शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने हेतु रूपरेखा
निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम के प्रावधानों पर नजर रखने के लिए बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्रीय आयोग (एनसीपीसीआर) को एजेंसी के रूप में नामित किया गया है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि RTE अधिनियम सफलतापूर्वक ईमानदारी से लागू किया जाता है, एनसीपीसीआर ने संस्थानों, सरकारी विभागों, नागरिक समाज और अन्य हितधारकों के बीच एक आम सहमति बनाने के लिए पहल की है। उसने शिक्षा के अधिकार के समुचित कार्यान्वयन के लिए योजना पर ध्यान केंद्रित करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति गठित की है जिसमें विभिन्न सरकारी विभागों के अधिकारी, शिक्षा के क्षेत्र में श्रेष्ठ काम करनेवाले और अनुभवी व्यक्ति शामिल हैं।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के साथ बातचीत के तौर-तरीकों को स्थापित करना भी आवश्यक होगा ताकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम के लागूकरण तथा निगरानी को सुनिश्चित करने के लिए वे मिलकर काम कर सकें।
अधिक से अधिक समन्वय और तालमेल के लिए अन्य मंत्रालयों शिक्षा का अधिकार अधिनियम से प्रभावित होने वाले अन्य मंत्रालयों जैसे सामाजिक न्याय और अधिकारिता, श्रम मंत्रालय, आदिवासी मामलों के मंत्रालय तथा पंचायती राज मंत्रालय के अधिकारियों के साथ बैठकें की गईं। उदाहरण के लिए, आरटीई अधिनियम का बाल श्रम अधिनियम पर विशेष प्रभाव पड़ता है और श्रम मंत्रालय को निभाने के लिए एक भूमिका है। इसी प्रकार जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा चलाए जा रहे स्कूल भी आरटीई के दायरे में आएंगे। इस प्रकार आरटीई से बच्चों के लाभान्वित होने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि एनसीपीसीआर और इन मंत्रालयों के बीच आसान समन्वय और संचार हो।
शिक्षा का अधिकार की बेहतर निगरानी के लिए बेहतर सम्बन्ध बनाने के लिए एनसीपीसीआर ने अन्य राष्ट्रीय आयोगों जैसे महिलाओं के लिए राष्ट्रीय आयोग, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग के प्रतिनिधियों के साथ मुलाकात की है। उदाहरण के लिए, यह सुनिश्चित करने के लिए कि अभावग्रस्त समुदायों के लड़के या लडकियां शिक्षा के अधिकार से वंचित न रह जाएं, आयोग एक साथ कैसे काम कर सकते हैं। यह भी सुझाव दिया गया था कि एनसीपीसीआर द्वारा आयोजित सार्वजनिक सुनवाई में सम्बंधित आयोग से एक प्रतिनिधि भी जूरी में शामिल किया जा सकता है ताकि प्रभाव को और मजबूत किया जा सके।
हालांकि, अधिनियम के बेहतर कार्यान्वयन और निगरानी के लिए देश में अधिक से अधिक इतनी जागरूकता है ताकि इसके प्रावधान समझे जाएं और सभी संस्थाओं
द्वारा शामिल किए जाएं। ऐसा करने के लिए बहुत बड़े पैमाने पर एक प्रचार अभियान शुरू करना होगा, जिसमें अधिनियम का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद, संभवतः मानव संसाधन विकास मंत्रालय और अन्य एजेंसियों के साथ संयुक्त रूप से करना होगा। एनसीपीसीआर ने इस अभियान के लिए ज़रूरी सामग्री बनाकर, जिसमें अधिनियम का सरलीकृत संस्करण पोस्टर, प्राइमर और मूलभूत प्रावधानों और अधिकारों के वर्णन पर्चे शामिल हैं, यह प्रक्रिया आरम्भ कर दी है। यह बच्चों के लिए विशेष सामग्री डिजाइन करेंगे ताकि वे भी इस अधिनियम को समझ सकें।
शिक्षा अधिकार के प्रावधानों के अनुसार स्कूलों में प्रवेश
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग ने देशभर के स्कूलों में प्रवेश की प्रक्रिया, शिक्षा का अधिकार अधिनियम- 2009 के अनुरूप सुनिश्चित करने के लिए कई कदम उठाए
