जाते है। स्त्रियां और बच्चे अपनी सबसे बढ़िया पोशाकें पहनते हैं। स्त्रियां पुस्तैनी आभूषण पहनती हैं। शाम को विशेष प्रकार के पकवान तैयार होते हैं और सामाजिक दृष्टि से ऊँची जातियां निर्धनों को पकवान बांटती हैं।

भादों के उतरार्द्ध में किन्नौर में मनाया जाता है "फुलैच उत्सव"

भादों के उतरार्द्ध में किन्नौर में मनाया जाता है “फुलैच उत्सव”

 विशु (वैशाखी) का मेला अनेक गांवों में दिन में होता है। स्त्रियां पुस्तैनी आभूषण पहनती हैं। शाम को विशेष प्रकार के एकवान तैयार होते हैं और सामाजिक दृष्टि से ऊँची जातियां निर्धनों को पकवान बांटती हैं।

विशु (वैशाखी) का मेला अनेक गांवों में दिन में होता है। ऐसे येते पहाड़ी की चोटी पर ग्राम देवता के झण्डे के नीचे मनाए जाते हैं। घोलनी रंग-बिरंगी पोशाकों में पर्वतीय ढलानों पर बैठी, मेले का आनन्द सोती नारियां, आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करती है। जीवन की एकरसता को सोड़ने के लिए स्त्रियां भी नृत्य में भाग लेती हैं।

 प्रत्‍येक नई ऋतु के आने पर कोई न कोई त्‍यौहार मनाया जाता है । इसके साथ कुछ त्‍यौहारों का फसल के आने से भी संबंध है । त्‍यौहारों की तिथियां देसी विक्रमी संवत के महीने के अनुसार गिनी जाती है । वैसे प्रत्‍येक महीने का पहला दिन सं‍क्रान्ति कहकर पुकारा जाता है।

माघसाजा या लोहडी : यह त्‍यौहार प्रथम माघ की संक्रन्ति को मनाया जाता है। निचले क्षेत्रों में इसको लोहडी या म‍कर-संक्रन्ति कहते है, मध्‍य भाग में माधी या साजा। इस दिन भी बैसाखी की भांति तीर्थ स्‍थानों पर स्‍नान करना शुभ माना जाता है। पकवान के रूप मे खीचडी बनाई जाती है जिसे घी के साथ परोसा जाता है । लोग भोर काल में उठकर स्‍नान करते है तथा अपने सगे सम्‍बंधियोंक के घर जाकर पाजा नामक वृक्ष की पत्तियां बडो के हाथ में देकर उनका अर्शिवाद लेते है और बडे उन्‍हे भेट स्‍वरूप पैसे व मिठाईयां (रेवडिया, गुढ) प्रदान करते है। कुछ लोग इस दिन अपने ईष्‍ट देवता के मन्दिर में जाकर उनका आर्शिवाद प्राप्‍त करते है।

 शिवरात्रि:- फाल्‍गुन मास के कृष्‍ण पक्ष को चौदवही तिथि को मनाया जाने वाला त्‍यौहार शिवरात्रि का त्‍यौहार ब‍हुत महत्‍वपूर्ण है । क्‍योकि शिवजी का हिमालय के पहाडों से सीधा सम्‍बन्‍ध है और पौ‍राणिक तौर पर शिवजी यहां के धार्मिक और अध्‍यात्मिक जीवन से जुडे है । इस दिन लोग व्रत करते है और सारी रात शिवजी के भजनो जिसे पहाडी भाषा में आंचणी कहा जाता है, गाए जाते है । इस दिन लोग पकवान बनाते है और सगे सम्‍बंधियों को पकवान दिए जाते है । जिसे पहाडी भाषा में बासी कहा जाता है ।

होली:-यह त्‍यौहार फाल्‍गुन पूर्णिमा को मनाया जाता है । लोग व्रत रखते है जो होली के जलाने के बाद खोला जाता है । इस दिन बच्‍चे, बूढे, जवान, स्‍त्री, पुरूष रंग और गुलाल की होली खेलते है और एक दूसरे पर रंग फेंकते है । इस‍के बारे में कई लोक गाथएं प्रचलित है।

