हिमाचल के अन्य भागों से भिन्नता लिए “लाहुल” के लोगों का खान-पान

लाहुल के लोगों का प्रिय भोजन है युद या सम्पा

  • जलवायु संबंधी समस्याओं के कारण यहां मांस मदिरा दोनों की स्वीकृति

यहां की जलवायु संबंधी समस्याओं के कारण यहां मांस मदिरा दोनों की स्वीकृति है। सभी लोग सामान्यत: मांसाहारी होते हैं। पालतु पशुओं में भेड़ तथा बकरे का, जंगली पशुओं में केवल टंगरोल (जंगली बकरा) तथा पक्षियों में चकोर, कुक्कुट, हिमकुक्कुट तथा कबूतर का ही मांस खाया जाता है। बौद्ध लोग मछली का मांस नहीं खाते, वे इसे निकृष्ट समझते हैं। यह शायद इन हिमानी प्रदेशों में उपलब्ध भी कम होती हैं। आजकल लोग अब मछली का मांस भी खाने लगे हैं और गर्मियों में छोटी मछलियां लाहुल में भी मिलती हैं।

  • लाहुल के लोगों के स्वाद के अनुसार सूखा मांस जितना पुराना होता है वह उतना ही अधिक स्वादिष्ट माना जाता है

हिमाचल के खान-पान की भी हर जिले की अपनी खास विशेषता

हिमाचल के खान-पान की भी हर जिले की अपनी खास विशेषता

सर्दियों के लिए मांस को सुखाकर भी रख लिया जाता है। इसकी सुरक्षा के लिए इसे सुखाकर अन्न के भण्डार के बीच में रख दिया जाता है। बिल्ली आदि से स्थान सुरक्षित होने पर छत से टांगकर भी रखा जाता है। लाहुल के लोगों के स्वाद के अनुसार सूखा मांस जितना पुराना होता है वह उतना ही अधिक स्वादिष्ट माना जाता है। इस प्रकार का सूखा मांस कई वर्षों तक रखा जा सकता है।

  • लाहुली भोज्य प्रणाली में मांस का प्रयोग निम्न रूपों में किया जाता है:-

थुग्पा : इसे बहुत स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्यवर्धक भोजन समझा जाता है। इसे बनाने के लिए सत्तू के घोल में सरहा (चौलाई), सूखी सब्जियां, मांस के छोटे-छोटे टुकड़े तथा चावल आदि डालकर उसे खूब उबाला जाता है। इस प्रकार जब सारी चीजों का घुलकर शोरबा-सा तैयार जो जाता है तो उसे उतार लिया जाता है। फिर इसे वनस्पति घी, तेल चर्बी में छोंककर ऊपर से स्वादानुसार नमक, मिर्च, मसाला डाल दिया जाता है। पत्थर के पात्र में तैयार किया गया थुगपा बहुत स्वादिष्ट माना जाता है। इसे ल्वाड़ के साथ खाया जाता है। इसे बीमारों के लिए पथ्य एवं स्वास्थ्यवर्धक समझा जाता है।

  • पेय: मादक पेयों बिना न तो कोई धार्मिक कृत्य पूरा समझा जाता है और न कोई सामाजिक उत्सव ही

  • अन्य शीत प्रधान क्षेत्रों के समान ही स्थिति यह है कि ये मादक पेय धार्मिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन के अभिन्न अंग

शीतप्रधान जनजातीय क्षेत्र होने से लाहुल में मादक तथा अमादक दोनों ही प्रकार के पेयों का प्रयोग अप्रतिहत रूप में किया जाता है। यहां पर मादक पेयों के बनाने में न तो कोई शासकीय प्रतिबंध है और न सामाजिक दृष्टि से इनका पान किसी भी वर्ग द्वारा हेय समझा जाता है। यहां पर तो अन्य शीत प्रधान क्षेत्रों के समान ही स्थिति यह है कि ये मादक पेय धार्मिक, सामाजिक एवं व्यक्तिगत जीवन के अभिन्न अंग है। इनके बिना न तो कोई धार्मिक कृत्य पूरा समझा जाता है और न कोई सामाजिक उत्सव ही। यह यहां के पारिवारिक पेय का तथा आतिथ्य का मुख्य अंग होता है। यहां तक कि भिक्षुओं के लिए भी सुरापान का निषेध नहीं। वे लोग मठों में धार्मिक ग्रन्थों का पाठ करते समय भी मादक द्रव्यों का पान करते रहते हैं तथा गृहस्थ लोगों के घरों में धार्मिक कृत्यों को कराते समय भी उनके द्वारा पेय के रूप में प्रस्तुत मदिरा (छङ्) का खूब पान किया करते हैं।

