हिमाचल: रिवालसर का छेश्चू (छेत्शु) मेला व वैशाखी मेला
हिमाचल: रिवालसर का छेश्चू (छेत्शु) मेला व वैशाखी मेला
लोमस ऋषि ने की थी रिवालसर झील के तट पर भगवान शिव की अराधना
‘छेश्चू‘ शब्द में ‘छ‘ का भाव पानी और ‘श्चू‘ का भाव है मेला
पूजा में वाद्य यन्त्रों के स्वर के साथ ‘ओम् माने पेमे हूं‘मन्त्र का किया जाता है जाप
हिमाचल प्रदेश के मण्डी जिला में छोटा-सा गांव रिवालसर, जिसे समन्वयवादी दृष्टि का गांव कहा जा सकता है। यह स्थान हिन्दुओं, बौद्धों व सिखों की समान आस्था का केन्द्र है। यहां के वैशाखी व छेश्चू के मेले विशेष लोकप्रिय हैं। स्थानिय लोग वैशाखी को ‘बसोआ‘ तथा ‘छेश्चू‘ को शिशु मेला कहते हैं।
‘छेश्चू‘ शब्द में ‘छ‘ का भाव है पानी और ‘श्चू‘ से भाव है मेला
नर्तक ढीली पोशाकें तथा चेहरे पर मुखौटे पहन करते हैं‘असुर नृत्य‘
‘छेश्चू‘ शब्द में ‘छ‘ का भाव है पानी और ‘श्चू‘ से भाव है मेला- इस प्रकार ‘छेश्चू‘ हुआ पानी का मेला। यह मेला 1910-15 के मध्य स्थापित प्राचीन बौद्ध मन्दिर ‘माणि-पाणि‘ के प्रांगण में बौद्ध गुरु पद्म सम्भव की कृपा प्राप्ति हेतु आयोजित किया जाता है इस मेले से सम्बन्धित घटना बताई जाती है, जिसका सम्बन्ध तिब्बत के शासक लांग दरमा से है। यह शासक बौद्ध मत का कट्टर विरोधी था। उसी के आतंक से पीड़ित लोगों ने नृत्य-प्रदर्शन में उसकी हत्या कर दी थी। इसी घटना की पुनरावृत्ति नृत्यों के माध्यम में होती है, जिसमें नर्तक ढीली पोशाकें तथा चेहरे पर मुखौटे पहन ‘असुर नृत्य‘ करते हैं। मेले की परम्परा प्राचीन है, परन्तु 1960 के बाद इसका आयोजन विशेष रूप से होने लगा है। इस मेले से पूर्व ‘डूंपचे‘ नामक विशेष पूजा का विधान है।
पूजा की समाप्ति वाले दिन होता है मुख्य मेले का आयोजन
नर्तक महात्मा बुद्ध व् गुरु पद्मसम्भव का रूप धारण कर करते हैं नृत्य
यात्रा में की जाती है रिवालसर झील की परिक्रमा
इस पूजा में वाद्य यन्त्रों के स्वर के साथ ‘ओम् माने पेमे हूं‘ मन्त्र का जाप किया जाता है। पूजा की समाप्ति वाले दिन से मुख्य मेले का आयोजन होता है। मेले से दस दिन पूर्व ‘लोसर‘ का त्यौहार धूमधाम से मनाया जाता है। विशेष पूजा ‘डूंपचे‘ के समापन पर आकर्षक सांस्कृतिक कार्यक्रम की व्यवस्था रहती है। इसका ( मुख्य आकर्षण ‘मुखौटा नृत्य‘ होता है। इस नृत्य में महात्मा बुद्ध तथा गुरु पद्मसम्भव का रूप धारण कर भी नर्तक नृत्य करते हैं। नृत्य की समाप्ति पर सभी लोग मन्दिर में प्रवेश करते हैं।
शोभा यात्रा में सुसज्जित पालकी में रखी जाती है गुरु पद्मसम्भव की प्रतिमा
इसके बाद शोभा यात्रा का आयोजन होता है। इस यात्रा में रिवालसर झील की परिक्रमा भी शामिल है। इसे बौद्ध पुण्य का कार्य मानते हैं और इसे ‘कोरा डोजे‘ की संज्ञा प्राप्त है। शोभा यात्रा में गुरु पद्मसम्भव की प्रतिमा एक सुसज्जित पालकी में रखी होती है। लाम गुरु, अपनी-अपनी उपाधि के अनुसार, पालकी को कंधा देते हैं। “एक सौ आठ कुंजरों (धार्मिक ग्रन्थों) को भी झील की परिक्रमाकरवाई जाती है। शोभा यात्रा को ‘सेंडा‘ की संज्ञा प्राप्त है। शोभा यात्रा में श्रद्धालु तथा अन्य दर्शक अपनी-अपनी टोपियां उतार ( धार्मिक ग्रन्थों के सम्मुख नमन करते हैं। यह समूचा आयोजन ऐसा ( लगता है मानों देवलोक या स्वर्ग-दर्शन हो। शोभा यात्रा मन्दिर में) आकर समाप्त होती है, और यहीं मेले का भी समापन है।
रिवालसर का वैशाखी मेला; झील का स्नान गंगा-स्नान के तुल्य
मेले से घर लौटते समय श्रद्धालुओं का ‘बरै‘ नामक ” जड़ी-बूटी की जड़ें व पत्ते साथ ले जाना माना जाता है शुभ
रिवालसर का वैशाखी मेला का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है। एक ( किंवदन्ति के अनुसार लोमस ऋषि ने इस झील के तट पर भगवान शिव की अराधना की थी। उनकी स्मृति में यहां वैशाखी का मेला लगता है। इस वर्ष इस झील का स्नान गंगा-स्नान के तुल्य स्वीकार ” किया जाता है। मेले के उपरान्त घर को लौटते समय श्रद्धालु ‘बरै‘ नामक ” जड़ी-बूटी की जड़ें तथा पत्ते साथ ले जाते हैं। यह शुभ माना जाता है।
झील पर आषाढ़ सक्रांति का मेला
इस प्रकार इस झील पर आषाढ़ सक्रांति का भी मेला लगता है, जिसे ‘नाहौली‘ की संज्ञा प्राप्त है। यह मेला देवी-देवताओं का है। लोक-नर्तकों की भी धूम रहती है, तो व्यापारी पुण्य लाभ प्राप्त करने के साथ-साथ खूब कमाई भी करते हैं।