हैं। इसकी आवश्यकता इसलिए महसूस की गई कि कुछ राज्यों में स्कूलों में बच्चों को पूर्व-प्राथमिक स्कूलों में नामांकन हेतु स्क्रीनिंग की जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है वह इस अधिनियम के तहत प्रतिबंधित है। अप्रैल 2010 में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को पत्र लिखकर यह मांग की कि सरकारी आदेश जारी कर स्कूलों में प्रवेश प्रक्रिया के लिए शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों का पालन किया जाए। इसकी पहल मार्च में शिक्षा निदेशालय, दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सरकार द्वारा एक सूचना जारी करने पर हुई जिसमें निदेशालय द्वारा चलाए जा रहे संस्थान राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालयों में कक्षा छह में दाखिला के लिए आवेदन मांगा गया था।
अप्रैल माह में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग के हस्तक्षेप से शिक्षा निदेशालय, दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र द्वारा सभी प्रमुख समाचारपत्रों में तथा निदेशालय की वेबसाइट पर एक प्रवेश सूचना जारी की गई, जिसमें छात्रों से 25 रुपये में नामांकन आवेदन पत्र खरीदने तथा उसके बाद एक प्रवेश जांच में बैठने की मांग की गई। चूंकि शिक्षा का अधिकार अधिनियम किसी भी प्रकार की प्रवेश जांच को प्रतिबंधित करता है तथा स्कूलों में तत्समय (पहले आओ, पहले पाओ) के आधार पर चयन पर जोर देता है, इसलिए इसे उस सूचना को अधिनियम का उल्लंघन माना गया।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम की निगरानी तथा क्रियान्वयन के नोडल निकाय के रूप में आयोग ने शिक्षा निदेशालय, दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के प्रधान सचिव, शिक्षा को एक पत्र लिखा जिसमें उस सूचना को वापस लेने के लिए कहा गया तथा उसके स्थान पर शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को जारी करने का निर्देश दिया। यह भी मांग की गई कि एक सप्ताह के भीतर सरकार शिक्षा निदेशालय, दिल्ली की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के भीतर आने वाले सभी स्कूलों को अपने प्रवेश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने के आदेश दें, ताकि स्कूल अपनी प्रक्रियाओं में आवश्यक फ़ेर-बदल कर सके।
अधिनियम के भाग-13 का प्रासंगिक प्रावधान
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“प्रवेश लेने के दौरान कोई व्यक्ति या स्कूल किसी प्रकार का शुल्क या किसी बच्चे अथवा उसके माता-पिता या अभिभावक से किसी प्रकार की जांच नहीं ले सकता।
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कोई स्कूल या व्यक्ति सब-सेक्शन (1) का उल्लंघन करते हुए,
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कोई प्रवेश शुल्क प्राप्त करता है तो उस उल्लंघन के लिए उस पर ज़ुर्माना लगाया जा सकता है जो मांगे जाने वाले शुल्क का 10 गुना होगा,
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जो स्कूल बच्चे की जांच लेता है तो उसपर 25,000 रुपये प्रथम उल्लंघन के लिए तथा 50,000 रुपये द्वितीय उल्लंघन के लिए ज़ुर्माना लगाया जाएगा।”
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग
नवोदय स्कूलों के लिए कोई जांच प्रक्रिया नहीं
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग ने नवोदय स्कूलों तथा सभी राज्य शिक्षा सचिवों को पत्र लिखकर कहा कि प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 1 से 8 तक) में प्रवेश के लिए किसी भी प्रकार की स्क्रीनिंग की स्थिति में विद्यालय प्रबंधन के विरुद्ध कार्रवाई की जाए। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग ने नवोदय विद्यालय, दिल्ली तथा अन्य राज्यों से मिली सूचना के आधार पर शिक्षा के अधिकार प्रावधानों के उल्लंघन को रोकने की मांग की।
