हिमाचल: किन्नौर जनपद की विवाह परंपरा, शादी में न तो मंडप बनाया जाता है, और न ही अग्नि के लिए जाते हैं फेरे
हिमाचल: किन्नौर जनपद की विवाह परंपरा, शादी में न तो मंडप बनाया जाता है, और न ही अग्नि के लिए जाते हैं फेरे
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कल्पा व निचार मंडल में शादी के दिन घर में देवता लाना आवश्यक
कल्पा एवं निचार में बारात प्रस्थान का कोई समय निश्चित नहीं होता
ऊपरी किन्नौर अर्थात् पूह मंडल में शादी की तिथि गाँव का लामा तय करता है। साथ ही लामा यह भी निश्चित करता है कि शादी में लड़के के लिए किस प्रकार का कपड़ा और किस रंग का घोड़ा होना चाहिए, वधू को पहला खाना क्या देना है और वह क्या पहनेगी इत्यादि । कल्पा तथा निचार मंडल में शादी के दिन घर में देवता को लाना आवश्यक है। पूह मंडल बौद्ध धर्मानुयायी है। अतः यहाँ पर देवता का प्रश्न ही नहीं। वहाँ पर केवल लामा ही शादी में सर्वोपरि होता है।
कल्पा एवं निचार में बारात प्रस्थान का कोई समय निश्चित नहीं होता, परंतु पूह मंडल में लामा पहले ही यह बता देता है कि बारात को किस समय प्रस्थान करना है और किस समय लड़की के घर में प्रवेश करना है। जब बारात प्रस्थान करती है तो दूल्हा सबसे पीछे चलता है। यह इसलिए कि कोई पीछे न छूट जाए और यदि कोई रास्ते में रूठ जाए तो उसे मनाना भी पड़ता है।
पूह मंडल में जब बारात प्रस्थान करती है तो सबसे आगे लामा चलता है और उसके पीछे दूल्हे की सखियाँ, जो कई बार दुलहिन की भी सखियाँ होती हैं। इनकी संख्या प्रायः एक या दो होती है। सखी को ‘फक्ठिद्-मा’ कहते हैं। फक्ठिद्-मा का चयन लामा करता है। इनकी आयु और राशि दूल्हा और दुलहिन दोनों के साथ मिलनी चाहिए। एक साथी भी होता है, जिसे ‘फक्ठिदा’ कहते हैं। इसका चयन भी लामा ही करता है। फक्ठिद्-मा के हाथ में मक्खन से बनी एक मूर्ति जैसी होती है, जिसे ‘डड्या’ कहते हैं। लामा के हाथ में भी बौद्ध धर्म के प्रतीक के रूप में एक चित्र रहता है, जिसके ऊपर ‘खतग’ लगा होता है। स्पीति के सीमावर्ती गाँवों- चाँगो, शलखर आदि में जो लोग ‘माज़ोमी’ होते हैं, वे बड़ी शादी में सबसे अलग दिखते हैं। उनका पहनावा अन्य लोगों से भिन्न होता है। उस दिन जो विशेष कपड़े उन लोगों द्वारा पहने जाते हैं, उन्हें ‘होशेद्’ कहा जाता है।
जब बारात घर से निकलती है तो पूजा देवता का ‘ग्रोक्च’ (माली) करता है
कल्पा तथा निचार मंडल में जब बारात घर से निकलती है तो कुछ दूर जाने पर रोटी और ‘घंटी’ या ‘छंग’ (शराब) से पूजा की जाती है। पूजा देवता का ‘ग्रोक्च’ (माली) करता है। यदि वह साथ न हो तो ‘माज़ोमी’ करता है। जब बारात किसी पुल के पास पहुँचती है तो वहाँ पर भी पूजा की जाती है। यहाँ पर रोटी, शराब और चावलों के साथ पूजा की जाती है तथा एक खंडू (मेढ़े) की बलि दी जाती है।
घर से बारात निकलने पर जहाँ देवता का थान होता है, सर्वप्रथम वहाँ पर पूजा की जाती है
रोटी, पोल्टू, सत्तू, छंग से की जाती है पूजा
गूर झाड़-फूंक करके और उनके ऊपर काँटा रखकर उन्हें घर के अंदर प्रवेश कराता है
