हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में बसा भारत का ऐतिहासिक अंतिम गांव “छितकुल”

किन्नौर जिले में बसा भारत का ऐतिहासिक अंतिम गांव “छितकुल”

  • जहां पर्यटन पूरे साल भर अपने यौवन में रहता है: किन्नौर जिले की सांगला घाटी का अंतिम गांव “छितकुल

जहाँ पर्यटन पूरे सालभर अपने यौवन में रहता है: किन्नौर जिले की सांगला घाटी का अंतिम गांव “छितकुल”

जहाँ पर्यटन पूरे सालभर अपने यौवन में रहता है: किन्नौर जिले की सांगला घाटी का अंतिम गांव “छितकुल”

यूं तो हिमाचल पर्यटन दृष्टि से विश्व भर में जाना जाता है, लेकिन प्रदेश के कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जिनका 12 महीने पर्यटन पूरे  अपने यौवन में रहता है। उन्हीं में से  हिमाचल प्रदेश का एक ऐसा क्षेत्र है, जहां कई ऐसे खूबसूरत स्थल हैं, जिन्हें देखने पर्यटक बार-बार आना पसंद करते हैं। ऐसे ही स्थलों में से एक है किन्नौर जिले की सांगला घाटी का अंतिम गांव छितकुल। जी हाँ, हम इस बार आपको किन्नौर जिले की सांगला घाटी का अंतिम गांव “छितकुल” के बारे में बताने जा रहे हैं। “छितकुल” सांगला घाटी का दक्षिण-पूर्व का चीन की सीमा के साथ लगता भारत का अंतिम गांव है।

राष्ट्रीय उच्च मार्ग-22 पर कड़छम वह जगह है, जहां से सांगला घाटी की ओर जाने के लिए सड़क मुड़ती है। घाटी के इस खूबसूरत और सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं से सुसज्जित सांगला गांव को निहारने के बाद छितकुल के बटसेरी, मस्तरंग, खरोगला, रकछम गांव के साथ-साथ कई एडवेंचरस कैंप भी हैं। वहां देशी-विदेशी पर्यटक प्रकृति के अनूठे नजारों का करीब से आनंद लेते हैं। पूरे रास्ते रोमांच भरे हैं। बसपा नदी के किनारे बसी होने के कारण सांगला घाटी को बसपा घाटी के नाम से भी जाना जाता है।

इस पूरी घाटी को बास्पा नदी अपने साथ एक सूत्र में पिरोती हुई कलकल बहती

इस पूरी घाटी को बास्पा नदी अपने साथ एक सूत्र में पिरोती हुई कलकल बहती

हिमाचल के कई स्थलों में से एक है किन्नौर जिले की सांगला घाटी, जो अपने मनमोहक नजारों से किसी का भी दिल जीत लेती है। इस पूरी घाटी को बास्पा नदी अपने साथ एक सूत्र में पिरोती हुई कलकल बहती है। इसलिए इस पूरे इलाके को ‘बास्पा घाटी’ के नाम से भी जाना जाता है। इसी घाटी में एक गांव है छितकुल। यह इस घाटी का दक्षिण-पूर्व का चीन की सीमा के साथ लगता अंतिम गांव है। “छितकुल” (या चितकुल) समुद्र तल से 3,450 मीटर की ऊंचाई पर हिमाचल प्रदेश के किन्नौर ज़िले में स्थित यह बास्पा घाटी का अंतिम और सबसे ऊंचा गांव है। बास्पा नदी के दाहिने तट पर स्थित इस ग्राम में ‍स्थानीय देवी माथी के तीन मंदिर बने हुए हैं। कहा जाता है कि माथी के सबसे प्रमुख मंदिर को 500 वर्ष पहले गढ़वाल के एक निवासी ने बनवाया  था। इसलिए देवी का मुख्य पूजा स्थल करीब 500 साल पुराना माना जाता है। यहां एक किला और बुद्ध मंदिर है, जो आस्था का प्रतीक है। मंदिर के बाद छितकुल गांव आता है। गांव में प्रवेश करते ही ऐसा लगता है जैसे किसी कल्पना लोक में पहुंच गए हों।