भाग-13 नवोदय विद्यालय समेत सभी स्कूलों के लिए लागू होगा, जिन्हें शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत ‘विशेष वर्ग’ का दर्ज़ा दिया गया है। नवोदय विद्यालय द्वारा संपन्न की जा रही प्रवेश प्रक्रिया इस अधिनियम का उल्लंघन है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षा आयोग ने राज्य सरकार से यह भी मांग की कि सभी स्कूलों को शिक्षा के अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के लिए आदेश जारी किए जाएं, ताकि वे अपनी प्रवेश प्रक्रिया तथा संचालन विधि में एक सप्ताह के भीतर आवश्यक फेर-बदल कर सकें।
बाल केन्द्रित है शिक्षा का अधिकार कानून
शैक्षिक सरोकारों के इतिहास में 1 अप्रैल 2010 सदैव रेखांकित होता रहेगा। यही वह दिन है जिस दिन संसद द्वारा पारित निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 देश में लागू कर दिया गया। शिक्षा के अधिकार की पहली मांग का लिखित इतिहास 18 मार्च 1910 है। इस दिन ब्रिटिश विधान परिषद के सामने गोपाल कृष्ण गोखले भारत में निःशुल्क शिक्षा के प्रावधान का प्रस्ताव लाये थे।
एक सदी बीत जाने के बाद आज हम यह कहने की स्थिति में हैं कि यह अधिनियम भारत के बच्चों के सुखद भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होगा।
इस आलेख में लागू अधिनियम की दो धाराओं को केन्द्र में रखकर बाल केन्द्रित संभावनाओं पर विमर्श करने की कोशिश भर की गई है।
धारा 17. (1) किसी बच्चे को शारीरिक रूप से दंडित या मानसिक उत्पीड़न नहीं किया जाएगा।
(2) जो कोई उपखण्ड (1) के प्रावधानों का उल्लघंन करता है वह उस व्यक्ति पर लागू होने वाले सेवा नियमों के तहत अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए उत्तरदायी होगा।
धारा 30 (जी) बच्चे को भय, सदमा और चिन्ता मुक्त बनाना और उसे अपने विचारों को खुलकर कहने में सक्षम बनाना।
अधिनियम में इन दो धाराओं से बच्चों के कौन से अधिकार सुरक्षित हो जाते हैं? बच्चे क्या कुछ प्रगति कर पाएंगे? इससे पहले यह जरूरी होगा कि हम यह विमर्श करें कि आखिर इन धाराओं को शामिल करने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
यह कहना गलत न होगा कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था बच्चे में अत्यधिक दबाव डालती है। स्कूल जाने का पहला ही दिन मासूम बच्चे को दूसरी दुनिया में ले जाता है। अमूमन हर बच्चे के ख्यालों में स्कूल की वह अवधारणा होती ही नहीं। जिसे मन में संजोकर वह खुशी-खुशी स्कूल जाता है। कई बच्चे ऐसे हैं जो पहले दिन स्कूल जाने से इंकार कर देते हैं। इसका अर्थ सीधा सा है। अधिकतर स्कूलों का कार्य-व्यवहार ऐसा है, जो बच्चों में अपनत्व पैदा नहीं करता। यह तो संकेत भर है। हर साल परीक्षा से पहले और परीक्षा परिणाम के बाद बच्चों पर क्या गुजरती है। यह किसी से छिपा नहीं है। यही नहीं हर रोज न जाने कितने बच्चों की पवित्र भावनाओं का, विचारों का और आदतों का कक्षा-कक्ष में गला घोंटा जाता है। यह वृहद शोध का विषय हो सकता है।
उपरोक्त धाराओं के आलोक में यह महसूस किया जा सकता है कि बहुत से कारणों में से नीचे दिये गए कुछ हैं, जिनकी वजह से अधिनियम में बच्चे को भयमुक्त शिक्षा
दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख किया गया है।
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स्कूल में दाखिला देने से पहले प्रबंधन-शिक्षक बच्चे से परीक्षा-साक्षात्कार-असहज बातचीत की जाती रही है। एक तरह से छंटनी-जैसा काम किया जाता रहा है। कुल मिलाकर निष्पक्ष और पारदर्शिता का भाव निम्न रहा है।
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व्ंचित बच्चे और कमज़ोर वर्ग के बच्चे परिवेशगत और रूढ़िगत कुपरंपराओं के चलते स्वयं ही असहज पाते रहे हैं। हलके से दबाव और कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही के संकेत मात्र से स्वयं ही असहज होते रहे हैं।
