मूली

मूली एक महत्वपूर्ण शाकीय फसल

 सिंचाई: मूली की खेती में बुआई से लेकर मूली के बढऩे, यहां तक कि उखाड लेने तक पानी की ज्यादा आवश्यकता होती है। गर्मी के मौसम में हर 4 से 6 दिन तथा सर्दी में 8 से 15 दिन सिंचाई करनी चाहिए। फ़सल को खरपतवार से बचाने के लिए कम से कम एक या दो निराई- गुडाई कर देनी चाहिए।
खाद और उर्वरक: 100 किलो ग्राम कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट अथवा 50 किलो ग्राम उत्तम वीर यूरिया , 125 किलो ग्राम सिंगल सुपर फॉस्फेट तथा 75 किलो ग्राम  म्युरेट आफॅ पौटाश को मेंड़ बनाने से पहले मिट्टी में मिला लेना चाहिए। जब जडें बनाना शुरू हो जाएं तब अन्य 50 किलो ग्राम युरिया खडी फ़सल में दें।
पौध संरक्षण: मूली की फ़सल को मुख्यत: सरसों सॉ फलाई तथा माहू से नुकसान पहुंचाता है।
सरसों मस्टर्ड सॉ फलाइ:  इस नाशीजीव की सुंडी से फ़सल में पौधे स्तर पर नुकसान होता है। इनका रंग काला होता है तथा वे पत्तियों पर पलते है।
एफिड (मांहू का कीड़ा) : ये छोटे हरे कीट होते हैं। ये पौधे की पत्तियों, फलों, फलों तथा तने से रस चूसते हैं जिससे पौधा कुम्हला जाता है।
नियंत्रण के उपाय: इन कीटों के नियन्त्रण के लिए जैसे ही पौध बढने लगे, फ़सल पर 0.05 मिथाइल पाराथोन  का छिडक़ाव करना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो पुन: इसका छिडक़ाव करें।
खुदाई: जब जड़े थोडी मुलायम हों तभी मूली उखाड लेनी चाहिए। खुदाई में कुछ दिनों की देरी करने पर मूली गूदेदार हो जाएगी जो कि खपत

मूली को सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है

मूली को सभी प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है

हेतु अनुपयुक्त होगी।
उपज: छोटी जड़ वाली कि़स्मों से 100 कु. प्रति हेक्टेअर की पैदावार मिलती है जबकि लम्बी जड़ वाली कि़स्मों से 350 कु. प्रति हेक्टेअर  पैदावार प्राप्त होती है।
पोषक तत्त्व: मूली में प्रोटीन, कैल्शियम, गन्धक, आयोडिन तथा लौह तत्व पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होते हैं। इसमें सोडियम, फॉस्फोरस, क्लोरीन तथा मैग्नीशियम भी होता है। मूली में विटामिन ए भी होता है। विटामिन बी और सी भी इससे प्राप्त होते हैं। जिसे हम मूली के रूप में जानते हैं, वह धरती के नीचे पौधे की जड़ होती हैं। धरती के ऊपर रहने वाले पत्ते से भी अधिक पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं।
मूली : सामान्यत:  हम मूली को खाकर उसके पत्तों को फेंक देते हैं। यह ग़लत आदत हैं। मूली के साथ ही उसके पत्तों का सेवन भी किया जाना चाहिए। इसी प्रकार मूली के पौधे में आने वाली फलियाँ ‘मोगर’ भी समान रूप से उपयोगी और स्वास्थ्यवर्धक है। सामान्यत: लोग मोटी मूली पसन्द करते हैं। कारण उसका अधिक स्वादिष्ट होना है, मगर स्वास्थ्य तथा उपचार की दृष्टि से छोटी, पतली और चरपरी मूली ही उपयोगी है। ऐसी मूली त्रिदोष वात, पित्त और कफ नाशक है। इसके विपरीत मोटी और पकी मूली त्रिदोष कारक मानी जाती है।
बुआई का समय: उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में एशियाई मूली बोने का मुख्य समय सितम्बर से फऱवरी तथा यूरोपियन किस्मों की बुआई अक्तूबर से जनवरी तक करते हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में बुआई मार्च से अगस्त तक करते हैं। बुआई के समय खेत में नमी अच्छी प्रकार होनी चाहिए। खेत में नमी की कमी होने पर पलेवा कर के खेत तैयार करते हैं। इसकी बुआई या तो छोटी छोटी समतल क्यारियों में या 30-45 से.मी. की दूरी पर बनी मेड़ों पर करते हैं। यदि क्यारियों में बुआई करनी हो तो 30 से.मी. के अन्तराल पर हैन्ड-हो से हल्की कतारे बना लें और उन कतारों में बीज बोयें। मेड़ों पर बीज 1-2 से.मी. गहराई पर लाइन बना कर बोते हैं।
खाद एवं उर्वरक : मूली शीघ्र तैयार होने वाली फ़सल है। भूमि में पर्याप्त मात्रा में खाद व उर्वरक होना चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए एक एकड़ खेत में 8-10 टन अच्छी प्रकार सड़ी हुई गोबर की खाद या कम्पोस्ट बुआई से 24-30 दिन पूर्व प्रारम्भिक जुताई के समय खेत में मिला दें इसके अतिरिक्त 40 कि.ग्रा. यूरिया 21 कि.ग्रा. डी.ए.पी. तथा 42 कि.ग्रा. म्यूरेट ऑफ पोटाश (एम.ओ.पी.) प्रति एकड की आवश्यकता पड़ती है। यूरिया की आधी मात्रा, डी.ए.पी. और पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के पहले खेत में डाल दें। आधी यूरिया की मात्रा बुआई के 20 दिन बाद शीतोष्ण किस्मों में और 25-30 दिन बाद एशियाई किस्मों में टाप डेरसिंग के रुप में दें। परन्तु यह ध्यान रहे कि उर्वरक पत्तियों के ऊपर न पड़ें। अत: यह आवश्यक है कि यदि पत्तियाँ गीली हो तो छिडक़ाव न करें।

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