चैत्र-संक्रान्ति:- विक्रमी संवत चैत मास की प्रथम तिथि से प्रारम्‍भ होता है । चैत की संक्रन्ति भी त्‍यौहार के रूप मे मनाया जाता है । लोग अपने-अपने घरो की सफाई करते है ताकि आने वाला साल उनके लिए शुभ और उल्‍लासमय हो । हालांकि इस दिन कोई विशेष पकवान तैयार नही किए जाते । लो‍ग अपने इष्‍ट देवता के मन्दिर में व अपने घर पर पूजा करते है।

विजय दशमी एवं दीपावली:- यह त्‍यौहार अश्विन के नवरात्रों के अन्‍त में मनाया जाता है । यह त्‍यौहार भारत में मनाए जाने वाले विजय दशमी के त्‍यौहार की तरह ही मनाया जाता है । इसके 20 दिन के पश्‍चात दीपावली त्‍यौहार मनाया जाता है अधर्म पर धर्म की जीत, भगवान राम द्वारा रावण का वद्ध कर 14 वर्ष का वनवास काट कर अपने घर लौटे थे तब अयोद्धया वासियों द्वारा समस्‍थ अयोघ्‍या नगरी में दीपमालाएं प्रज्‍वलित की थी उस दिन से यह त्‍यौहार मनाया जाने लगा ।

श्रीकृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी:-यह त्‍यौहार भादो अष्‍टमी को मनाया जाता है। श्रीकृष्‍ण की बाल मूर्ति को पलघूडे में झूलाकर उसकी पूजा की जाती है। व्रत और जगराता रखा जाता है । सारी रात श्रीकृष्‍ण के कीर्तन किया जाता है ।

 रक्षा बंधन:-यह त्‍यौहार सावन मास में पड़ने वाली पूर्णमासी को मनाया जाता है। इस दिन बहने अपने भाईयों को टीका लगाकर राखी बांधती है

चंबा: पांगी में जुकारू उत्सव के तीसरे दिन धरती माता की पूजा-अर्चना, पुनेही से शुरू हुआ घुरेई नृत्य

लद्दाख के स्थानीय देवता भगवान पद्मसंभव के जन्म के रूप में सेलिब्रेट करते हैं। भगवान पद्मसंभव ने तिब्बत में तांत्रिक बौद्ध धर्म की स्थापना की। हेमिस फेस्टिवल में एक रहस्यमय नकाबपोश नृत्य प्रदर्शन किया जाता है। इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत को दिखाया जाता है। इस फेस्टिवल को देखने के लिए हर साल, दुनिया भर के पर्यटक लद्दाख जाते है। इस दौरान शांत हेमिस मठ, डांस, संगीत और प्रार्थना का एक अलग ही अनुभव होता है।

हरियाली तीज, हरियाली और उपज की खुशी का त्योहार है। इस त्योहार में सावन के महीने और बारिश के आने के संकेत को खुशी-खुशी मनाते हैं। इसे शिमला के ऊपरी पहाड़ियों किन्नौर में डखराम और लाहौल घाटी में जुब्बल और शेगत्सम के नाम से भी जाना जाता है। इस फेस्टिवल के दौरान महिलाएँ चमकीले रंग के पारंपरिक वस्त्र और सोने के आभूषण पहनती हैं साथ ही अपने हाथों और पैरों पर मेहंदी लगाती हैं। हरियाली तीज त्योहार से पहले, परिवार के किसी सदस्य के द्वारा छोटे बर्तन में एक साथ पाँच से सात प्रकार के अनाज बोए जाते हैं और उन्हें घर के देवता के बगल में रखा जाता है। किसान इस दिन बैलों से खेत नहीं जोतते हैं। किन्नौर जिले के स्थानीय लोग सुंदर दुर्लभ फूलों की माला पहनते हैं, नृत्य करते है और गाते-बजाते हैं। किन्नौर में मॉनसून के महीनों में हरियाली तीज के कई मेले आयोजित किए जाते हैं जैसे कि नाग नागपी, शिब्बन दा थान और पिरोन-विरोंका थान। आमतौर पर ये छोटे मेले शनिवार को आयोजित किए जाते हैं और यहाँ के स्थानीय नायकों सुकरात और बिनाची के बलिदानों को याद करते हैं।