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लैंगिक रूप से और सामाजिक स्तर पर भी विविध वर्ग-जाति के बच्चों को स्कूल की चार-दीवारी के भीतर असहजता-तनाव का सामना करना पड़ता रहा है।
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कई बार स्कूल में पिटाई के मामलों से तंग आकर कई बच्चे स्वयं ही स्कूल छोड़ते रहे हैं। वहीं कई अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते रहे हैं अथवा स्कूल भेजना बंद करते रहे हैं।
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स्कूल में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के चलते कई बच्चे आजीवन के लिए अपना आत्मविश्वास खो देते हैं। इस प्रताड़ना से कक्षा में ही ऐसी प्रतिस्पर्धा जन्म ले लेती है, जिसमें बच्चे असहयोग और व्यक्तिवादी प्रगति की ओर उन्मुख हो जाते हैं।
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अभी तक बच्चों की शिकायतों को कमोबेश सुना ही नहीं जाता था। यदि हां भी तो स्कूल प्रबंधन स्तर पर ही उसका अस्थाई निवारण कर दिया जाता था। शिकायतों के मूल में जाने की प्रायः कोशिश ही नहीं की जाती थी। भेदभाव, प्रवेश न देने के मामले और पिटाई के हजारों प्रकरण स्कूल से बाहर जाते ही नहीं थे।
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राज्यों में बाल अधिकारों की सुरक्षा के राज्य आयोग कछुआ चाल से चलते आए हैं। बहुत कम मामले ही इन आयोग तक पहुंचते हैं। स्कूल प्रबंधन ऐसा माहौल बनाने में अब तक सफल रहा है कि अब तक पीड़ित बच्चे या उनके अभिभावक आयोग तक शिकायतें प्रायः ले जाते ही नहीं है।
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विद्यालयी बच्चों के मामलों में अब तक गैर-सरकारी संगठन एवं जागरुक नागरिक प्रायः कम ही रुचि लेते रहे हैं। स्कूल में बच्चों के हितों को लेकर अंगुलियों में गिनने योग्य ही संगठन हैं जो छिटपुट अवसरों पर शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों के अधिकारों के प्रचार-प्रसार की बात करते रहे हैं। ऐसे बहुत कम मामले हैं जिनमें इन गैर सरकारी संगठनों ने बच्चों के अधिकारों के हनन के मामलों में पैरवी की हो।
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अब तक स्कूल केवल पढ़ने-पढ़ाने का केन्द्र रहे हैं। अब यह अधिनियम स्कूल को बाध्य करता है कि वह बाल केन्द्रित भावना के अनुरूप कार्य करे। कुल मिलाकर स्कूल अब तक बच्चों की बेहतर देखभाल करने के केन्द्र तो नहीं बन सके हैं।
Oct 01, 2016 - 10:35 PM
आज भी मधेपुरा जिला के अधिकांश निजी स्कूल में मुफ़्त नामांकन बच्चों का नहीं होता है जिसे कराई से लागु करने की जरुरत है ताकि गरीब के बच्चे भी अच्छी शिक्षा पा सके
Jan 09, 2017 - 06:59 PM
Primary school chandpara ‘po balupara ps barsoi distt katihar main ek matr urdu trachers hai jis ka Teachers student ratio ke hisab se transfer ho jane ke karan mera beti ka 4th class main ka urdu shicha bhadhit hone ki sambhawana hai iske liye kiya shicha ka adhikar main koi upai hai kirpa karke disha nirdesh de
Mar 31, 2017 - 08:09 AM
मेरा नाम राकेश सोनानी हे.मे बोर्डा ग्रामपंचायत अधीन वरोरा तहसिल चंद्रपुर जिल्हे की सेंट अॅन्स पब्लिक स्कुल मे मेरी बच्ची 4 वर्ष की स्कुल की पुरी फिस भरता हु यहा आर टी ई के तहत कोई भी नियम का पालन नही होता बच्चो जो एस.स्सी प्रवर्ग से हो या दलित सभी से फिस की सख्ती की जाती है…
Apr 26, 2017 - 03:38 PM
आज भी जयपुर राजसथान में स्कूल में बच्चो को मिलने वाली सुविधा स्कूल वाले गरीब को न दे कर सम्पन लोगो को दे रहे है गरीब का तो नाम है जिन को मिलना चाहिए उन्हें पूरा हक नही मिल पा रहा
Apr 30, 2017 - 08:02 AM
प्राय: सभी प्राइवेट स्कूलों में नामांकन के पूर्व ‘प्रवेश-परीक्षाएँ’ आयोजित कर बच्चों को Qualify/Disqualify करने का मानक अपनाया जा रहा है; कृपया माननीय लोग ध्यान दें।