हिमाचल: ऐतिहासिक, पारम्परिक व सांस्कृतिक पहचान दर्शाती चौपाल की “वेशभूषा”
हिमाचल: ऐतिहासिक, पारम्परिक व सांस्कृतिक पहचान दर्शाती चौपाल की “वेशभूषा”
देश की बात हो या प्रदेश की उसकी जीवन शैली की पहचान वहां के रहने वाले लोगों, वेशभूषा, खानपान व आभूषणों से होती है। हांलाकि काफी समय से हमारे कई पारम्परिक परिधान और आभूषण लुप्त होते जा रहे हैं। ऐसे में हमारे बड़े के साथ-साथ युवाओं का अहम कर्तव्य बनता है कि वे अपने बुजूर्गों की इन परंपराओं व संस्कृति को सहज कर रखें। ऐसी स्थिति में पारम्परिक वेशभूषा का अध्ययन और प्रलेखन विशेष महत्व रखता है। इसी के चलते हिम शिमला लाइव का भी यही प्रयास है कि हम अपने हिमाचल की वेशभूषा, संस्कृति, धरोहर, पर्यटन, धर्म-संस्कृति से आपको अवगत कराते रहे हैं। इसी प्रयास के चलते इस बार हम आपको चौपाल की वेशभूषा के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं।
चौपाल की वेशभूषा व आभूषण
चौपाल जनपद की अपनी एक विशेष ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है। ऐतिहासिक दृष्टि से मानव यहां प्राचीनकाल से ही रहने लगा था। प्राक्-आर्य जाति कोल यहां प्राचीन काल से ही बसती आई है। कोली, हाली, चमार, डोम, लुहार, ढाकी एवं बाढ़ी आदि प्रागैतिहासिक जातियां कोल जाति से सम्बन्धित हैं, ऐसी इतिहासकारों की मान्यता है। खशों को आर्य कबीलों से ही माना जाता है, खश मध्य एशिया से आकर सर्वप्रथम पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में आए। जो वर्तमान पहाड़ी क्षेत्र है।
आर्यों के आगमन के उपरान्त चौपाल जनपद में भी अन्य जातियों का पदार्पण हुआ। कनैत खश जाति सम्बन्धित हैं जो कुनिन्द गण की ओर संकेत करता है। आज ब्राह्मण, खश, कनैत, राठी, ठाकुर, मियां, कोली, डोम, लुहार, ढाकी, बाढ़ी, चमार, गुज्जर आदि सामाजिक व्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग हैं। समाज के इन अंगों का रहन-सहन, खानपान तथा वेशभूषा आदि पारम्परिक है।
वेशभूषाएं तथा आभूषण पहनने की प्रथा अलग-अलग
आदि मानव ने भले ही परिस्थितियों के आधार पर अपने बदन को ढांपने के लिए पहले छाल का प्रयोग किया हो परन्तु समय के साथ-साथ उसमें कलात्मक सोच का विकास हुआ, परिणामस्वरूप मानव समाज में वेशभूषा के विभिन्न पक्ष विकसित हुए जो मानव की रूचि, जलवायु तथा भौगोलिक परिस्थितयों के आधार पर विकसित होते गए। चौपाल के जनसमुदाय की वेशभूषा भी पारम्परिक रूप से सभ्यता के पथ पर अग्रसर मानव रूचि एवं परिस्थितियों के आधार पर विकसित हुई प्रतीत होती है। यहां की प्राक-आर्य एवं आर्योतर जातियों की वेशभूषाएं तथा आभूषण पहनने की प्रथा अलग-अलग थी। खश समुदाय और आर्योतर जातियों की वेशभूषा से इस बात की पुष्टि होती है। यहां खश समुदाय का पुरूष आदिकाल में ऊन का लोईया, ऊन का चूड़ीदार पायजामा, कमर में ऊन की गाची, सिर पर टोपी अथवा सजावट के लिए टोपी में कलगी, पैर में चमड़े के जूते का प्रयोग करता रहा है।
पारम्परिक उत्सवों में पारम्परिक वेशभूषा