छङ् (गा.) : चकती या लुगड़ी: छङ्/चकती या लुगड़ी इस प्रदेश का सर्वसामान्य मादक पेय है जिसे सभी लोग सभी अवसरों पर तथा प्रतिदिन पीते हैं। इसे तैयार करने की सामान्य प्रक्रिया यह है कि जौ अथवा गेहूं के साबुत दानों को उबालकर किसी कपड़े के ऊपर या फर्श को साफ करके सुखा लेते हैं। जब थोड़े सूख जाते हैं तो इसमें फब (खमीर पैदा करने वाला तत्व) पीसकर मिला लेते हैं और उसे किसी बोरी या कपड़े के अन्दर डालकर रख दिया जाता है। ऊपर से कुछ गर्म कपड़ा डालकर ढक दिया जाता है ताकि इसमें खमीर की क्रिया पूरी हो जाए। इसके बाद इसके बराबर का ठंडा पानी मिलाकर इन्हें एक मिट्टी के बर्तन में रख दिया जाता है। दो-तीन दिन के बाद इस मसाले को मसलकर निचोड़ लिया जाता है। तथा उसमें उसी मात्रा में पानी मिला लिया जाता है। यही वह पेय है जो लाहुल निवासियों का प्रिय पेय है तथा जिसे कहीं पर छङ् तथा कहीं पर लुकड़ी या चकती कहा जाता है। इसे स्त्री-पुरूष दोनों पीते हैं। दाल-सब्जी न होने पर रोटी भी इसी के साथ खा ली जाती है।

तीकेशी या सिङसिङ : तीकेशी या सिङसिङ- यह इस मदिरा का एक अन्य रूप है। इसमें उपर्युक्त विधि से छङ् के उपादानों को खमीर-युक्त बनाकर उसे मसले और निचोड़े बिना ही उसके पानी को नितार लिया जाता है। यह थोड़ा रंगदार होता है तथा छङ से अच्छी किस्म का माना जाता है। इसे ताजा-ताजा ही पिया जाता है क्योंकि ताजा पीने पर ही इसका व नशा होता है। बाद के लिए रख देने पर इसका स्वाद कड़वा हो जाता है।

खान-पान के संबंध में लाहुल के लोगों का आचार-व्यवहार हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों के निवासियों से अनेक रूपों में भिन्नता लिए हुए

खान-पान के संबंध में लाहुल के लोगों का आचार-व्यवहार हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों के निवासियों से अनेक रूपों में भिन्नता लिए हुए

सरा/अरक (गा.) : यह सर्वोतम कोटि की मदिरा है जिसे आसवन के द्वारा निकाला जाता है। इसके लिए मदिरा की सभी उपादानभूत सामग्री को एक चौड़े पेंदे तथा संकरे मुंह के तांबे के पात्र में पानी डालकर चूल्हे पर चढ़ा दिया जाता है। इसे स्थानीय बोली में अर्दिग् या बोटुलू कहा जाता है। इनके मुंह पर एक सूराखदार पत्थर का ढकना रखा जाता है जिसमें एक नली लगा दी जाती है। इसके ऊपर एक बर्तन में ठंडा पानी रखा जाता है जिससे भाप ठंडी होकर नली से निकले। इस प्रकार आसवन की प्रक्रिया से खींची हुई मदिरा से अरक या सरा (सुरा)कहा जाता है। यह बहुत साफ एवं स्वादिष्ट होती है। इसमें आसवन सम्यक् एवं पर्याप्त मात्रा में हो इसके लिए कुदृष्टि का परिहार करने के लिए तंत्र भी किया जाता है। मदिरा मापने के पात्र को (पागसगोर्मो) कहा जाता है।

छाकुचा : नमकीन चाय: सम्पूर्ण हिमानी क्षेत्र का एक अत्यन्त लोकप्रिय पेय है। इसको तैयार करने की विधि सर्वथा देशी है। काली चाय की ताजी पत्तियां, जिसे ज़चा कहा जाता है, सोडे के साथ खूब उबालकर सुखा ली जाती हैं। चाय बनाते समय इन्हें एक केतली में नमक वाले पानी में उबालकर एक बांस या लकड़ी के लम्बोत्तर पात्र में, जिसे दोङ्मो कहते हैं, भरकर उसमें मक्खन मिलाया जाता है। फिर इन सबको एक मथानी से जिसे दोब कहा जाता है, तब तक मथा जाता है जबकि वे सारी चीजें एकाकार न हो जाएं। इसे पुन: तांबे या पीतल की केतलियों में भर लिया जाता है। इसको काफी समय तक गर्म रखने के लिए इन केतलियों में निचले घेरे में आग के कोयले रखने का भी स्थान होता है अथवा इन्हें गर्म रखने के लिए तन्दूर के पास रख दिया जाता है। इसे प्यालों में डालने से पूर्व हिला लिया जाता है, जिससे इसके सारे तत्व अच्छी तरह घुलते मिलते रहें। यह बड़ी स्वास्थ्यप्रद एवं ताजगी देने वाली होती है।

  • साभार: हिमालय की विस्मयभूमि “लाहुल”

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