"किन्नौर" किन्नर कैलाश की विशेष महत्ता के साथ संस्कृति, धर्म-परम्परा, रीति-रिवाज व पर्यटन के लिए भी विख्यात

“किन्नौर” किन्नर कैलाश की विशेष महत्ता के साथ संस्कृति, धर्म-परम्परा, रीति-रिवाज व पर्यटन के लिए भी विख्यात

महिलाओं की प्रमुख भूमिका

कन्या का उत्पन्न होना शुभ मानते हैं किन्नौरवासी

किन्नौर में अधिकतर कार्यों में महिलाओं की प्रमुख भूमिका होती है। महिलाओं का काम चाहे ऊन कातना, भोजन बनाना, पशुओं की देखभाल करना है या फिर खेत में निराई-गुड़ाई करना, अनाज और घास काटना आदि सारा काम महिलाएं ही करती हैं। किन्नरी बालाओं का सौंदर्य हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता रखता है। किन्नरी बाला एक ओर सोम-सी सौम्य, हिम-सी शीतल, कुसुम-सी कोमल लगती है तो दूसरी और वज्र-सी कठोर भी। इन्हें लडक़ों के बराबर ही अधिकार मिले होते हैं। इसीलिए अधिकांश किन्नर समाज में कन्या का उत्पन्न होना शुभ माना जाता है। अपवाद के तौर पर कुछ गांवों में कन्या के पैदा होने पर खुशी नहीं होती। इन गांवों में लडक़ी होने पर उसके बाप को मज़ाक-मज़ाक में पीटने की परम्परा भी है। यहां पर पुरूष केवल हल चलाने तथा भेड़-बकरियां चराने के सिवा प्राय: काम नहीं करते। ये अधिकांशत: घण्टी पीने में ही मस्त रहते हैं। किन्नौरी अंगूरी हर समारोह में पी और पिलाई जाती है। घण्टी का प्रचलन इतना अधिक है कि मंदिरों में देवता को भी इसे चढ़ाया जाना शुभ माना जाता है।

पुरानी राजधानी कामरू अर्थात मोनेगोरी

बुशहर के राजाओं की राजधानी कामरू

कामरू का पुराना नाम मोनेगोरी है। कामरू कभी बुशहर के राजाओं की राजधानी हुआ करता था। कामरू जिला मंदिर के रूप में पुरातत्व की अनूठी कृति है। यहां बद्रीनाथ, कामाक्षा तथा बौद्ध मंदिर हैं। कामाक्षा देवी का मंदिर सात मंजिला है। सिंहासनारूढ़ होने से पहले बुशहर के राजाओं का राजतिलक यहां पर ही होता था। इसकी दूसरी मंजिल में देवी की प्रतिमा स्थापित है। इसमें एक कुंआ है, साथ एक छोटा सा घर है, जिसमें कैदियों को रखा जाता था। इसमें एक कुंआ है, जिसमें उन्हें धकेला जाता था और एक रस्सी द्वारा खाना-पानी पहुंचाया जाता था। वे सजा पूरी होने तक इसी अंधेरे कुंए में रहते थे। कामरू में भीमाकाली का मंदिर भी है। भीमाकाली बुशहर के राजाओं की कुलदेवी हैं, इसलिए उन्होंने भीमाकाली का मंदिर यहां बनवाया होगा। कामाक्षा से ही इस गांव का नाम कामरू पडऩा स्वाभाविक है। कहा जाता है कि कामाक्षा देवी को आसाम से लाया गया था। वास्तव में आसाम का पुराना नाम कामरूप है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए कमर में सूत बांधना पड़ा। बद्रीनाथ मंदिर और बौद्ध विहार एक ही परिसर में हिंदू बौद्ध समन्वय का प्रतीक था। बद्रानारायण मंदिर काठकला का सुंदर नमूना लगा। दोनों मंदिर किले के निचले धरातल पर स्थित थे। कहते हैं ये बद्रीनाथ से यहां आए हैं। इनके अलावा राजा छत्रसिंह और कल्याण सिंह को भी यहां पर देवत्व प्राप्त है।

नाम के साथ ‘नेगी’ उपनाम जोडऩे में गर्व महसूस करते हैं किन्नौरे

यहां अनाज को घर के बाहर एक कोठार में रखा जाता है। इसे शिमा कहा जाता है। इसकी चाबियां प्राय: महिला के पास ही रहती हैं। अनाजों में जौ, गेहूं, ओगला, फाफरा, मक्का, चुलाई, चीना, बाथू, कोदा, दालों में मूंग, लोबिया, माश, सेम, रोंगी, सोयाबीन, मटर, मटरी तथा मसूर आदि पैदा होते हैं। किन्नौरे वे चाहे किसी भी जाति के क्यों न हों, अपने नाम के साथ नेगी उपनाम जोडऩे में गर्व महसूस करते हैं।

