
जनपदों का आविर्भाव वैदिकयुग के अंत में हुआ प्रतीत होता है
जनपदों का आविर्भाव वैदिकयुग के अंत में हुआ प्रतीत होता है। जन अपने को किसी विशेष ऋषि की संतान मानते थे, वहीं गोत्र कहलाता था। प्रत्येक जन में अनेक कुटुंब होते थे और विभिन्न कुटुंबों के समुदाय का एक जन होता था। ऋगवेद में जनों का उल्लेख है, जन-पदों स्थायी राज्यों का नहीं। जब ब्राह्मण ग्रंथों, दर्शनों की रचना हुई उस काल में जनपदों का उदय हुआ और देश में स्थापना होती गई। ये जनपद राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से इकाई रूप में उभरे। इन जनपदों में शांति, सुव्यवस्था और आर्थिक दृष्टि से इकाई रूप में उभरे। इन जनपदों में शंति, सुव्यवस्था और धर्म नीति की स्थापना राजतंत्र से अधिक विकसित और सुदृढ़ बुनियादों पर हुई। भाषा, धर्म, अर्थ, संस्कृति और व्यवस्था सभी दृष्टि से जनपदें पक्की थी कि सहस्त्रों वर्षों तक उनके नैतिक ढांचे अडिग, अचल बन रहे।
पहाड़ों में छोटे-छोटे जनपदों में जनसाधारण का जोर रहा
जनपद दो प्रकार के थे, एक राज और दूसरा गणाधीन। अधिकांश जनपदों की सत्ता क्षत्रियों के हाथें में थी। इनमें और जातियों के लोग तथा वर्णों के लोग भी रहते थे। एक राज जनपदों में कम्बोज, गान्धार, मद्र आदि थे। गणाधीन संघ राज्य अधिक थे। इनमें सत्ता सम्पूर्ण गण निहित थी। पहाड़ों में छोटे-छोटे जनपदों में जनसाधारण का जोर रहा। जनपदों को अलग करने वाली प्राकृतिक सीमाएं नदी-नाले, पर्वत शिखर आदि हुआ करते थे। जनपद एक प्रकार से छोटे स्वतंत्र राज्य थे, जो एक जैसे देवताओं को मानते थे। एक जनपद दूसरे को परास्त कर देता था परंतु उसे नष्ट नहीं करता था। पौराणिक काल में इन जनपदों की संख्या 175 तक पहुंच गई। पाणिनी काल तक ये पूर्ण विकास पर पहुंच गए। पाणिनी ने पश्चिमी हिमालय के जनपदों का स्पष्ट वर्णन किया है। इनके दो समुह थे- एक त्रिर्गत से दार्वा भिसास तक और दूसरा सिंध से कापिशीकम्बोज तक विस्तृत भूभाग। पहले प्रदेश में त्रिर्गत, गब्दिका, युगन्धर, कालकूट, भरव्दाज कुलूट और कुलिंद आदि जन-पद थे। पहाड़ी जनपदों का दूसरा प्रदेश भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में सिंधु नदी से कम्बोज तक फैला था। राजनीतिक व्यवस्था की दृष्टि से ये पर्वतीय राज्य आयुधजीवी संघ शासन को मानते थे।
जनपदों ने अपने समृद्ध काल में तांबे और चांदी की मुद्राएं चलाई
इन जनपदों ने अपने समृद्ध काल में तांबे और चांदी की मुद्राएं चलाई। मुद्राओं का क्रयमूल्य अधिक था और जीवन उपयोगी वस्तुएं खरीद सकते थे। एतिरेय और बृहदारण्यकोपनिषद में जनपदों का वर्णन है। उत्तर मद्र हिमालय में उत्तर कुरू का पड़ोसी देश था। दक्षिणी मद्र की सीमाएं स्यालकोट के निकट थीं। मद्रों की राजधानी स्यालकोट में शूरवीर क्षत्रिय लिखा है। ब्राह्मण-काल में ये विद्या और पाण्डित्य के लिए प्रसिद्ध थे।
पाणिनी ने किया है त्रिगर्त देश के आयुधजीवी संघों का उल्लेख
त्रिगर्त: पाणिनी ने त्रिगर्त देश के आयुधजीवी संघों का उल्लेख किया है। यह रावी, व्यास और सतलुज तीन नदियों के बीच क्षेत्र था, पुराना नाम जलंधरायण भी था। वृहत् संहिता और महाभारत में भी इसका वर्णन है। महाभारत में राजा सुशर्मचंद्र का उल्लेख है। त्रिगर्त के राजा सूर्य वर्मा का नाम मिलता है। यहां का प्रथम राजा भूमि चंद्र हुआ है। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में त्रिगर्त का राजा उपहार लेकर आया। मार्कण्डेय, मत्सय पुराणों में इसे पर्वतीय प्रदेश बताया है। पाणिनी ने त्रिगर्त नामक संघ राज्यों का उल्लेख कर-कोण्डोपरथ, दाण्डकि, कोष्टकि, जालमनि, बह्यगुप्त, जानकि- त्रिगर्त-षष्ठ कहा है। यहां के लोग वीरता के लिए प्रसिद्ध थे।
औदम्बरगण अपने को मानते हैं विश्वमित्र का वंशज
औदुम्बर गण: पाणिनी, महाभारत, विष्णु पुराण, वृहत्संहिता में औदुम्बर देश का उल्लेख है। इनका यह देश, रावी, व्यास नदियों की ऊपरी दूनों में रहा होगा। जिस की पुष्टि मुद्राओं और बौद्ध ग्रंथों से होती है। पठानकोट, नूरपुर आदि भी औदुम्बर देश में थे। ये औदम्बरगण अपने को विश्वमित्र का वंशज मानते हैं। औदुम्बर के क्षत्रियों को औदुम्बरक कहा गया। इन्होंने मुद्राएं भी चलाई जो ज्वालामुखी हमीरपुर स्थानों में प्राप्त हुईं। यह भारतीय ढंग की हैं। मुद्राओं पर ब्राह्मी, खरोष्टी दोनों लिपियों में राजा का नाम, गण का नाम मिलता है। इन पर शिवदास, रूद्रदास, महादेव और धरघोश चार राजाओं के नाम हैं। चांदी की मुद्राएं भी मिली हैं। इन पर खरोष्टी में यह देवस राजो धर घोषणा औदुम्बरिस लिखा है। धरघोष महादेव का उपासक था। ब्रिटिश संग्रहालय में चार शासकों की मुद्रांए सुरक्षित हैं। औदुम्बर मुद्राओं से भारतीय वास्तुकला पर प्रकाश पड़ता है। मु्रदाओं पर परशु, त्रिशुल चिन्हों से सिद्ध होती है कि औदुम्बर शैव मतानुयायी थे।
त्रिगर्त के साथ लगता जनपद था कुलूत

त्रिगर्त के साथ लगता जनपद था कुलूत