काज़ा का लदरचा फेस्टिवल स्पिति, लद्दाख और किन्नौर क्षेत्र के लोग अपनी संस्कृति के साथ बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। मूल रूप से ये फेस्टिवल भारत और तिब्बत के बीच के व्यापारिक संबंध को मजबूत करने के लिए आयोजित किया जाता है। यहाँ आने वाले आगंतुकों के साथ-साथ स्थानीय लोगों के लिए सामुदायिक भोजन आयोजित किया जाता है।

फुलपति एक नेपाली फेस्टिवल है जो दुर्गा पूजा के समय मनाया जाता है लगभग दस दिन तक बिल्कुल दशहरे की तरह। इस फेस्टिवल में दार्जिलिंग के लोग घूमर मठ से लेकर मुख्य शहर तक तरह-तरह के डांस करते हैं और एक बड़े जुलूस में भाग लेते हैं। ये सब प्रकृति की पूजा के लिए किया जाता है।

दसैन एक फेस्टिवल है जो सिक्किम के नेपाली हिंदू द्वारा मनाया जाता है। ये फेस्टिवल बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। इसमें दिखाया जाता है कि देवी दुर्गा ने महिषासुर का कैसे हराया था? एक पखवाड़े तक चलने वाले इस फेस्टिवल को फुलपति, महाअष्टमी, कालरात्रि, नवमी और विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है जो रावण पर भगवान राम की जीत का प्रतीक है।

भादों के उतरार्द्ध में किन्नौर में मनाया जाता है “फुलैच उत्सव”

भादों के उतरार्द्ध में किन्नौर में मनाया जाता है "फुलैच उत्सव"

भादों के उतरार्द्ध में किन्नौर में मनाया जाता है “फुलैच उत्सव”

फूलों का त्यौहार है फुलैच
भादों के उतरार्द्ध में किन्नौर में मनाया जाता है “फुलैच उत्सव”
फुलैच वास्तव में फूलों का त्यौहार है जो कि भादों के उतरार्द्ध में अथवा आसुज के प्रारम्भ में मनाया जाता है। यह उत्सव केवल किन्नौर में मनाया जाता है और विभिन्न तिथियों को मनाया जाता है। इसे उख्यांग भी कहा जाता है जो कि वास्तव में दो शब्दों से मिलकर बना है उ और ख्यांग। उ का अर्थ है फूल और ख्यांग का अर्थ है फूल की ओर देखना। जिसका अर्थ है फूलों की ओर देखने का आनन्द।
लोग गांव के निकट की सभी चोटियों पर मनाते हैं इस त्यौहार को उत्सव से पूर्व प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति पहाड़ों पर जाता है फूल इक्कठे करने के लिए सामान्यत: गांव के निकट की सभी चोटियों पर लोग इस त्यौहार
ग्राम देवता को पहनाए जाते हैं पर्वतों से लाए गए फूल और मालाएं
को मनाते हैं। उत्सव के एक या दो दिन पूर्व प्रत्येक परिवार से एक व्यक्ति फूल इक्कठे करने के लिए पहाड़ों पर जाता है। दूसरे दिन गांव के सारे लोग गांव की चौपाल में इक्ट्ठे होते हैं।
ग्राम देवता को पहनाए जाते हैं पर्वतों से लाए गए फूल और मालाएं
ग्राम देवता को मंदिर से बाहर लाया जाता है। पर्वतों से लाए गए फूल और फूलों की मालाएं ग्राम देवता को पहनाई जाती हैं। बाद में ये हार लोगों में बांट दिए जाते हैं। इस अवसर पर पुजारी भविष्यवाणी करता है और ऋतु परिवर्तन व होने वाली फसल के विषय में बताता है। लोग फूलों को अपने-अपने घर ले जाते हैं।

 

सम्बंधित समाचार

Comments are closed