इसी प्रकार खश महिला ऊन की अचकन, चूड़ीदार पायजामा, कुर्ता सिर पर ढाठू, कमर में ऊन की गाची, विभिन्न अंगों में सोने और चांदी के आभूषण पहने सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति दिखाई देती है। ब्राह्मण धोती, कुर्ता आज भी पहनते हैं। यद्यपि आज समय के साथ-साथ, खश समुदाय की वेशभूषा में आमूल परिवर्तन हो चुका है परन्तु आज भी पारम्परिक उत्सवों में खश समुदाय इसी पारम्परिक वेशभूषा को पहनते हैं।
चौपाल वास्तव में खूंदों की भूमि
खशों को अपनी माटी से अनूठा प्रेम था। यह जाति वीरता और पराक्रम के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रही है। एक-एक गज जमीन के लिए खश समुदाय लड़ा करता था। एक बात स्पष्ट हो चुकी है कि खश विभिन्न कबीलों में रहते थे। कबीलों में अकसर संघर्ष हुआ करता था। महाभारत काल से ही कबीले कौरव और पाण्डव दलों में शाठी और पाशी कहलाते हैं। शाठी कौरव दल तथा पाशी पाण्डव दल से सम्बन्धित हैं। इन्हें यहां खूंद कहा जाता है। चौपाल वास्तव में खूंदों की भूमि है। शाठी और पाशी दलों में विभक्त ये खूंद एक दूसरे के साथ वैर के कारण अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए युद्ध लड़ा करते थे। बैशाख, आषाढ़ तथा सावन मास में आयोजित किए जाने वाले बिशू मेले खूंद परम्परा की अभिव्यक्ति करते हैं। ये बिशू आज भी खूंदों के वर्चस्व की कहानी बताते हैं। बिशू में आयोजित किया जाने वाला ठोडा इस बात का प्रतीक है। ठोडा दो खूंदों द्वारा आपस में खेला जाता है। ठोडा के अवसर पर विशेष प्रकार की वेशभूषा पहनी जाती है। इसमें कई खूंद सिर पर लम्बी और गोलाकार सफेद टोपी पहनते हैं। पुराने जमाने में ऊन के कपड़े की नीचे से मुड़ी हुई टोपी पहनने के भी प्रमाण हैं। शरीर के ऊपर के भाग में कुर्ता उसके बाहर गाची और गात्रा, हाथ में डांगरा और टांगों में ऊन या दसूती का मोटा चूड़ीदार पायजामा सूथण पहना जाता है। पैर में मोटे-मोटे चमड़े के बूट पहने जाते हैं जो लगभग पौना ईंच मोटे एक फुट ऊंचे तथा पैर की आकृति के अनुसार लम्बे बनाए जाते हैं। यह विशेष प्रकार का परिधान है जो खश समुदाय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कई तथ्यों को उद्घाटित करते हैं।
खूंद समुदाय जब पुराने जमाने में अपने वैरी खूंद से लडऩेे जाते थे तो भी विशेष प्रकार के परिधानों को पहना करते थे। गले में ऊन की एक विशेष प्रकार की पट्टी पहनी जाती थी, जिस पर डांगरा का प्रहार आसानी से नहीं हुआ करता था। इसी प्रकार लोईया के बाहर ऊन की गिद्दी पहनी जाती थी जो कवच का काम करती थी।
चौपाल की वेशभूषा ऐतिहासिक और पारम्परिक
चौपाल की वेशभूषा ऐतिहासिक और पारम्परिक है। जो परिधान इस क्षेत्र में पहने जाते हैं उनमें पुरूष अचकन, लोईया, ऊन का कोट, चोगा, बास्कट, किश्तीदार टोपी गोल टोपी, कनखटा, चूड़ीदार प्रमुख हैं। स्त्रियां अचकन, कुर्ता, सुथणी, सदरी, गाची और चमड़े की जूती पहना करती थीं। चौपाल में प्रचलित वेशभूषा इस प्रकार है:
पुरूष परिधान
घुटनों तक लम्बा वस्त्र होता है अचकन
अचकन : यह घुटनों तक लम्बा वस्त्र होता है। छाती में चार से छह बटन सीधी पंक्ति में होते हैं। बटन पुराने समय में धागों द्वारा स्वयं निर्मित किए जाते थे तथा इन्हें पाशों में बांधा जाता था। ऊनी और सूती दोनों प्रकार की अचकन बनाई जाती थी। अचकन के दाईं-बार्इं ओर छोड़ (कट) रखे जाते हैं ताकि उठने तथा बैठने में सुविधा रहे।