विवाह प्रथा : शादी का निर्णय लेने में युवती स्वतंत्र

 शिव की धरती से विख्यात "किन्नौर"

शिव की धरती से विख्यात “किन्नौर”

शादी का निर्णय लेने में युवती स्वतंत्र होती है। यहां पर लड़की वाले ही लड़की मांगने जाते हैं। विधिपूर्वक विवाह को यह जनेकङ कहते हैं। इसमें कई बार लड़के का पिता तीन लड़कियों को ढूंढता है। तीनों के नाम पर तीन फूल लाता है और देव मंदिर में जाकर ग्राम देवता से उनमें से उपयुक्त लड़के के बारे में पूछता है। इस अवसर पर मध्यस्थ भी साथ होता है। देवता सामान्यत: एक लड़की को चुनता है। तब लडक़े का पिता मध्यस्थ के माध्यम से लड़की वालों से बात चलाता है। लड़की वालों की तरफ से स्वीकारोक्ति वाला संदेश मिलने पर मध्यस्थ के साथ लड़के का मामा दारू की बोतल, कुछ रूपए, अखरोट, बादाम, चुली, न्योज़ा की माला लेकर लड़की के घर जाता है। बोलन में घी चिपकाया जाना शुभ माना जाता है। यदि लड़की के बाप ने बोतल की पूजा की तो समझा जाता है कि उन्हें यह रिश्ता मंजूर है। अगर लड़की न चाहे तो रिश्ता होने के बाद भी अस्वीकार किया जाता है। रिश्ता तोड़ने को किन्नौर में कौरिंग पोलठाम कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों में लड़की को विवाह के समय ही वरपक्ष की तरफ से लड़की के पक्षवालों के सामने एक-दो खेत लिखित रूप में देने पड़ते हैं, ताकि विवाह के बाद लड़का उसे त्याग भी दे तो वह उस जमीन से अपना गुजारा कर सके। इस परम्परा को विथोपोनो कहा जाता है।

विवाह के लिए तब निश्चित तिथि मुकर्रर होती है तो उस दिन बारात चलते समय दूल्हे के ऊपर नारियल फेंका जाना शुभ माना जाता है। बारातियों के साथ आए भूत-प्रेतों को गांव से दूर रखने के लिए ग्राम देवता का रथ गांव के बाहर जाता है और प्रत्येक बाराती की छानबीन करके गांव भेजता है। कई बार देवता के प्रतिनिधि के रूप में पुजारी यह रस्म निभाता है। बाद में मेमने की बलि दी जाती है। कई जगह बारात के आने पर उसे गांव के बाहर रोकने पर गूर आग जलाकर स्क्रोगमों करते हैं।

लोगों का मुख्य पेशा खेतीबाड़ी व भेड़-बकरियां पालना

किन्नौर में गांव की ऊपर की भूमि को कण्ढा और नीचे की भूमि को न्योल कहते हैं। लोगों का मुख्य पेशा खेतीबाड़ी तथा भेड़-बकरियां पालना है। पोवारी में सतलुज पर झूले के द्वारा पहुंचा जा सकता है। पार गांव के लोग अपने खेतों की उपज इसी झूले से राष्ट्रीय राजमार्ग तक पहुंचाते हैं और वहां से अपने खाने-पीने का सामान ले जाते हैं। यह सचमुच जोखिमभरा काम होता है।

ठाकुरों के समय के गढ़ लब्रङ और मोरङ में अभी भी मौजूद

72 किलोमीटर लम्बी सांगला घाटी में करछम से 17 किलोमीटर की दूरी पर 500 हेक्टेयर में फैला लगभग 200 घरों का गांव सांगला और सांगला से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर कामरू का किला है। कामरू के अतिरिक्त ठाकुरों के समय के गढ़ लब्रङ और मोरङ में अभी भी मौजूद हैं। समस्त हिमाचल में गढ़ हमेशा ऐसी जगह बनाए जाते थे, जहां आक्रांताओं के लिए चढऩा आसान नहीं होता था। शत्रु का आक्रमण होने पर लोग इन गढ़ों में पनाह लेते और वहीं से शत्रु पर तीरों और पत्थरों की वर्षा करते थे।

  • साभार:हिमाचल दर्प

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