  •  हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में बसा “छितकुल”

छितकुल हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में बसा है। बेहद छोटा सा यह गांव आम पर्यटकों के बीच ज्यादा मशहूर नहीं है। हां, एडवेंचर टूरिज्म के शौकीन जरूर इसके बारे में थोडा बहुत जानते हैं। यह गांव किन्नौर की सांगला घाटी में स्थित है।

किन्नौर के सबसे अंतिम और घाटी का सबसे ऊंचा गांव छितकुल, यह गांव सांगला से 26 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इसकी समुद्रतल से ऊंचाई 3450 मी. है। इस गांव में दाखिल होते ही ऐसे लगता है जैसे हम किसी कल्पना लोक में पहुंच गए हों। ऊपर की ओर हल्की ढलान में बसा यह एक ऐतिहासिक गांव है जहां पूर्णतया लकड़ी से बने छोटे-छोटे एक-दूसरे से सटे मकान ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे ये ठंड के कारण एक-दूसरे से चिपके हों। वैसे भी यह इलाका बहुत ही ठंडा है जो हमें गर्मी के दिनों में भी खूब सारी ठंड का एहसास करा देता है।

मुख्य फसलें फफरू, जौ, मटर, आलु व सरसों

वर्ष के 6 महीने यह इलाका बर्फ की चपेट में ही रहता है, जिसके कारण यहां सेब की फसल नहीं होती। यहां के लोगों का रहन-सहन सीधा सादा और सरल है। इस गांव की मुख्य फसलें फफरू, जौ, मटर, आलु व सरसों हैं जो वर्ष भर इनके लिए सहारा बनती हैं। सर्दी के मौसम के दौरान 6 महीने का राशन सरकार द्वारा डिपुओं के माध्यम से इन्हें पहले ही वितरित कर दिया जाता है। इसे लोग संभाल कर अपने-अपने ‘उरछों’ (अनाज संरक्षण का लकड़ी का कमरा) में रख देते हैं जो बर्फ पड़ने पर इस्तेमाल में लाया जाता है।

आज भी सहेजी जा रही हैं कबायली समाज की परंपराएं 

कबायली समाज की परंपराएं आज भी जा रही हैं सहेजी

कबायली समाज की परंपराएं आज भी जा रही हैं सहेजी

चीन की सीमा के साथ सटे भारत के आखिरी गांव छितकुल में कभी तिब्बत से लाए जाने वाले विशेष सफेद पत्थरों से घर की दीवारों पर कबायली समाज की परंपराएं आज भी सहेजी जा रही हैं। यहां माघ महीने में ‘खा’ नाम से त्योहार मनाया जाता है। इसमें गांव के हर बिरादरी के घर में से तीस से चालीस साल बाद नए साल के रूप में इस त्योहार को मनाने की बारी आती है। आधी रात को शुरू होने वाले त्योहार के दौरान कबायली लोग अपने साल भर के कामकाज को दीवारों पर सहेजते हैं। इस त्योहार की विशेषता यह है कि इसमें किसी देवी-देवता की पूजा नहीं होती, बल्कि प्रकृति की पूजा होती है। गांव के बुजुर्ग का कहना है कि यह हमारे बुजुर्गों से सीख मिली है। लोग कहते हैं कि यह ¨हदू और बौद्ध धर्म से भी पहले की कला है।

एक किस्म की रॉक या ट्राइबल पेंटिंग दीवारों पर जब बनाई जाती है तो साल भर यह सीख के रूप में फिर मिटाया नहीं जा सकता है। इस पेंटिंग में बिरादरी के बच्चों तक के नाम उकेरे जाते हैं कि आगे हमारे खानदान में कौन-कौन शामिल है।

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