शूरसेन नामक एक राजा थे। शूरसेन के पुत्र वासुदेव विवाह करके अपनी पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लडक़ा था कंस। वह अपनी चचेरी बहन देवकी को प्रसन्न करने के लिए स्वयं ही रथ हांकने लगा। जिस समय कंस रथ हांक रहा था, उस समय आकाशवाणी हुई- अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी।
कंस बड़ा पापी था। आकाशवाणी सुनते ही वह देवकी को मारने के लिए तैयार हो गया। अंत में वासुदेव ने देवकी के पुत्रों को उसे सौंपने का वचन देकर देवकी की रक्षा की।
तत्पश्चात कंस ने देवकी और वासुदेव को कैद कर लिया। उन दोनों से जो-जो पुत्र होते गए, उन्हें वह मारता गया। आखिर वह समय आ ही गया। देवकी के गर्भ से जगत के तारनहार नारायण ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया।
भगवान के जन्म लेते ही योगमाया की प्रेरणा से कारागार खुल गया। वासुदेवजी बालकृष्ण को सूप में रखकर गोकुल चल दिए। रास्ते में यमुनाजी प्रभु के चरण छूने के लिए व्याकुल हो गईं। अंतर्यामी बाल-प्रभु यमुना के मन की बात समझ गए। उन्होंने अपने चरण-स्पर्श से यमुना की व्यथा को दूर किया। वासुदेव ने नंदबाबा के घर जाकर अपने पुत्र को यशोदाजी के पास सुला दिया। उनकी नवजात कन्या लेकर वे कारागार में लौट गए। बालक कृष्ण को पाकर नंद और यशोदा की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। यशोदा को पुत्र हुआ है, यह सुनते ही पूरे गोकुल में आनंद छा गया। वहां भगवान अपनी बाल लीला से यशोदा को रिझाते रहते थे। उनकी बंसी की धुन पर सभी मोहित थे। गोपियों के घरों से माखन चुराने के कारण वे माखनचोर भी कहलाए।
भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन में ही खेल-खेल में पूतना, बकासुर, तृणावर्त आदि दानवों का विनाश किया। एक दिन भगवान अपनी मित्र-मंडली के साथ गेंद खेल रहे थे। गेंद यमुना में गिर गई। बालक श्रीकृष्ण गेंद निकालने के लिए यमुना में कूद पड़े। यमुना में कालिया नाग रहता था। भगवान उसका मान-मर्दन कर उसके फन पर नृत्य करने लगे।
कुछ समय बाद श्रीकृष्ण अक्रूर के साथ गोकुल से मथुरा आए। वहां उन्होंने अपने परम भक्त सुदामा, माली और कुब्जा आदि पर कृपा की। पश्चात भगवान ने कंस आदि असुरों का संहार कर अपने माता-पिता को बंधन से छुड़ाया। युद्ध के मैदान में अर्जुन को धर्म, कर्म और शाश्वत सत्य का उपदेश दिया।
भगवान का वह अमर संदेश गीता के रूप में आज भी जन-जन का कल्याण कर रहा है।