पूह मंडल में घर से बारात निकलने पर जहाँ देवता का थान होता है, सर्वप्रथम वहाँ पर पूजा की जाती है। यह पूजा रोटी, पोल्टू, सत्तू, छंग इत्यादि से की जाती है। कुछ हिस्सा अमानुषी शक्तियों के नाम पर चारों दिशाओं में फेंका जाता है। जब कोई पुल आए तो वहाँ भी इसी प्रकार से पूजा की जाती है।
कल्पा तथा निचार मंडल में जब बारात लड़की के घर पहुँचती है तो बारात के स्वागत के लिए स्वागत द्वार के पास उस गाँव के देवता का गूर (माली) तथा कुछ लोग खड़े होते हैं। गूर थोड़ी-बहुत झाड़-फूंक करके और उनके ऊपर काँटा रखकर उन्हें घर के अंदर प्रवेश कराता है। एक परात में जलता हुआ कोयला डालकर उसके ऊपर लाल मिर्च डाली जाती है, ताकि उससे उठने वाले धुएँ से बारातियों को खाँसी आए, जिससे यदि उनके साथ कोई प्रेतात्मा अथवा भूत-प्रेत आ रहा हो तो वह वहीं से लौट जाए।
लड़कियाँ लड़कों से प्रश्न करती हैं और वे प्रश्नों के उत्तर देते हैं
पूह मंडल में जब बारात लड़की के घर पहुँचती है तो दरवाज़े पर कुछ औरतें और लड़कियाँ स्वागत के लिए खड़ी होती हैं। लड़कियों के हाथ में पूजा करने के लिए पोल्टू, दही, ‘कोरङ्’ की बोतल तथा एक धूपदानी होती है। कोरङ की बोतल पर मक्खन लगा होता है। वर पक्ष का लामा कोरङ तथा धूपदानी से द्वार पर कुछ देर पूजा करता है और लड़कियों के माये के बायीं ओर कान के पास मक्खन लगाता है।
बारातियों का दूध व छंग से करते हैं स्वागत
स्पीति के सीमावर्ती गाँवों में जब लड़की के घर बारात पहुँचती है तो साथ आए गाने वाले पाँच लड़के और लड़की की ओर से गाने वाली पाँच लड़कियों स्वागतद्वार के पास गाना गाती हैं। लड़कियाँ लड़कों से प्रश्न करती हैं और वे प्रश्नों के उत्तर देते हैं। उसके पश्चात् बारातियों को ‘खतग’ पहनाया जाता है तथा दूध व छंग से उनका स्वागत किया जाता है।
दूसरे दिन धाम के बाद बारात के लौटने की तैयारी शुरू हो जाती है। दुल्हन की सहेलियाँ उसे कहीं छुपा देती हैं और उसका पता तब तक नहीं बताती हैं, जब तक उनको मुँह माँगी रक़म न मिल जाए। पूह मंडल में जो सखियाँ दुल्हन को छिपाती हैं, उन्हें ‘रोक्- अंदा कहते हैं।
जब लड़की तैयार हो जाती है तो ‘माज़ोमी’ अथवा ‘माज़मी’ उसे लेने वहाँ जाता है, जहाँ वह तैयार होकर बैठी होती है। इस समय भी उसकी सखियाँ दरवाज़ा बंद कर देती हैं और मुँह-माँगी रक़म मिलने पर ही दरवाज़ा खोलती हैं। इस रस्म को निचले किन्नौर में ‘कोनेसङ् और ऊपरी किन्नौर में ‘नामाबच्चा’ कहा जाता है। जब दुल्हन को दूल्हे के पास लाया जाता है तो अन्य सगे-संबंधी भी वहीं पर आ जाते हैं। ये यहाँ दुल्हन को अपनी सामर्थ्य अनुसार कुछ न कुछ देते हैं, जैसे- पैसे, गहना, बर्तन आदि। सबसे पहले लड़की के माँ-बाप, चाचे-ताए, मामे आदि शगुन देते हैं, तत्पश्चात् अन्य लोग। इसे कल्पा और निचार मंडल में ‘उदानङ्’ तथा पूह मंडल में ‘जोङ’ कहा जाता है। स्पीति के सीमावर्ती गाँवों में इसे ‘जों’ कहते हैं। लड़की को विदा करने से पूर्व एक गाने के साथ तीन फेर वाला ‘माला नृत्य’ किया जाता है। स्पीति के सीमावर्ती गाँवों में जो लड़कियाँ दुल्हन के साथ जाती हैं, उन्हें ‘योडो’ कहते हैं।